जब तिलंगों ने लाल किले को अंग्रेजों की दासता से मुक्त करवाकर बहादुरशाह जफर को स्वतंत्र बादशाह बना दिया तो दिल्ली की जनता इस घटना की अलग-अलग तरह से व्याख्या करने लगी। हिन्दुओं ने कहा कि यह भारत की आजादी है किंतु मुसलमानों ने कहा कि यह काफिरों पर कहर है।
दिल्ली को पाण्डवों के काल से ही देश भर में सबसे अधिक गौरवशाली नगर होने का सम्मान प्राप्त हो गया था जो पांच हजार साल के काल-खण्ड में कुछ समय के लिए धूमिल पड़कर पुनः-पुनः स्थापित होता रहा था। चौहानों के काल में दिल्ली फिर से भारत की राजधानी का रूप लेने लगी थी। तुर्कों के काल में सवा तीन सौ साल तक दिल्ली देश की राजधानी रही थी। सूरी शासकों ने भी दिल्ली को अपनी राजधानी रखा।
औरंगजेब की तख्तनशीनी भी ई.1668 में दिल्ली के लाल किले में हुई थी, तब से दिल्ली उन मुगलों की राजधानी थी जो दुनिया में सबसे अमीर और सबसे ज्यादा शानोशौकत वाले माने जाते थे। यद्यपि मुगलों को यह अमीरी और शानो-शौकत भारत में आने के बाद प्राप्त हुई थी तथा ई.1739 में नादिरशाह के साथ ईरान चली गई थी तथापि संसार का सबसे गौरवशाली नगर होने की दिल्ली की खुमारी अभी उतरी नहीं थी।
मुहम्मदशाह रंगीला से लेकर बहादुरशाह जफर तक के काल में मुगल बादशाहों की खुमारी भले ही शनैःशनैः उतरती चली गई हो किंतु दिल्ली के नागरिकों की खुमारी उतरने का नाम नहीं लेती थी तो इसके कुछ कारण थे!
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दिल्ली के महलों में दम तोड़ रही मुगलिया संस्कृति, दिल्ली की गलियों में निर्धन भिखारिन की तरह भटकती हुई साफ देखी जा सकती थी। ‘आजाद’ नामक एक लेखक ने ‘आब ए हयात’ नामक पुस्तक में लिखा है- ‘उर्दू दिल्ली में ही पैदा हुई थी, वह शाइरों और इतिहासकारों की जुबान थी जो शाहजहानाबाद के बाजारों में अनाथ होकर घूम रही थी।’
दिल्ली वालों को अब भी अपनी जुबान पर चढ़ी हुई उर्दू भाषा और दिमाग में घुसी हुई मेहमानवाजी का बड़ा गुरूर था। यही कारण था कि जब देश भर के क्रांतिकारी सैनिकों ने दिल्ली का रुख किया तो दिल्ली का आत्मबोध फिर से द्विगुणित हो गया।
दिल्ली के लोगों ने क्रांतिकारी सैनिकों का बाहें पसार कर स्वागत किया। जब मेरठ से आए तिलंगों ने दिल्ली के अंग्रेज अधिकारियों को पीटकर भगा दिया, उनके शस्त्रागार तथा कोषागार पर अधिकार कर लिया और अंग्रेजी थानों को उजाड़ दिया तब दिल्ली वालों ने क्रांतिकारी सैनिकों का बड़ा सम्मान किया। दिल्ली वासियों की तरफ से तिलंगों को स्थान-स्थान पर मालाएं पहनाई गईं तथा मिठाइयां खिलाई गईं। दिल्ली वालों का मानना था कि देश भर से आ रहे बागी सिपाही, काफिर-अंग्रेजों को दिल्ली से निकालकर फिर से बादशाह बहादुरशाह जफर की सल्तनत को जमाएंगे। इसलिए दिल्ली की मस्जिदों में क्रांतिकारी सैनिकों की सफलता के लिए दुआएं की जाने लगीं।
दिल्ली में उस समय उर्दू भाषा के दो-चार अखबार निकला करते थे। उनके सम्पादकों ने अपने लेखों में लिखा है- ‘ये बागी सैनिक खुदा की तरफ से काफिरों पर कहर ढाने के लिए भेजे गए हैं। यह सजा इन अंग्रेज काफिरों को इसलिए दी जा रही है क्योंकि उन्होंने हिन्दुस्तान के लोगों का मजहब खत्म करके उन्हें ईसाई बनाने के घमण्डी मंसूबे बांधे थे।’
17 मई 1857 को दिल्ली से प्रकाशित समाचार पत्र देहली उर्दू अखबार में सम्पादक मुहम्मद बाकर ने लिखा है- ‘कुछ लोग कसम खाकर कहते हैं कि तुर्की घुड़सवारों के आने के वक्त उन्होंने देखा कि कुछ ऊंटनियां उनके आगे चल रही हैं जिन पर कुछ लोग हरे लिबास पहने हुए बैठे हैं। वे ऊंटनियां एकदम दृष्टि से ओझल हो गईं और केवल घुड़सवार रह गए जिन्होंने जो भी अंग्रेज मिला, उनको मार दिया….।
सच तो ये है कि अंग्रेजों पर खुदा का कहर टूटा है। उनके घमंड को खुदाई इंतकाम ने चूर-चूर कर दिया है। कुरआन शरीफ में लिखा है कि खुदा घमण्ड करने वालों को पसंद नहीं करता है। वह इन ईसाइयों पर ऐसी प्रलय लाया है कि थोड़े ही समय में इस खून-खराबे ने उनको बिल्कुल ही तबाह और बर्बाद कर दिया। क्योंकि वह सब-कुछ कर सकता है और उसने ही अंग्रेजों के तमाम इरादों और मक्कारियों को नाकाम कर दिया है।
अब यह बहुत जरूरी है कि सब दिल्ली वाले खुदा पर विश्वास रखें और अपनी सारी ताकत जिल्ले सुब्हानी, साया ए खुदावंद शहंशाह सलामत बहादुरशाह जफर की वफादारी और खैरख्वाही में लगाएं। और जो ऐसा करेगा उसको खुदावंद तआला की मदद और समर्थन हासिल होगा।’
स्कॉटिश लेखक विलियम डैलरिम्पल ने अपनी पुस्तक ‘द लास्ट मुगल’ में लिखा है- ‘दिल्ली के एक बुजुर्ग ने उन्हीं दिनों स्वप्न में देखा कि पैगम्बर मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने हजरत ईसा से कहा कि आपके मानने वाले मेरे दुश्मन हो गए हैं और मेरे मजहब को बिल्कुल मिटा देना चाहते हैं। इस पर हजरत ईसा ने जवाब दिया कि अंग्रेज मेरे अनुयायी नहीं हैं, वे मेरे बताए हुए रास्ते पर नहीं चलते बल्कि शैतान के मानने वालों में शामिल हो गए हैं।’
उपरोक्त उदाहरणों से स्पष्ट है कि दिल्ली के मुसलमान तिलंगों द्वारा किए गए अंग्रेजों के कत्लेआम को खुदा का काफिरों पर कहर मान रहे थे।
हालांकि सिपाहियों में अधिकतर हिन्दू थे, फिर भी दिल्ली में जिहाद का झण्डा जामा मस्जिद से बुलंद किया गया। बहुत से बागी सिपाही स्वयं को मुजाहिद, गाजी या जिहादी कहते थे। घेरे की समाप्ति तक क्रांतिकारी सैनिकों में लगभग एक चौथाई सिपाही या तो मर चुके थे या भूख-प्यास से तंग आकर तथा बिना वेतन के निराश होकर मोर्चा छोड़कर चले गए थे। फिर अचानक ही दिल्ली में दूर-दूर से आए ऐसे लोगों की संख्या बढ़ने लगी जो सिपाही नहीं थे किंतु वे बहादुरशाह जफर को फिर से हिन्दुस्तान का बादशाह बनाने के लिए स्वयं को युद्ध में झौंकने के लिए आए थे। वे भी स्वयं को मुजाहिद कहते थे।
मेरठ के तत्कालीन कलक्टर मार्क थॉर्नहिल ने दिल्ली पर विद्रोहियों द्वारा अधिकार कर लिए जाने के बाद अपनी डायरी में लिखा है-
‘उन लोगों की बातचीत किले की रस्मो-रिवाज के बारे में थी कि किस तरह उन रिवाजों को फिर से आरम्भ किया जाए। वे लोग अनुमान लगाते थे कि कौन वजीरे आजम बनेगा और राजपूतों के सरदारों में से कौन किसी दरवाजे का प्रहरी होगा! वे बावन राजा कौन से होंगे तो बादशाह की तख्तनशीनी के अवसर पर जमा होंगे। जैसे जैसे मैं उनकी बातें सुनता गया, मुझे यह स्पष्ट होता गया कि मुगलों के प्राचीन दरबार की शानौ-शौकत का आम लोगों के दिलो-दिमाग पर कितना असर है और ये मूल्य दिल्ली के लोगों के लिए कितना महत्व रखते हैं! हमारे जाने बिना ही किस तरह उन्होंने उन मूल्यों को सुरक्षित रखा है। मुगल सल्तनत में कुछ अजीब बात है जो सौ साल की खामोशी के बाद फिर से एक वैचारिक मूर्त रूप ले रही है!’
दिल्ली वालों के लिए देश भर से आए क्रांतिकारियों का महत्व केवल राजनीतिक रूप से ही नहीं था अपितु धार्मिक रूप से भी था। स्वयं क्रांतिकारी सैनिकों ने 12 मई 1857 को बादशाह से कहा था कि हम सब अपना मजहब बचाने के लिए जमा हुए हैं।
इन सैनिकों ने चांदनी चौक पर खड़े होकर जब दिल्ली की आम जनता को सम्बोधित किया तो उन्होंने जनता से पूछा- ‘भाइयो! क्या आप महजब वालों के साथ हैं?’
दिल्ली की जनता ने एक स्वर में उत्तर दिया- ‘हाँ हम मजहब वालों के साथ हैं।’
यह कहने की आवश्यकता नहीं कि प्रश्न पूछने वालों ने और उत्तर देने वालों ने मजहब शब्द का अर्थ अपनी-अपनी सुविधा और आकांक्षा के अनुसार लगाया था। इन सब कारणों से दिल्ली की मुस्लिम जनता की यह पक्की धारणा थी कि तिलंगों को खुदा ने ही दिल्ली में भेजा है ताकि उनके बादशाह, उनके मजहब और उनके मदरसों को काफिरों के हाथों नष्ट होने से बचाया जा सके! उनकी पक्की धारणा थी कि यह खुदा का काफिरों पर कहर है, और कुछ नहीं!
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता