शहजादों और सलातीनों के बाद बहादुरशाह जफर के दरबार के समस्त रईसों और उमरावों पर मुकदमे चलाकर उन्हें भी फांसी पर चढ़ा दिया गया। सबसे अंत में बहादुरशाह जफर के स्वयं के मुकदमे की बारी आई। बहादुरशाह जफर ने कहा कि मैं रानी विक्टोरिया की प्रजा नहीं हूँ!
बादशाह पर मुकदमा चलाने से पहले लाहौर से अनुवादकों का एक दल दिल्ली बुलवाया गया जिसने बहादुरशाह जफर के महल एवं कार्यालय से मिले उन कागजों का अंग्रेजी भाषा में अनुवाद किया जो उर्दू एवं फारसी भाषाओं एवं अरबी लिपि में लिखे हुए थे। अंग्रेज अधिकारियों को इन कागजों से गुप्त पत्राचार मिलने की आशा थी।
बादशाह पर बगावत, कत्ल और गद्दारी के आरोप लगाए गए। बादशाह तथा उसके पक्षधरों का कहना था कि कम्पनी सरकार बादशाह पर मुकदमा नहीं चला सकती क्योंकि बादशाह रानी विक्टोरिया की प्रजा नहीं है। ईस्ट इण्डिया कम्पनी की का कहना था कि चूंकि बादशाह कम्पनी सरकार से पेंशन प्राप्त करता है, इसलिए कम्पनी सरकार को बादशाह पर मुकदमा चलाने का पूरा अधिकार है।
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इस पर बादशाह एवं उसके पक्ष के लोगों का तर्क था कि ईस्ट इण्डिया कम्पनी को यह स्मरण रखना चाहिए कि भारत में कम्पनी की कानूनी हैसियत क्या है? उसे ई.1599 में रानी विक्टोरिया ने भारत में व्यापार करने की अनुमति दी थी न कि भारत पर शासन करने की! ब्रिटिश पार्लियामेंट ने भी रानी के इसी आदेश पर अपनी स्वीकृति की मुहर लगाई थी। ब्रिटेन की संसद ने ईस्ट इण्डिया कम्पनी को भारत पर शासन करने की अनुमति नहीं दी थी। इसलिए कम्पनी सरकार भारत के बादशाह के विरुद्ध मुकदमा कैसे चला सकती है?
बहादुरशाह एवं उसके पक्ष के लोगों का यह भी तर्क था कि मुगल बादशाह शाह आलम (द्वितीय) ने ई.1765 के बक्सर युद्ध के बाद हुई इलाहाबाद की संधि के अंतर्गत कम्पनी को बंगाल, बिहार और उड़ीसा की दीवानी अर्थात् राजस्व वसूलने का अधिकार दिया था। इसके बदले में ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने शाहआलम को वार्षिक पेंशन दी थी। मुगल बादशाह ने पूरी मुगल सल्तनत पर कम्पनी को हुकूमत करने की अनुमति कभी नहीं दी!
ई.1803 में जब अंग्रेजों ने मराठों को भगाकर दिल्ली पर अधिकार किया था तब कम्पनी के गवर्नर जनरल लॉर्ड वेलेजली ने बादशाह को पत्र लिखकर सूचित किया था कि शहंशाह को उनकी गरिमा के अनुकूल ही लाल किले में फिर से पदस्थापित कर दिया गया है ताकि वे शांति के साथ रह सकें। ईस्वी 1832 तक कम्पनी सरकार द्वारा जारी सिक्कों तथा बादशाह को लिखे गए पत्रों पर और कम्पनी सरकार की मोहर में ‘फिदवी शाहआलम’ लिखा जाता था जिसका अर्थ होता है- ‘शाहआलम का वफादार गुलाम’।
ई.1832 में जब चार्ल्स मेटकाफ दिल्ली का रेजीडेण्ट बना तब उसने अचानक इन शब्दों को काम में लेना बंद कर दिया था किंतु इससे कम्पनी सरकार एवं बादशाह के बीच की वैधानिक स्थिति में कोई अंतर नहीं आया था। बादशाह अब भी स्वतंत्र रूप से अपने क्षेत्रों का स्वामी था और कम्पनी बहादुर उसकी वफादार गुलाम की हैसियत रखती थी। बादशाह के अधीनस्थ क्षेत्रों से कर वसूल कर कम्पनी सरकार द्वारा एक निश्चित राशि पेंशन के रूप में बादशाह को दी जाती थी। इस कारण बादशाह का यह सोचना कि वह कभी भी रानी विक्टोरिया की प्रजा नहीं था, सही ही था और इस कारण बादशाह बहादुरश शाह जफर पर गद्दारी या बगावत का आरोप नहीं लागया जा सकता था!
गद्दारी यदि की थी, तो कम्पनी सरकार ने की थी, बगावत यदि की थी तो कम्पनी सरकार ने की थी। अंग्रेजों ने अपने मालिक से बगावत की थी जो पिछले सौ साल से बादशाह की ताबेदारी करने की कसमें खा रहे थी। बादशाह ने तो गद्दार कम्पनी सरकार के विरुद्ध एक युद्ध लड़ा था जिसमें दुर्भाग्य से वह हार गया था। इस दृष्टि से कम्पनी सरकार के न्यायालय में बादशाह पर एक पराजित शत्रु के रूप में मुकदमा चलाया जा सकता था।
इस मुकदमे में यदि एक पक्ष भारतीय जनता की ओर से भी रखा जाता तो वह अवश्य ही यह बात कह सकती थी कि गद्दारी दोनों तरफ से बराबर हुई थी। यह देश तो भारत की जनता का था! जिस प्रकार बाबर और उसके बेटों ने तलवारों के जोर पर भारत की जनता पर दो सौ साल से नाजायज शासन किया था, उसी प्रकार गोरी चमड़ी वाले भी तलवार के जोर पर ही तो भारत की जनता पर नाजायज शासन कर रहे थे!
न तो बाबर और मुगल इस देश के वैधानिक स्वामी थे और न कम्पनी सरकार। देश की वास्तविक शासक तो वह जनता थी जिसका रक्त सैंकड़ों साल से बाहर से आए आक्रांताओं द्वारा चूसा जा रहा था। चाहे वे तुर्क रहे हों, या मुगल या फिर गौरांग स्वामी!
एक तत्कालीन अंग्रेज पत्रकार हॉवर्ड रसेल ने बादशाह पर मुकदमा आरम्भ होने से पहले लाल किले की गंदी कोठरियों में पहुंचकर बादशाह से भेंट की। रसेल को इंग्लैण्ड में युद्ध पत्रकारिता का पिता कहा जाता है। उसने लिखा है- ‘यदि बादशाह पर लंदन के किसी सिविल कोर्ट में अभियोग चलाया जाता तो वह कोर्ट न केवल बादशाह को समस्त आरोपों से मुक्त कर देता अपितु भारत के अंग्रेज अधिकारियों द्वारा बहादुरशाह जफर तथा भारतीयों पर किए गए अमानुषिक अत्याचारों के लिए कठोर दण्ड देता।’
चूंकि अंग्रेजों ने बादशाह को युद्धबंदी बनाया था इसलिए बहादुरशाह जफर पर सिविल कोर्ट के स्थान पर मिलिट्री कोर्ट में अभियोग चलाया गया। 27 जनवरी 1858 को यह अभियोग आरम्भ हुआ जबकि अब तक भारत के अन्य हिस्सों में क्रांति थमी नहीं थी। नाना साहब के सेनापति तात्या टोपे और जगदीशपुर के जागीरदार कुंवरसिंह आदि क्रांतिनायक इस समय भी पूरी ऊर्जा से लड़ रहे थे। अभी तो भारतीय क्रांतिकारी सिपाहियों द्वारा विलियम हॉडसन के अत्याचारों का बदला लिया जाना शेष था!
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता