बाबर के बेटे भारत से निकाल दिए गए थे किंतु उनके जाने के बाद भी बरसों-बरस तक 1857 की क्रांति की समीक्षा होती रही। बहुत से अंग्रेज अधिकारियों का निष्कर्ष था कि अठ्ठारह सौ सत्तावन की क्रांति अंग्रेजों के विरुद्ध मुसलमानों का षड़यंत्र थी!
हालांकि अंग्रेजों द्वारा निकाला गया निष्कर्ष गलत था किंतु इसके पीछे यह धारणा काम कर रही थी कि व्रिदोही सैनिकों ने अजीमुल्ला को अपना प्रधान सेनापति चुना तथा बहादुर शाह जफर को भारत का बादशाह घोषित किया। बेगम हजरत महल की भूमिका ने भी अंग्रेजों को इस निष्कर्ष तक पहुंचने के लिए प्रेरित किया।
अंग्रेजों का आरोप था कि मुसलमानों का षड़यंत्र इसलिए किया गया था कि इसकी आड़ में लाल किला फिर से भारत पर शासन करना चाहता था! हालांकि यह ऐतिहासिक तथ्य है कि अठ्ठारह सौ सत्तावन की क्रांति में मुसलमानों की अपेक्षा हिन्दुओं ने अधिक बलिदान दिया था।
रानी लक्ष्मी बाई, तात्या टोपे, ठाकुर कुशालसिंह, जगदीशपुर के जागीरदार कुंवरसिंह आदि सैंकड़ों जागीरदारों एवं हजारों हिन्दू सैनिकों ने स्वयं को राष्ट्रदेवी के चरणों में अर्पित किया था किंतु कानपुर तथा दिल्ली में मुसलमानों ने अंग्रेजों की बर्बरता पूर्वक हत्याएं कीं, इस कारण अंग्रेजों ने इस क्रांति को मुसलमानों का षड़यंत्र माना।
अधिकांश ब्रिटिश लेखकों ने 1857 की क्रांति को सैनिक विद्रोह, बगावत एवं गदर की संज्ञा दी है किंतु ईस्वी 1857-58 में भारत में उपस्थित कुछ अँग्रेज ऐसे थे जिनका मत था कि 1857 की क्रांति जनसाधारण द्वारा की गई असन्तोष की अभिव्यक्ति का एक उदाहरण थी।
ईसाई मिशनरी इस क्रांति को ‘गॉड द्वारा भेजी गई विपत्ति’ कहते थे, क्योंकि कम्पनी प्रशासन ने भारतीय प्रजा को ईसाई नहीं बना कर ‘गॉड’ को नाराज कर दिया था। कुछ अँग्रेज लेखकों ने इसे हिन्दुओं एवं मुसलमानों का ब्रिटिश सत्ता को उखाड़ फेंकने का षड्यन्त्र बताया है।
सर जेम्स आउट्रम का मत है कि- ‘यह मुसलमानों के षड्यन्त्र का परिणाम था, जो हिन्दुओं की शक्ति के बल पर अपना स्वार्थ सिद्ध करना चाहते थे। स्मिथ ने भी इसका समर्थन किया है कि यह भारतीय मुसलमानों का षड्यन्त्र था जो पुनः मुगल बादशाह के नेतृत्व में मुस्लिम सत्ता स्थापित करना चाहते थे।’
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विद्रोह आरम्भ होने के कुछ समय बाद बहादुरशाह जफर की बेगम जीनत महल ने कुछ देशी शासकों को पत्र लिखे, जिनमें उसने मुगल बादशाह की अधीनता में, अँग्रेजों को देश से बाहर निकालने की बात लिखी। अतः जेम्स आउट्रम एवं स्मिथ के कथनों में कुछ सच्चाई प्रतीत होती है।
बहादुरशाह के मुकदमे के जज एडवोकेट जनरल मेजर जे. एफ. हैरियट ने मुकदमे में पेश हुए समस्त दस्तावेजों का अच्छी तरह से अध्ययन करने के बाद यह निष्कर्ष निकाला- ‘आरम्भ से ही षड्यंत्र सिपाहियों तक सीमित नहीं था और न उनसे वह शुरू ही हुआ था, अपितु इसकी शाखाएं राजमहलों और शहरों में फैली हुई थीं।’
यह सच है कि 1857 की क्रांति में हिन्दुओं की अपेक्षा मुसलमानों ने अधिक बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया था किंतु इस सच्चाई से भी इन्कार नहीं किया जा सकता कि इस क्रांति में देश के केवल 1/3 मुसलमानों ने भाग लिया था। बड़ी मुस्लिम शक्तियों में केवल अवध की बेगम जीनत महल तथा लाल किले का बादशाह बहादुरशाह ही इस क्रांति में सम्मिलित हुए थे। जबकि व्यापक फलक पर नाना साहब, झांसी की रानी, तात्या टोपे, कुंवरसिंह, अवध तथा बिहार के हिन्दू ताल्लुकेदारों एवं मारवाड़ के सामंतों ने क्रांति का वास्तिविक संचालन किया था। लॉर्ड केनिंग आरम्भ में इसे मुसलमानों द्वारा किया गया षड्यन्त्र मानते थे किंतु बाद में उन्होंने अपनी धारणा बदल ली। उन्होंने भारत सचिव को लिखे एक पत्र में स्वीकार किया- ‘मुझे कोई संदेह नहीं है कि यह विद्रोह ब्राह्मणों और दूसरे लोगों के द्वारा धार्मिक बहानों पर राजनीतिक उद्देश्यों के लिये भड़काया गया था।’
क्रांति में सम्मिलित विभिन्न तत्वों की गतिविधियों को देखते हुए कहा जा सकता है कि हिन्दू सेनानायक, विदेशी शासन से मुक्ति के लिये लड़े जिनमें से कुछ राजा एवं जागीरदार अपने राज्य फिर से अंग्रेजों से छीनना चाहते थे किंतु दिल्ली एवं लखनऊ के शासकों के साथ-साथ मुसलमानों के एक बड़े वर्ग ने बहादुरशाह के नेतृत्व में मुगल शासन की पुनर्स्थापना के लिये संघर्ष किया।
मराठा सैनिक नाना साहब और रानी लक्ष्मीबाई के राज्यों की पुनर्स्थापना के लिये लड़े। मेरठ आदि छावनियों के सैनिक अपने धर्म को बचाने की चिंता में लड़े। राजपूत ठिकानों के सैनिक अपने ठिकानेदारों के आदेश से लड़े। अधिकांश क्रांतिकारी सैनिकों ने अँग्रेजी शासन को समाप्त करने के लिये कुछ अँग्रेज अधिकारियों को मार डालना पर्याप्त समझा। उनके पास समस्त अँग्रेजों को भारत से बाहर निकालने की कोई योजना नहीं थी।
इतिहासकार मेलीसन के अनुसार- ‘1857 की क्रांति को ‘भारतीय जागीरदारों द्वारा अपने शासकों के विरुद्ध सामन्ती प्रतिक्रिया थी।’ इस मत को स्वीकार करने में यह आपत्ति है कि राजपूताने, अवध एवं बिहार के कुछ सामन्तों द्वारा संघर्ष में भाग लेने से पूरे विप्लव को सामन्तवादी प्रतिक्रिया नहीं कहा जा सकता।
वास्तविकता यह थी कि अँग्रेजों की देशी रियासतों के प्रति नीति के फलस्वरूप अनेक सामन्त अपनी जागीरों से हाथ धो बैठे थे। इन लोगों के मन में अँग्रेजों के प्रति घृणा एवं क्रोध था। ऐसे सामन्तों ने क्रांतिकारियों का साथ देकर क्रांति फैलाने में योगदान दिया।
सर जॉन सीले के अनुसार- ‘1857 की क्रांति पूर्णतः गैर-राष्ट्रीय तथा स्वार्थी सैनिकों का विद्रोह था जिसका न कोई देशी नेतृत्व था और न जनता का सहयोग।’
सर जॉन लॉरेन्स ने ‘इसे केवल विद्रोह बताया और इसका प्रमुख कारण चर्बी वाले कारतूस को माना।’
पी. ई. राबर्ट्स ‘इसे विशुद्ध सैनिक विद्रोह मानते थे।’
वी. ए. स्मिथ ने लिखा है- ‘यह एक शुद्ध रूप से सैनिक विद्रोह था जो संयुक्त रूप से भारतीय सैनिकों की अनुशासनहीनता और अँग्रेज सैनिक अधिकारियों की मूर्खता का परिणाम था।’
इस प्रकार लगभग समस्त विदेशी इतिहासकार इसे एक सैनिक विद्रोह मानते हैं।
डॉ. ताराचन्द ने लिखा है- ‘यह क्रांति अशक्त वर्गों द्वारा अपनी खोई हुई सत्ता को पुनः प्राप्त करने का अन्तिम प्रयास था। यह वर्ग ब्रिटिश नियन्त्रण से मुक्ति पाना चाहता था, क्योंकि अँग्रेजों की नीतियों से इस वर्ग के लोगों के हितों को हानि पहुँच रही थी।’
ब्रिटेन के प्रसिद्ध राजनेता तथा बाद में प्रधानमंत्री बने बैंजामिन डिजरायली ने 27 जुलाई 1857 को हाउस ऑफ कॉमंस में कहा था- ‘यह आंदोलन एक राष्ट्रीय विद्रोह था न कि सैनिक या सिपाही विद्रोह।’
इतिहासकार ग्रिफिन ने लिखा है- ‘भारत में सन् 1857 की क्रान्ति से अधिक महत्त्वपूर्ण घटना कभी नहीं घटी।’
रशब्रुक विलियम ने लिखा है- ‘एक रक्त की नदी ने कम से कम उत्तरी भारत में दो जातियों को अलग-अलग कर दिया तथा उस पर पुल बाँधना एक कठिन कार्य ही था।’
डॉ. आर. सी. मजूमदार ने लिखा है- ‘सन् 1857 का महान् विस्फोट भारतीय शाासन के स्वरूप और देश के भावी विकास में मौलिक परिवर्तन लाया।’
भारत एवं ब्रिटेन के इतिहासकार एवं राजनीतिज्ञ भले ही 1857 की क्रांति को कुछ भी संज्ञा दें किंतु हमारी दृष्टि में वास्तविकता यह है कि- ‘यह भारतीय इतिहास की सबसे गौरवमयी घटनाओं में से एक थी। इसके क्रांतिकारी युगों तक भारतीयों को स्वाभिमान से जीने एवं स्वतंत्र बने रहने की प्रेरणा देते रहेंगे।’
स्पष्ट है कि यह क्रांति भारत का स्वातंत्र्य समर थी न कि मुसलमानों का षड़यंत्र! इस क्रांति के परिणाम अभूतपूर्व, व्यापक और स्थायी थे जिनमें से एक यह भी था कि लाल किला सदैव के लिए भारत के इतिहास के नेपथ्य में चला गया। यह आश्चर्यजनक ही था कि भारत के अंग्रेज अधिकारी शीघ्र ही इस क्रांति के घावों को भूल गए और फिर से भारतीयों का रक्तपान करने में लग गए।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता