Friday, November 22, 2024
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तात्या टोपे का संघर्ष

पेशवा नाना साहब द्वितीय के सैनिक सलाहकार तात्या टोपे का संघर्ष क्रांति आरभ होने के पहले दिन से ही आरम्भ हो गया और तब तक चलता रहा जब तक कि अंग्रेजों ने उसे फांसी पर नहीं चढ़ा दिया! कुछ इतिहासकारों का मानना है कि उसे फांसी नहीं दी गई थी, अपितु किसी गुमनाम जेल में बंद करके भयानक पीड़ाएं दी गई थीं।

कानपुर से परास्त होकर निकलने के बाद छः माह से तात्या टोपे अंग्रेजी सेनाओं को छका रहा था। अंग्रेज सेनापति माइकिल लगातार तात्या का पीछा कर रहा था। 10 अक्टूबर 1858 को मगावली में पुनः दोनों पक्षों में युद्ध हुआ तथा तात्या पराजित होकर बेतवा पार करके ललितपुर चला गया जहाँ बाला राव पहले से ही अपनी सेना के साथ मौजूद था।

अंग्रेजी सेना भी बेतवा के उस पार आ गई। इस पर तात्या टोपे सागर जिले में खुरई नामक स्थान पर पंहुचा। यहाँ पुनः अंग्रेजों और तात्या के बीच कड़ी टक्कर हुई। तात्या पुनः हार गया। 28 अक्टूबर 1858 को लगभग 2500 सैनिकों के साथ तात्या ने फतेहपुर के निकट सरैया घाट पर नर्मदा पार कर ली। वह इंदौर होते हुए महाराष्ट्र जाना चाहता था।

पूरे आलेख के लिए देखें यह वी-ब्लॉग-

अंग्रेजों को काफी पहले ही अनुमान हो गया था कि नाना साहब या तात्या टोपे की कोई महत्वपूर्ण गतिविधि महाराष्ट्र की तरफ होने वाली है। इसका कारण यह था कि महाराष्ट्र प्रांत के नागपुर जिले के इटावा गाँव के कोटवार ने पुलिस थाने में सूचना दी थी कि एक भगवा झंडा, सुपारी और पान का पत्ता गाँव-गाँव घुमाया जा रहा है।

अंग्रेज समझ गए कि नाना साहब या तात्या टोपे इस क्षेत्र में आने वाले हैं तथा उनके गुप्त संगठन जन साधारण को नाना साहब या तात्या टोपे के पक्ष में संगठित कर रहे हैं। नागपुर के डिप्टी कमिश्नर ने पड़ौसी जिलों के डिप्टी कमिश्नरों को भी सूचित कर दिया। इस सूचना को इतना महत्त्वपूर्ण माना गया कि उसकी जानकारी कम्पनी सरकार के गवर्नर जनरल को भी भिजवाई गयी। अंग्रेजों ने तात्या के आने से पहले ही इस क्षेत्र की मोर्चाबंदी कर ली।

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नागपुर क्षेत्र में तात्या के पहुँचने से बम्बई प्रांत का गर्वनर एलफिन्सटन घबरा गया। मद्रास प्रांत में भी घबराहट फैली। तात्या अपनी सेना के साथ पंचमढ़ी की दुर्गम पहाड़ियों को पार करते हुए छिंदवाड़ा के 26 मील उत्तर-पश्चिम में जमई गाँव पहुँच गया। वहाँ के थाने के 17 सिपाही मारे गये। इसके बाद तात्या बैतूल जिले में बोरदेह होते हुए सात नवम्बर 1858 को मुलताई पहुँचा। मुलताई में तात्या ने एक दिन विश्राम किया। उसने ताप्ती नदी में स्नान करके ब्राह्मणों को एक-एक अशर्फी दान की। बाद में अंग्रेजों ने ये अशर्फियाँ जब्त कर लीं!

मुलताई के देशमुख और देशपाण्डे परिवारों के प्रमुख और अनेक ग्रामीण तात्या टोपे की सेना में सम्मिलित हो गये। अंग्रेजों ने बैतूल में मजबूत घेराबंदी कर ली। अंततः तात्या ने मुलताई को लूट लिया और सरकारी इमारतों में आग लगा दी। इसके बाद तात्या आठनेर और भैंसदेही होते हुए पूर्व निमाड यानि खण्डवा जिले में पहुँचा। ताप्ती घाटी में सतपुड़ा की चोटियाँ पार करते हुए तात्या खण्डवा पहुँचा। तात्या ने देखा कि वह जहाँ भी जाता है, अंग्रेजी सेना हर दिशा में पहले से ही मोर्चा बाँधे बैठी होती है।

खानदेश में सर ह्यूरोज और गुजरात में जनरल रॉबर्ट्स उसका रास्ता रोके बैठे थे। बरार की ओर से भी एक अंग्रेजी फौज तात्या की तरफ बढ़ रही थी।

तात्या के एक सहयोगी ने लिखा है- ‘तात्या उस समय अत्यंत कठिन स्थिति का सामना कर रहा था। उसके पास गोला-बारूद, रसद तथा रुपया समाप्त हो चुका था। इसलिए तात्या ने अपने साथियों से कहा कि वे जहाँ चाहें जा सकते हैं, परंतु निष्ठावान सहयोगी और अनुयायी ऐसे कठिन समय में तात्या का साथ छोड़ने को तैयार नहीं थे।’

तात्या ने निमाड़, खण्डवा तथा पिपलोद आदि के पुलिस थानों और सरकारी इमारतों में आग लगा दी और खरगोन होता हुआ पुनः मध्य भारत में प्रविष्ट हुआ। खरगोन में खजिया नायक अपने 4000 सैनिकों के साथ तात्या टोपे से आ मिला। इनमें भील सरदार और मालसिन योद्धा भी शामिल थे।

राजपुर में सदरलैण्ड और तात्या के बीच घमासान हुआ तथा तात्या सदरलैण्ड को चकमा देकर नर्मदा पार करने में सफल हो गया। तात्या भागता रहा और लड़ता रहा। भारत की स्वाधीनता के लिए हुआ यह एक अद्भुत संघर्ष था जिसकी मिसाल कहीं और नहीं मिलती!

तात्या छोटा उदयपुर होते हुए बाँसवाड़ा पहुंचा। तात्या ने बांसवाड़ा पर अधिकार करके अहमदाबाद से आ रहे ऊँटों को लूट लिया जिन पर कपड़ा लदा हुआ था। बांसवाड़ा से चलकर तात्या दौसा होता हुआ सीकर पहुंचा। इसी बीच तात्या के 600 सैनिकों ने बीकानेर नरेश की सेनाओं के समक्ष समर्पण कर दिया।

इसके बाद तात्या टोपे जीरापुर, प्रतापगढ़ तथा नाहरगढ़ होते हुए इन्दरगढ़ पहुँचा। इन्दरगढ़ में उसे नेपियर, शॉवर्स, सॉमरसेट, स्मिथ, माइकल और हॉर्नर आदि सेनापतियों ने अपनी-अपनी सेनाएं लेकर प्रत्येक दिशा से घेर लिया। अंग्रेजों के इस कठिन और असंभव घेरे को तोड़कर तात्या जयपुर की ओर भागा। देवास और शिकार में तगड़ी मुठभेड़ें हुईं जिनमें परास्त होकर तात्या परोन के जंगल में चला गया।

तात्या टोपे का संघर्ष अपने चरम पर था किंतु परोन के जंगल में तात्या टोपे के साथ विश्वासघात हुआ। नरवर का राजा मानसिंह अंग्रेजों से मिल गया। उसने अंग्रेजों को तात्या की सही स्थिति के बारे में बता दिया। 8 अप्रैल 1859 की रात में जब तात्या सो रहा था, अंग्रेजी सेना ने उसे पकड़ लिया। भारत माता के इस पुत्र को कोई जागते हुए नहीं पकड़ सका। इसी के साथ तात्या टोपे का संघर्ष अपने अंत को पहुंच गया।

15 अप्रैल 1859 को शिवपुरी में तात्या का कोर्ट मार्शल किया गया। कोर्ट मार्शल के समस्त सदस्य अंग्रेज थे। उन्होंने तात्या को मौत की सजा दी। तात्या को तीन दिन तक शिवपुरी के किले में बंद रखा गया। 18 अप्रैल को शाम पाँच बजे तात्या को अंग्रेज कंपनी की सुरक्षा में बाहर लाया गया और हजारों लोगों की उपस्थिति में खुले मैदान में फाँसी पर लटका दिया गया।

तात्या फाँसी के चबूतरे पर दृढ़ कदमों से ऊपर चढ़ा और उसने फाँसी का फंदा स्वयं ही अपने गले में डाल लिया!

कर्नल मालेसन ने ईस्वी 1857 के विद्रोह का इतिहास लिखा है- ‘तात्या टोपे चम्बल, नर्मदा और पार्वती की घाटियों में रहने वाले लोगों का नायक बन गया।’

पर्सी क्रॉस नामक अंग्रेज ने लिखा है- ‘भारतीय विद्रोह में तात्या सबसे प्रखर मस्तिष्क का नेता था। उसकी तरह कुछ और लोग होते तो अंग्रेजों के हाथ से भारत छीना जा सकता था।’

कुछ इतिहासकारों के अनुसार अंग्रेजों ने किसी अन्य व्यक्ति को पकड़ कर फांसी पर चढ़ा दिया। तात्या का क्या हुआ, कोई नहीं जानता! तात्या टोपे का संघर्ष भारतीय इतिहास का गौरवमयी पृष्ठ है, उसके बारे में भारत की युवा पीढ़ी को बताया जाना चाहिए। किंतु दुर्भाग्य से जब देश आजाद हुआ तो लोगों ने तात्या टोपे के संघर्ष को भुला दिया।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

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