सूर्योदय अब भी नहीं हुआ था जब नगर के विशाल स्नानागारों में पवित्र होकर सहस्रों नर-नारी सिंधु पूजन [1] के लिये उपस्थित हुए। धूप, दीप,[2] पुष्प, और दिव्य वनस्पतियों से सिंधु माता का पूजन किया गया तथा सिंधु माता से प्रार्थनायें की गयीं।
प्रार्थनायें! जो कण्ठों से नहीं उर की अतल गहराइयों से आती हैं। प्रार्थनायें! जिनका उत्स भय, आकांक्षाओं और कामनाओं में है। प्रार्थनायें! जिन्हें उदार सिंधु सहस्रों वर्षों से स्वीकार करती आई है! प्रार्थनायें जो ऊध्र्वगामी हैं और उच्च लोकों तक पहुँचकर वरदानों के रूप में पुनः पृथ्वी तक लौट कर आती हैं। प्रार्थनायें! जो सहस्रों कण्ठों से एक साथ उच्चारित होती हैं-
– हे माता सिंधु! आप दिव्य लोकों से लाये जल के साथ जीवन लेकर आती हैं। आपके द्वारा लाये गये दिव्य जलों के प्रताप से ही यह धरा यव, धान्य इक्षु और कर्पास से सदैव आपूरित रहती है।
– हे यवदायिनी! धान्य दायिनी! संतति दायिनी सिंधु! आप सहस्रों-सहस्र वर्षों तक इसी तरह दिव्य जल के साथ प्रवाहित होती रहें। आप के ही दिव्य जलों के प्रताप से अदृश्य लोकों में रहने वाली प्रजनन देवी और पशुपति धरा पर विविधरूपा सृष्टि की रचना करते हैं।
– हे दिव्यजलों को धारण करने वाली देवी सिंधु! आपके दिव्य जलों की उपस्थिति के कारण ही इक्षु और मधु में माधुर्य है। कर्पास में शुभ्रता है। यव और धान्य में प्राणदायिनी शक्ति का आविर्भाव है।
– हे वरुण पुत्री! आपके द्वारा लाये गये इस दिव्य जल को हमारे देवगण और पितृगण आदि काल से पान करते आये हैं। सहस्रों-सहस्र वर्षों तक हमारी संततियों को आप अपना दिव्य जल प्रदान करती रहें।
– हे माता! आपके जलों की शक्ति हमारे वृषभों के कूबड़ में संचित रहती है। हे देवी! आप ही के भय से शत्रु हम पर आक्रमण नहीं करते और अग्नि हमें नहीं जलाता।
– हे कृपामयी! यह आप ही के दिव्य जलों का प्रताप है कि समस्त जलचर, थलचर, नभचर और उभयचर हमारे अनुकूल बने हुए हैं।
– हे देवी! आप युगों-युगों तक दिव्य जल को धारण करें और सभी प्रकार की मृत्युओं को हमारी ओर आने से रोकें।
– हे देवी! जिस प्रकार आपने समस्त सागरों को अपने जल से समृद्ध कर रखा है उसी प्रकार आप हमें तथा हमारी संततियों को निरंतर सुख, समृद्धि और शांति प्रदान करें।
अंतिम प्रार्थना से पूर्व पद्म पत्रों पर रखे सहस्रों दीप सिंधु में प्रवाहित कर दिये गये। सिंधु की अनंत लहरों पर लहराते-इठलाते सहस्रों ज्योतिर्पुन्ज। ये मिट्टी और यव-चूर्ण से बने दीप नहीं, सैन्धव लोगों द्वारा अपने मन के अंधियारे को हटाने के घोषणा पत्र हैं। सिंधु में दीप प्रवाहित करते समय माता सिंधु से आज की अंतिम प्रार्थना की गयी-
– हे पयस्विनी! हम श्रद्धा पूर्वक ये दीप आप को अर्पित करते हैं। जो कुछ भी कलुषित है, बुरा है, उसे हमसे दूर करें और जो कुछ भी श्रेष्ठ है, वरणीय है उसे आप हमें प्रदान करें। देवी आप हमें पातकों से बचायें और हमें अपने दिव्य जल की भांति निर्मल करें। आपको नमस्कार! नमस्कार! नमस्कार!
भले ही श्रद्धा और विश्वास से प्रसूत होती हैं प्रार्थनायें किंतु प्रतनु को बहुत पसंद हैं। कुछ देर के लिये ही सही प्रार्थनायें मनुष्य को अहंकार से दूर कर अपनी अपूर्णताओं और निर्बलताओं के बारे में सोचने का अवसर देती हैं। प्रार्थनायें मनुष्य को बताती हैं कि जो कुछ उसने प्राप्त किया है उसमें उसका अपना चमत्कार नहीं, प्रकृति का उदार भाव है। वह भी हाथ जोड़कर प्रार्थनाओं की तरलता और निर्मलता को अपने उर में अनुभव करता है एवं शीश झुकाकर उदार प्रकृति के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करता है।
सिंधु पूजन के बाद आरंभ हुआ देव प्रतिमाओं के अभिषेक और पूजन का अनुपम अनुष्ठान। समस्त नर-नारी नगर में स्थित महालयों में फैल गये। सूर्योदय की प्रथम किरण के साथ ही प्रधान महालय के विशाल ताम्र-घण्ट पर विशाल काष्ठ का आघात हुआ और समस्त महालयों में अभिषेक एवं पूजा का अनुष्ठान आरंभ हुआ। सैंकड़ों घण्ट, घड़ियाल और शंख एक साथ बज उठे। चारों दिशाओं से आती मंगल ध्वनियों के बीच प्रधान पुजारी किलात के नेतृत्व में सैंकड़ों पुजारियों ने यत्न पूर्वक समस्त दैवीय विधानों के अनुसार प्रजनन देवी और प्रजनक देव का अभिषेक एवं पूजन का अनुष्ठान सम्पन्न करवाया।
मोहेन-जो-दड़ो के समस्त महालयों में स्थापित देव-प्रतिमाओं को एक साथ सप्त सैंधव- सिंधु, वितस्ता, असिक्नी, परुष्णि, विपासा, शतुद्रि और सरस्वती के पवित्र जलों से अभिषेक किया गया। मुख्य मातृदेवी-महालय एवं मुख्य पशुपति-महालय में स्थापित प्रतिमाओं को मधु, दुग्ध और उत्तम कोटि के फलों के रस से भी अभिषिक्त किया गया। समस्त देव प्रतिमाओं को पत्र, पुष्प, और विशिष्ट वनस्पतियों से सजाया गया तथा उन्हें नवीन शृंग धारण करवाये गये। देव प्रतिमाओं के सम्मुख श्रेष्ठ खाद्य- यव, धान्य, इक्षु, फल, दुग्ध, मधु, आसव, पर्क एवं सुरा अर्पित किये गये।
विविध प्रांतरों से आये नर-नारी अपने प्रदेश के श्रेष्ठ पदार्थ मातृदेवी एवं पशुपति को अर्पित करने के लिये लाये थे। शीघ्र ही मोहेन-जो-दड़ो के समस्त महालय इस उत्तम सामग्री से आप्लावित हो गये। बहुत से नर-नारियों ने तो इस अवसर पर अपना सर्वस्व अर्पित करने के भाव से शरीर पर धारण किये हुए वस्त्र, आभूषण और अपने केश भी देवताओं को अर्पित कर दिये। मंदिरों के बाहर शंख, कौड़ी, घोंघे, हस्तिदंत, मृत्तिका, शृंग, विविध रंगों के प्रस्तरों, स्वर्ण, रजत, ताम्र एवं कांस्य आदि विविध सामग्री से निर्मित आभूषण, रक्त गोमेद, हरित अमेजन तथा वैदूर्य के ढेर लग गये। [3] मंदिरों में चढ़ाई गयी विपुल सामग्री पुजारियों द्वारा श्रद्धालु नागरिकों में प्रसाद के रूप में वितरित कर दी गयी। अनुष्ठान विधान का अंतिम भाग थी बलि। देवी को प्रसन्न करने के लिये चैड़े फल के खाण्डे से अज अर्पित किये गये। [4] इस अनुष्ठान के पूरा होने तक दोपहर हो चली।
[1] मोहेन-जो-दड़ो में बड़ी संख्या में सामूहिक उपयोग के स्नानागार, घर-घर में बने कुएँ तथा विशाल जलकुण्डों की उपस्थिति इस ओर संकेत करती है कि सिंधु सभ्यता में पवित्र स्नान और जल पूजा का विशेष महत्व था। प्रत्येक धार्मिक अवसर पर स्नान करने की परम्परा थी और इसे पुजारियों द्वारा विशेष अनुष्ठान के रूप में करवाया जाता होगा। आज भी दक्षिण भारत के रामेश्वरम् में स्थित विशाल सेतुबंध शिवालय में पवित्र स्नान करवाने की परम्परा है। मंदिर में आने वाले श्रद्धालुओं को पुजारियों द्वारा छोटे-छोटे जल कुण्डों के पवित्र जल से स्नान करवाया जाता है। इस अनुष्ठान में श्ऱद्धालु व्यक्ति सपरिवार मंदिर की परिक्रमा करता हुआ विभिन्न कुण्डों का जल अपने ऊपर डालता जाता है तथा पुजारी मंत्र बोलते हैं। आज जो लोग सिंधी समुदाय के नाम से जाने जाते हैं, उनमें झूलेलाल की पूजा होती है। झूलेलाल वरूण देवता के अवतार माने जाते हैं। ई.1947 से पूर्व सिंधी समुदाय इसी क्षेत्र में रहता था।
[2] खुदाई में मातृदेवी की कुछ ऐसी मूर्तियाँ भी प्राप्त हुई हैं जिनके ऊर्ध्व भाग धूप-दीप के धूम्र से काले हो गये थे। कुछ मुद्राओं पर स्तंभ के ऊपर दीपिका और नीचे अग्नि जलती हुई प्रदर्शित की गयी है।
[3] इतिहासकारों की मान्यता है कि सिंधु सभ्यता के लोग सोना मैसूर से, चांदी मद्रास, बिहार और उड़ीसा से, ताम्बा अफगानिस्तान, बिलोचिस्तान और अरब से मंगवाते होंगे। लाल गोमेद राजस्थान, कश्मीर और काठियावाड़ से मंगवाया जाता होगा। हरा अमेजन नीलगिरि की पहाडि़यों में मिलता था। वैदूर्य अफगानिस्तान के बदख्शाँ प्रांत से आता होगा। लाल और नील स्फटिक दक्षिणी पठार, बिहार और उड़ीसा से मिलता होगा।सिंधुवासी धातुओं को गलाना जानते थे। मोहन-जो-दड़ो में ताम्बे का गला हुआ एक ढेर मिला है। धातुओं के साथ-साथ वे शंख, सीप, घोंघा, हाथीदांत आदि के काम में भी निपुण थे। सिंधुवासियों ने ताम्बे में 6 से 13 प्रतिशत टिन मिलाकर काँसा बनाया।
[4] मोहेन-जो-दड़ो से प्राप्त एक मुद्रा पर एक बकरा बना हुआ है, उसके पीछे एक व्यक्ति चौड़े फल वाला हथियार लिये हुए खड़ा है। दूसरी मुद्रा में एक वृक्ष के नीचे देवी खड़ी है, उसके समीप एक बकरा भी खड़ा है। हड़प्पा में पुरातत्ववेत्ता दयाराम साहनी को बैल, घोड़ा, भेड़ आदि अनेक पशुओं की हड्डियों का ढेर मिला था। अनुमान किया जाता है कि उस स्थान पर पशुओं की सामूहिक बलि दी गयी थी।