हिन्दू संस्कृति में लाल कमल का फूल बहुत श्रद्धा से देखा जाता है। देवी लक्ष्मी कमल के आसान पर विराजमान हैं, भगवान विष्णु के हाथों में कमल का फूल है तथा ब्रह्माजी की पूजा कमल के फूलों से की जाती है। इस कारण 1857 की राष्ट्रव्यापी सशस्त्र क्रांति के समय लाल कमल का फूल क्रांति का संदेश फैलाने के लिए मुख्य प्रतीक के रूप में चुना गया।
लाल कमल का फूल तो सशस्त्र क्रांति की हुंकार का प्रतीक बना ही, इसके साथ रोटी भी रहस्यमय ढंग से हिन्दू सैनिकों के क्रोध की अभिव्यक्ति का प्रतीक बन गई जिसे अंग्रेजी सत्ता हिन्दुओं के मुंह से छीनकर इंग्लैण्ड ले जा रही थी।
18 अप्रेल 1857 को नाना साहब पेशवा जिन्हें पेशवा नाना साहब (द्वितीय) भी कहा जाता है, तीर्थयात्रा पूरी करके बिठूर लौट आया। इस बीच वह अवध की बेगम हजरत महल, मुगल बादशाह बहादुरशाह जफर और बेगम जीनत महल आदि से मिलकर भारत-व्यापी सशस्त्र क्रांति की योजना के विचार को अंतिम रूप दे चुका था।
इस प्रकार 1857 की क्रांति का वास्तविक जनक पेशवा नाना साहब (द्वितीय) को ही माना जा सकता है। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि वही इस क्रांति का केन्द्रीय पात्र था। पेशवा ने क्रांति के भावी नेताओं से परामर्श करके दो मुख्य चिह्न निश्चित किए- एक था कमल का फूल और दूसरी थी- रोटी।
कमल का फूल उन पलटनों में घुमाया जाता था जो इस योजना में शामिल की जानी थीं। किसी एक पलटन का सिपाही फूल लेकर दूसरी पलटन में जाता था। उस पलटन में वह फूल समस्त भारतीय सिपाहियों के हाथों से होता हुआ अंत में जिसके हाथ में आता था, वह उसे अपने पास की दूसरी पलटन के भारतीय सिपाहियों तक पहुंचाता था। इसका गुप्त अर्थ यह था कि उस पलटन के सिपाही क्रांति में भाग लेने के लिए तैयार हैं।
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इसी तरह रोटी को एक गांव का चौकीदार दूसरे गांव के चौकीदार के पास ले जाता था। वह चौकीदार उस रोटी में से थोड़ी सी खुद खा लेता था और बाकी गांव के दूसरे लोगों को खिलाता था। वह गेहूं अथवा दूसरे आटे की रोटियां बनवा कर पास के गांव में पहुंचाता इसका मतलब यह होता था कि उस गांव की जनता निकट भविष्य में होने वाली राष्ट्रीय क्रांति के लिए तैयार है। कमल और रोटी के ये प्रतीक सारे भारत के गांवों में जितनी तेजी से पहुंचे उसे देखकर किसी को भी हैरानी हो सकती है!
कमल के फूल और रोटी के साथ पेशवा नाना साहब का एक संदेश भी पहुचाया जाता था। यह संदेश इस प्रकार था- ‘भाइयो! हम स्वयं विदेशी सरकार की तलवार अपने अंदर घुसा रहे हैं। यदि हम खड़े हो जाएं तो सफलता निश्चित है, कोलकाता से पेशावर तक का सारा मैदान हमारा होगा।’
क्रांति के प्रचार के प्रतीक के रूप में रोटियों और लाल कमल के फूल का प्रयोग किया गया। क्रांति के प्रत्यक्षदर्शी अंग्रेज अधिकारी एवं लेखक सर जी. ओ. ट्रैवेलियन ने अपनी पुस्तक ‘कानपोर’ में लिखा है- ‘लाल कमल ने सचमुच सारी जनता को एक कर दिया है…….. बंगाल में जवान और किसान दोनों एक ही भाव, सब-कुछ लाल होने जा रहा है, की अभिव्यक्ति देते हुए पाये गये।’
1857 की क्रांति के भुगतभोगी अंग्रेज अधिकारी चार्ल्स थियोफिलस मेटकाफ ने अपनी पुस्तक ‘टू नेटिव नरेटिव्ज ऑफ द म्यूटिनी ऑफ डेल्ही’ में लिखा है- ‘बंगाल में ऐसी कोई छावनी या स्टेशन नहीं था जहाँ कमल का प्रसारण न हुआ हो…… षड्यंत्र के इस साधारण प्रतीक का प्रसारण अवध के विलीनीकरण के पश्चात् हुआ।’
उस काल के कलकत्ता तथा बैरकपुर सहित समस्त बंगाल में चल रही गतिविधियों से अनुमान होता है कि 1857 की क्रांति आरम्भ करने में पेशवा नाना साहब तथा उसके मंत्री अजीमुल्ला खाँ की जितनी बड़ी भूमिका थी, उतनी ही बड़ी भूमिका कलकत्ता में निर्वासन व्यतीत कर रहे अवध के नवाब वाजिद अली शाह तथा उसके वजीर अलीनकी खाँ की भी थी।
बंगाल आर्मी जो एशिया की सबसे बड़ी एवं आधुनिक फौज थी, उसके 1 लाख 39 हजार सिपाहियों में से 7 हजार 796 को छोड़कर बाकी सभी ने अपने ब्रिटिश स्वामियों के विरुद्ध विद्रोह कर दिया था।
कुछ भारतीय इतिहासकारों के अनुसार कमल का फूल और रोटी के प्रतीक चिह्न का प्रयोग होने की बात झूठी थी और यह अँग्रेज अधिकारियों द्वारा जानबूझ कर गढ़ी गई थी ताकि वे अपने द्वारा किये गये नर-संहार को यह कहकर उचित ठहरा सकें कि यह सरकार के विरुद्ध एक सुनियोजित षड्यंत्र था जिसे कुचला जाना आवश्यक था।
अट्ठारह सौ सत्तावन की क्रांति आरम्भ होने के दिनों में लंदन से प्रकाशित होने वाली ‘टाइम्स’ मैगजीन का विशेष प्रतिनिधि सर विलियम हार्वर्ड रसल भारत में था। उसने लिखा-
‘यह कैसा युद्ध था जिसमें लोग अपने धर्म के नाम पर, अपनी कौम के नाम पर बदला लेने के लिए और अपनी आशाओं को पूरा करने के लिए उठे थे। उस युद्ध में समूचे राष्ट्र ने अपने ऊपर से विदेशियों के जुए को फेंक कर उसकी जगह देशी नरेशों की सत्ता और देशी धर्मों का अधिकार फिर से स्थापित करने का संकल्प लिया था’
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता