जब अंग्रेजों ने बहादुरशाह जफर को लाल किले से निकाल कर भारत की मुख्य भूमि से दूर फैंकने का निश्चय किया तो बहादुर शाह जफर की आखिरी इच्छा भारत भूमि पर दो गज जमीन में गाढ़े जाने के रूप में प्रकट हुई किंतु अब भारत में उसे और उसके वंशजों को दो गज जमीन किसी भी कीमत पर नहीं मिल सकती थी।
हमने इस धारवाहिक की 218वीं कड़ी में बहादुरशाह जफर तथा उसके परिवार को अंग्रेज अधिकारियों द्वारा रात के अंधेरे में बैलगाड़ियों एवं पालकियों में बैठाकर लाल किले से निकाले जाने की चर्चा की थी। एक बार फिर हम बहादुरशाह जफर के काफिले की तरफ चलते हैं जो बड़ी शांति के साथ दिल्ली से रंगून की तरफ बढ़ रहा है।
बैलगाड़ियों एवं पालकियों में यात्रा कर रहा यह काफिला जब कानपुर रेलवे स्टेशन के निकट से होकर गुजरा तो इन लोगों ने जीवन में पहली बार एक ‘ट्रेन’ को देखा जिसमें भाप का इंजन लगा हुआ था और बहुत से लोग ट्रेन में उतर-चढ़ रहे थे। रेल्वे स्टेशन पर एक बैण्ड वादक समूह ‘इंग्लिशमैन’ की धुन बज रहा था।
बादहशाह ने बड़ी हैरत से इस नए उभरते हुए हिंदुस्तान को देखा जो ट्रेन में बैठकर यात्रा कर रहा था और अंग्रेजी बाजा सुन रहा था। उभरते हुए नए भारत में किलों, घोड़ों, तलवारों एवं पालकियों का समय पीछे छूट रहा था और पिस्तौलों से लेकर बम बरसाने वाली तोपों तथा ट्रेनों का समय आ गया था किंतु इस हिंदुस्तान में बाबर के बेटों के लिए कोई स्थान नहीं था। उन्हें अब रंगून में अपना भविष्य तलाशना था।
इलाहाबाद में इन लोगों को बैलगाड़ियों एवं पालकियों से उतारकर ‘स्टीमर’ में बैठाया गया। बाबर के इन दुर्भाग्यशाली बेटों ने जीवन में पहली बार भाप से चलने वाला स्टीमर देखा। शाही परिवार को गंगाजी के रास्ते ही कलकत्ता तक ले जाया गया। इस समय अवध का निर्वासित नवाब वाजिद अली शाह तथा मैसूर के शासक टीपू सुल्तान का उत्तराधिकारी भी कलकत्ता में ही नजरबंद किए हुए थे। शाही कैदियों को 4 दिसम्बर 1858 को प्रातः 10 बजे कलकत्ता में एक जंगी जहाज में चढ़ाया गया और वे लोग लेफ्टिनेंट ओमैनी के नेतृत्व में तुरंत बर्मा के लिए चल पड़े। बाबर के बेटों ने पहली बार अंग्रेजों के जंगी जहाज के दर्शन किए। यह इतना विशाल था और इसमें इतने सारे घोड़े, गाय, बैल, मुर्गियां, सूअर तथा इंसान लदे हुए थे जिन्हें देखकर अचम्भा होता था!
जब यह जंगी जहाज रंगून पहुंचा तो लेफ्टीनेंट ओमैनी को यह देखकर खीझ हुई कि भारत से बंदी बनाकर लाए गए बादशाह और उसकी मलिकाओं को देखने के लिए बर्मा के बहुत सारे लोग रंगून के बंदरगाह पर खड़े हुए थे। जाने कैसे इन लोगों को बादशाह को रंगून लाए जाने का समाचार मिल गया था!
इन लोगों को श्वे डागोन नामक एक पगोडा के निकट एक छोटे से मकान में ले जाकर बंद कर दिया गया। कुछ दिनों बाद उन्हें एक अन्य घर में स्थानांतरित कर दिया गया। अब शाही परिवार का जीवन इसी जेल में सीमित था जिसे वे अपना नया महल या नया मकान या नया ठिकाना कह सकते थे!
बहादुरशाह जफर उर्दू का अच्छा शायर था। गालिब, दाग, मोमिन और जौक के सान्निध्य के कारण उसकी कविता उन्हीं कवियों के स्तर की हो गई थी। कुछ अंग्रेज अधिकारियों ने अपनी डायरियों में लिखा है कि जब बहादुरशाह जफर को लाल किले की गंदी कोठरी में बंद कर दिया गया था तब बहादुरशाह जफर जली हुई तीलियों से कविताएं लिखा करता था। जब ई.1857 में भारत का प्रथम स्वातंत्र्य समर लड़ा गया तो उस दौरान दिल्ली में मची अफरा-तफरी में जफर की अधिकांश कविताएं नष्ट हो गईं। उसकी बची हुई कविताओं को ‘कुल्लिया-इ-जफर’ शीर्षक से प्रकाशित किया गया।
कहते हैं कि एक बार उर्दू जानने वाले एक अंग्रेज ने बहादुरशाह पर व्यंग्य किया-
दम दमे में दम नही अब खैर मांगो जान की,
अय जफर ठण्डी हुयी शमशीर हिन्दुस्तान की।
इस पर बहादुरशाह जफर ने उसे जवाब दिया-
गाजियों में बू रहेगी जब तलक ईमान की,
तख्ते लंदन तक चलेगी तेग हिंदुस्तान की।
रंगून पहुंचकर भी बहादुरशाह कविताएं लिखता रहा। रंगून में लिखी हुई उसकी एक गजल बहुत प्रसिद्ध हुई। जिसके दो शेर इस प्रकार हैं-
दिन ज़िन्दगी के ख़त्म हुए शाम हो गई,
फैला के पाँव सोएँगे कुंज-ए-मज़ार में।
कितना है बदनसीब ‘ज़फ़र’ दफ़्न के लिए,
दो गज जमीन भी न मिली कू-ए-यार में।
रंगून पहुंचने के बाद बहादुरशाह लगभग 5 साल तक जीवित रहा। दुर्भाग्यवश उसे गंभीर पक्षाघात हुआ। कुछ समय बाद उसके शरीर पर दूसरा पक्षाघात हुआ। 6 नवम्बर 1862 को बहादुरशाह जफर के शरीर पर तीसरा पक्षाघात हुआ और 7 नवंबर 1862 को प्रातः 5 बजे रंगून में बाबरी खानदान के आखिरी बादशाह का निधन हो गया! अंग्रेजों ने निश्चय किया कि बहादुरशाह का शव ऐसी जगह दफ़नाया जाए जहाँ कोई उसे ढूंढ न पाए। इसलिए श्वेडागोन पैगोडा के निकट शाम चार बजे उसे चुपचाप दफ़ना दिया गया। उसके साथ ही भारत में दो गज जमीन पाने का सपना भी दफ्न हो गया। जब उसके शव को दफ्न किया गया तब उसके दो शहजादे और एक कर्मचारी मौजूद था।
बहादुरशाह ज़फ़र चाहता था कि उसे दिल्ली के महरौली में दफ़्न किया जाए किंतु अंग्रेजों ने उसकी यह इच्छा पूरी नहीं होने दी। कुछ दिनों में बहादुरशाह ज़फ़र की कब्र के आसपास घास उग गयी और लोग भूल गए कि रंगून में कभी जफर नामक कोई बादशाह रहता था। यह अलग बात है कि भारत, पाकिस्तान एवं बांग्लादेश में आज भी कई सड़कों के नाम बहादुरशाह जफर के नाम पर हैं।
पूरे आलेख के लिए देखें यह वी-ब्लॉग-
17 जुलाई 1886 को 94 वर्ष की आयु में रंगून में ही बेगम जीनत महल की मृत्यु हुई। विलियम डेरिम्पल ने अपनी किताब ‘द लास्ट मुग़ल’ में लिखा है- ‘जिस समय बहादुरशाह ज़फ़र की बेगम ज़ीनत महल की मौत हुई, तब तक लोग यह भूल चुके थे कि बहादुरशाह ज़फ़र की कब्र कहाँ थी। इसलिए बेगम के शव को अनुमान से उसी परिसर में एक पेड़ के निकट दफना दिया गया। जीनत महल का एक पोता भी रंगून में मरा। उसे भी अपने दादा-दादी की कब्र के पास दफनाया गया।’
ईस्वी 1905 में मुग़ल बादशाह की कब्र की पहचान और उसे सम्मान देने के लिए रंगून के मुसलमान समुदाय ने आवाज़ उठाई। लगभग दो सालों तक चले आंदोलन के बाद ई.1907 में रंगून की ब्रिटिश सरकार ने बहादुरशाह तथा जीनत महल की कब्रों पर पत्थर लगवाने को स्वीकृति दी। बादशाह की कब्र पर एक पत्थर लगवाया गया जिस पर लिखा गया-
‘बहादुरशाह, दिल्ली के पूर्व बादशाह, रंगून में 7 नवंबर 1862 में मौत, इस जगह दफ्न किए गए थे।’
इसके बाद फिर से लोग इन कब्रों को भूल गए। ब्रिगेडियर जसबीर सिंह ने लिखा है- ‘ई.1991 में इस इलाके में एक नाले की खुदाई के दौरान ईंटों से बनी एक कब्र मिली जिसमें एक पूरा कंकाल लेटा हुआ था। लोगों का मानना है कि यही बाबर का आखिरी वंशज बहादुरशाह जफर था।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता