तिलंगों ने दिल्ली को अंग्रेजों से मुक्त करवा लिया, बहादुरशाह जफर को दिल्ली का बादशाह घोषित कर दिया किंतु इसके आगे क्या और कैसे करना था, यह न तिलंगों को पता था और न लाल किले को। गुण्डों की लूटपाट से दुकानें बंद हो चुकी थीं, काम-धन्धे बंद हो चुके थे, सड़कों पर भी कोई तभी निकलता था जब बहुत जरूरी कार्य हो। इसलिए कुछ ही दिनों में दिल्ली में भुखमरी फैल गई।
कहा जा सकता है कि दल्ली में भुखमरी के कारण अठ्ठारह सौ सत्तावन की क्रांति विफल हो गई। एक तरफ तो दिल्ली की आम जनता देश भर से आए क्रांतिकारी सैनिकों द्वारा शहर में की जा रही लूटपाट से तंग आ चुकी थी और दूसरी ओर स्वयं बादशाह बहादुरशाह जफर भी क्रांतिकारी सैनिकों से अप्रसन्न था। बादशाह को सर्वाधिक शिकायत लाल किले में घूमने वाले तिलंगों से थी। उनमें बात करने की तमीज नहीं थी और वे किसी भी प्रकार का अनुशासन नहीं रखते थे। हर बात पर बहस करते थे और बादशाह के सामने भी जोर-जोर से बोलते थे।
11 मई 1857 को जब पहली बार वे बादशाह के समक्ष प्रस्तुत हुए थे, उस दिन भी तिलंगों ने बादशाह के समक्ष कोई अच्छा प्रदर्शन नहीं किया था, इस कारण बादशाह उसी दिन से उन लोगों से नाराज था। 12 मई को जुलूस के दौरान भी तिलंगों का आचरण अशोभनीय था।
बहादुरशाह जफर का मानना था कि दिल्ली में घुस आए क्रांतिकारी सैनिक भरोसेमंद नहीं हैं। उन्हें दरबारी तौर-तरीकों की कोई जानकारी नहीं है। वे किसी की इज्जत करना नहीं जानते हैं। उन दिनों के एक अंग्रेजी पत्रकार ने लिखा है कि कुछ तिलंगे लाल किले में बादशाह के सामने जूते पहनकर खड़े रहते थे, इस कारण बादशाह उनसे बहुत नाराज रहता था।
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जब 16 मई 1857 को तिलंगों ने दिल्ली के लाल किले में लाकर रखे गए 52 अंग्रेजों की हत्या करने के लिए बादशाह पर दबाव बनाना शुरु किया तो बादशाह हैरान रह गया! बादशाह ने इन अंग्रेजों को मुसीबत की घड़ी में उनके प्राण बचाकर लाल किले में रखा था और उन्हें सुरक्षा का भरोसा दिया था किंतु अब तिलंगे चाहते थे कि हाथ में आए हुए अंग्रेजों को जीवित नहीं छोड़ा जाना चाहिए।
बादशाह अपनी शरण में रह रहे अंग्रेजों की हत्या नहीं करना चाहता था किंतु तिलंगे अपनी जिद छोड़ने को तैयार नहीं हुए। अंत में उन्होंने बादशाह की अनुमति की परवाह किए बिना ही उन अंग्रेजों को लाल किले से बाहर निकाल लिया और लाल किले के सामने ही एक पीपल के पेड़ के नीचे मार दिया। इन अंग्रेजों की हत्या करके तिलंगे यह सुनिश्चित करना चाहते थे कि इन हत्याओं की जिम्मेदारी बादशाह पर आ जाए ताकि भविष्य में कभी भी बादशाह अंग्रेजों से कोई समझौता नहीं कर सके। समझौते के सारे मार्ग बंद हो जाएं।
जब दिल्ली के जनसाधारण को लाल किले में रह रहे अंग्रेजों को मार दिए जाने की सूचना मिली तो अधिकांश लोगों को प्रसन्नता हुई क्योंकि अंग्रेजों ने भारतीयों के साथ बहुत बुरा व्यवहार किया था किंतु बादशाह की खिन्नता का पार नहीं था। वह कवि हृदय था और रक्तपात को कतई पसंद नहीं करता था। लाल किले में रह रहे चापलूस किस्म के कुछ लोगों ने इस घटनाक्रम की जानकारी करनाल में रह रहे अंग्रेजों तक पहुंचा दी। धीरे-धीरे लाल किले के बहुत से लोग अंग्रेजों के खबरी बन गए और उन्हें दिल्ली में होने वाली घटनाओं की गुप्त सूचनाएं पहुंचाने लगे। अंग्रेजों के लिए गुप्तचरी करने वालों में से कुछ लोग तो लाल किले में बैठे बादशाह की नौकरी करते थे और कुछ लोग बादशाह के रिश्तेदार भी थे।
बादशाह ने अपने सबसे बड़े जीवित शहजादे मिर्जा मुगल को क्रांतिकारी सैनिकों का सेनापति नियुक्त किया किंतु मिर्जा मुगल को सेना का नेतृत्व करने का कोई अनुभव नहीं था इसलिए कम्पनी सरकार द्वारा सैनिक प्रशिक्षण प्राप्त किए हुए तिलंगों ने शहजादे की कोई इज्जत नहीं की और उसके आदेशों का मजाक उड़या।
तिलंगों सहित देश के अन्य भागों से आए सिपाहियों ने भी शहजादे के आदेश मानने की बजाय अपने ही अधिकारियों के आदेश मानना बेहतर समझा। जो बादशाह, शहजादे या सेनापति इन सेनाओं को वेतन नहीं दे सकते थे, उस बादशाह, शहजादे या सेनापति के आदेश कोई भी सेना भला क्यों मानती!
शहजादे मिर्जा मुगल ने दिल्ली के नागरिक प्रशासन के लिए भी कुछ व्यवस्थाएं करनी चाहीं किंतु वहाँ भी वह अधिक कुछ नहीं कर सका। कम्पनी सरकार के भारतीय कर्मचारी अपनी जगहों पर तैनात थे किंतु उन्हें वेतन कौन देगा, इस प्रश्न का जवाब किसी के पास नहीं था। इसलिए इन सरकारी कर्मचारियों से काम करवाना शहजादे के लिए संभव नहीं था।
मुसीबत कभी अकेली नहीं आती। यह कहावत 1857 की दिल्ली की जनता के साथ भी चरितार्थ हुई थी। विलियम डेलरिम्पल ने लिखा है कि जब दिल्ली का कोई स्वामी नहीं रहा तो दिल्ली की सीमाओं पर आस पास के क्षेत्रों से गूजर समुदाय के कुछ समूह आकर बैठ गए।
उन्होंने दिल्ली नगर में आने वाले रास्तों पर अपने नाके स्थापित कर दिए और वे दिल्ली में अनाज लेकर आने वाले किसानों से बलपूर्वक चुंगी वसूलने लगे। उनके भय से बहुत से किसानों ने दिल्ली नगर में अनाज लाना बंद कर दिया। कुछ ही दिनों में दिल्ली में अनाज की कमी हो गई और चारों ओर भुखमरी फैलने लगी।
इन सबके बीच में दिल्ली की आम जनता घुन की तरह पिसने लगी। उसके कष्टों का कोई पार नहीं था। बहुत से घरों में एक समय चूल्हा जल सकने योग्य अनाज भी नहीं बचा था। दिल्ली की दुकानें और व्यापार बंद थे तथा इन परिस्थितियों के बीच किसी भी आदमी की कोई आमदनी या रोजगार नहीं रह गया था।
दिल्ली की सड़कों पर घूमते सैनिकों के कारण किसी भी घर की बहिन-बेटी अपने घर से बाहर निकलना तो दूर, घर से बाहर निकलने की बात सोच तक नहीं सकती थी। यहाँ तक कि पुरुष और बच्चे भी घरों से निकलने में डरते थे।
इस बार अंग्रेज सैन्य अधिकारी आधे कुचले हुए नाग की तरह क्रोध से फनफना रहे थे और उनके मन में दिल्ली वासियों के लिए किसी तरह की कोई कोमल भावना नहीं थी।
भारत की आजादी के बाद लिखी गई आधुनिक भारत के इतिहास की पुस्तकों में 1857 की क्रांति का वर्णन बड़े गौरव के साथ किया जाता है किंतु यह गौरव तब क्षीण होता हुआ जान पड़ता है जब हम 1857 की क्रांति के समय दिल्ली की जनता की वास्तविक दुर्दशा के बारे में जानते हैं।
राष्ट्रीय गौरव की भावना तब और भी सहम जाती है जब भारत के विभिन्न प्रदेशों से आए हुए क्रांतिकारी सैनिकों की दुर्दशा पर विचार करते हैं। जिस प्रकार जनता के पास खाने के लिए कुछ नहीं बचा था, उसी प्रकार क्रांतिकारी सैनिकों के पास भी खाने को कुछ नहीं बचा था। उनमें से बहुत से बीमार एवं घायल हो गए थे और उनका उपचार करने वाला कोई नहीं था।
लाल किले में बैठे बादशाह की हालत तो इन सबसे बुरी थी। वह गरुड़ों की सेना से लड़ते हुए नागलोक के उस राजा की तरह था जिसके दांत और विष पूरे सौ साल पहले ही निकाल लिए गए थे। मई का महीना चल रहा था और दिल्ली में प्रचण्ड गर्मी पड़ रही थी। ऐसी विषम परिस्थितियों ने हैजे की महामारी ने किसी दुष्ट चील की तरह उत्तर भारत पर भीषण झपट्टा मारा जिससे जनता त्राहि-त्राहि कर उठी!
दिल्ली में भुखमरी ने जो ताण्डव मचाया था, उससे कहीं अधिक विनाश हैजे के रूप में आई महामारी ने किया।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता
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