अंग्रेज किसी भी कीमत पर भारत छोड़ने को तैयार नहीं थी। इसलिए उन्होंने क्रांतिकारियों को मारने के लिए बड़ी क्रूर नीति अपनाई। हजारों की संख्या में मनुष्यों को गोली मारना संभव नहीं था। इसलिए अंग्रेजों का खूनी खेल पेड़ों के माध्यम से चला। उन्होंने पेड़ों को फांसी देने की मशीन बना दिया!
अंग्रेजों का खूनी खेल तब तक चलता रहा जब तक कि प्रत्येक क्रांतिकारी या तो मार नहीं दिया गया या फिर पकड़ नहीं लिया गया। अंग्रेजों के दबाव के कारण बेगम हजरत महल अपने 1500 सैनिक, 500 क्रांतिकारी सिपाही और 16 हजार समर्थकों के साथ लखनऊ छोड़कर बहराइच चली गई जहाँ वह घाघरा के तट पर स्थित बौंडी किले में जुलाई 1858 तक रही। कई माह तक अंग्रेज वहाँ जाने की हिम्मत नहीं जुटा सके।
9 माह और 8 दिन तक अवध अंग्रेजी राज से मुक्त रहा। जब लखनऊ पर अंग्रेजों का अधिकार हुआ तो हजरत महल बौंडी का किला छोड़कर नेपाल चली गयी। नेपाल के प्रधानमंत्री जंग बहादुर ने बेगम को शरण दी। वहीं पर ई.1879 में उसका निधन हुआ।
जब लखनऊ और कानपुर सहित अवध के विभिन्न क्षेत्रों में अंग्रेजों ने क्रांतिकारियों को परास्त कर दिया तब कम्पनी सरकार की सेना ने जंगलों में भाग गए एवं नगरों में छिप गए क्रांतिकारी सैनिकों को दण्डित करने का काम आरम्भ किया। अंग्रेजों का खूनी खेल जंगलों में भी आरम्भ हो गया।
वे क्रांतिकारी सैनिकों को ढूंढ-ढूंढ कर गोलियों से उड़ाने लगे तथा उन्हें सार्वजनिक रूप से फांसी देने लगे ताकि भारतीय जन-साधारण अच्छी तरह समझ ले कि सरकार बहादुर से बगावत करने का अंजाम कितना भयावह होता है!
पूरे आलेख के लिए देखें यह वी-ब्लॉग-
अंग्रेज अधिकारी क्रांतिकारी सैनिकों को दण्डित करने के दौरान इतने अमानवीय हो गए थे कि रास्ता चलते लोगों तक को पकड़ कर फांसी दी गयी। अवध में लगभग समस्त क्षेत्रों में आज भी कुछ पेड़ों को ‘फंसियहवा पेड़’ कहा जाता है। ये वे पेड़ हैं जिन पर अंग्रेजों ने आजादी के नायकों से लेकर जनसामान्य को फांसियों पर लटकाया।
हजारों लोगों को सरेआम तोप के मुंह पर बांध कर उड़ाया गया। उन लोगों की रक्त-मज्जा एवं अस्थियां चूर-चूर होकर देश की मिट्टी में समा गईं। अकेले लखनऊ नगर में शहीद हुए लोगों की संख्या 20,270 बताई जाती है। इलाहाबाद में नीम के एक पेड़ पर 800 लोगों को फांसी दी गयी। बस्ती जिले के छावनी कस्बे में पीपल के एक पेड़ पर 400 से ज्यादा ग्रामीणों को फांसी पर लटका दिया गया, जबकि कानपुर में दो हजार लोगों को एक जगह फांसी दी गयी। कानपुर में एक बरगद के पेड़ पर 135 लोगों को मारकर लटकाया गया।
यह भी उल्लेखनीय है कि 1857-58 की क्रांति के दौरान भारत में चिट्ठियों और पत्रों की आवाजाही बहुत कम थी। फिर भी डाक विभाग में रिकॉर्ड 23 लाख पत्र अपने गंतव्य तक नहीं पहुंच सके। उन्हें यह लिखकर ‘डेड लेटर ऑफिस’ में पहुंचाया गया कि या तो ये लोग मार दिए गए हैं या पलायन कर गए हैं। 1857 के निरक्षर भारत में 23 लाख पत्रों की संख्या बहुत अधिक मानी जानी चाहिए। ‘डेड लेटर ऑफिस में लौटे पत्रों में सर्वाधिक पत्र अवध राज्य के थे। ग्रामीण क्षेत्रों में जिन पेड़ों पर फांसी दी गयी, वे आज भी लोगों के लिए श्रद्धा का विषय हैं। जिन किलों को ध्वस्त किया गया उनके खंडहर आज भी अंग्रेजों द्वारा किए गए क्रूर दमन की याद दिलाते हैं।
अंग्रेजों द्वारा अनेक ऐतिहासिक भवन एवं धरोहरें बदले की भावना से तोपों से उड़ा दी गईं। घने जंगलों की कटाई करने के साथ तमाम दस्तावेजों को नष्ट कर दिया गया। ईस्वी 1857 से पहले अवध राजय में 574 किले थे जिनमें सैंकड़ों तोपें थीं। राज्य में गढिय़ों की संख्या 1569 थीं, जिनको ध्वस्त कर दिया गया। कंपनी सरकार ने जागीरदारों से 720 तोपें, 1,92,306 बंदूकें तथा तमंचे, 5.79 लाख तलवारें और 6.94 लाख फुटकर हथियार जब्त कर लिए।
अवध की बेगमों तथा प्रसिद्ध लोगों को लूटा गया। अंग्रेजों ने लखनऊ पर अधिकार करके भारी लूटपाट की।
अवध में हुई जंग की कई खूबियां थीं। अत्याचारी अंग्रेज अधिकारी नील कॉलम को 16 सितंबर 1857 को लखनऊ में ही मारा गया। 10 मार्च 1858 को अत्याचारी विलियम हॉडसन भी लखनऊ में मारा गया, जिसने दिल्ली में मुगल शहजादों की हत्या की थी।
अवध में बेगम हजरत महल, बिरजीस कद्र, गंगासिंह, जनरल दिलजंग सिंह, तिलकराज तिवारी, राणा बेनीमाधव सिंह, राणा उमराव सिंह, राजा दुर्गविजय सिंह, नरपतसिंह, हरादोई के राजा गुलाबसिंह, बौंडी के राजा हरदत्तसिंह, गोंडा के राजा देवीबख्शसिंह, चर्दा-बहाराइच के राजा ज्योतिसिंह आदि जंग लड़ते हुए नेपाल की तराई में चले गए।
राणा बेनीमाधव सिंह ने जून 1858 में बैसवारा में 10,000 पैदल और घुड़सवार सेना संगठित कर ली थी। फरवरी 1858 की चांदा की लड़ाई में कालाकांकर के 26 वर्षीय युवराज लाल प्रताप चांदा शहीद हुए।
स्वाधीनता संग्राम के नायकों ने अपनी समानांतर डाक व्यवस्था भी बना ऱखी थी। इस नाते अवध क्षेत्र में अंग्रेजों को कदम-कदम पर दिक्कतें आयी थीं। अंग्रेजों की जांच पड़ताल में बनारस में यह बात सामने आई कि बड़ी संख्या में हरकारे क्रांतिवीरों की सेवा कर रहे थे। उनके द्वारा तमाम महत्वपूर्ण सूचनाएं आंदोलनकारियों तक पहुंच रही थीं। इस सेवा का प्रबंध बनारस में महाजनों और रईसों की ओर से किया गया था।
इस सेवा के आठ हरकारे 14 सितंबर 1857 को जलालपुर (जौनपुर) में पकड़े गए जिनके पास राजाओं से संबंधित कई पत्र निकले। सेवा संचालक भैरों प्रसाद तथा इन समस्त हरकारों को फांसी दे दी गयी। अवध राज्य में लगभग डेढ़ लाख लोगों को मार डाला गया।
बाराबंकी के जंगलों से छापामार गतिविधियां चला रहे अवध के क्रांतिकारी जागीरदार जयलाल सिंह को अंग्रेजों ने छल पूर्वक पकड़ लिया तथा उसे 1 अक्टूबर 1859 को लखनऊ में फांसी दे दी।
क्रांतिकारियों एवं अंग्रेजों के बीच चली लम्बी जंग में अवध क्षेत्र के बहुत से खेत उजड़ गए। गांव के गांव नष्ट हो गए तथा जब क्रांति समाप्त हो गई तब अंग्रेजों ने उन दस्तावेजों, पत्राचारों एवं इश्तहारों को नष्ट कर दिया जिनसे क्रांति को कुचले जाने के समय अंग्रेजों द्वारा की गई क्रूरताओं का पता चलता था।
ईस्वी 1879 में नेपाल में ही बेगम हजरत महल की मृत्यु हुई। उसे काठमांडू की जामा मस्जिद के मैदान में एक अज्ञात क़ब्र में दफ़नाया गया। उसकी मृत्यु के बाद, ईस्वी 1887 में रानी विक्टोरिया की जयंती के अवसर पर, ब्रिटिश सरकार ने बेगम हजरत महल के पुत्र बिरजिस क़द्र को माफ़ कर दिया और उसे लखनऊ लौटने की अनुमति दे दी।
ई.1857 की क्रंति देश के विशाल भू-भाग पर प्रकट हुई थी किंतु अवध की क्रांति में एवं दूसरे स्थानों की क्रांति में अंतर था।
इस काल में नाना साहब, तात्यां टोपे और झांसी की रानी लक्ष्मी बाई जैसे शासक अपनी रियासत की सेनाओं के बल पर लड़ रहे थे, मेरठ, कानपुर, बैरकपुर, कलकत्ता, नसीराबाद, आउवा आदि के सैनिक ब्रिटिश सेनाओं के विद्रोही अंग थे किंतु अवध की क्रांति जनक्रांति थी जिसमें विद्रोही सैनिकों से अधिक संख्या में किसानों एवं जनसाधारण ने अपनी इच्छा से हथियार उठाए थे!
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता