ई.1757 के प्लासी के युद्ध की तरह ई.1761 का बक्सर का युद्ध भारत के इतिहास में अधिक प्रसिद्ध नहीं है किंतु बक्सर का युद्ध भारत के इतिहास में युगांतरकारी मोड़ लाने वाला था जिसने मुगल बादशाह शाहआलम की बादशाही छीन ली।
ई.1761 में एक लाख मराठे पानीपत के तीसरे युद्ध में मारे जा चुके थे और मुगल सल्तनत की ईंट से ईंट बजाने वाला अहमदशाह अब्दाली ई.1763 में वापस अफगानिस्तान जा चुका था। ई.1763 में ही महाराजा सूरजमल को भी मार डाला गया था। इस प्रकार उत्तर भारत में अब मुगलों का कोई शत्रु नहीं बचा था।
मुगल बादशाह शाहआलम (द्वितीय) चाहता तो अपने पुराने मुगल सूबेदारों को फिर से अपने झण्डे के नीचे लाकर मुगल सल्तनत को पुनर्जीवित कर सकता था किंतु शाहआलम (द्वितीय) में इतनी प्रतिभा नहीं थी। वह नाम मात्र का बादशाह था, सल्तनत के समस्त अधिकार रूहेला सरदार नजीबुद्दौला के हाथों में थे जो अफगानिस्तान के शाह के प्रतिनिधि के रूप में दिल्ली में नियुक्त था। कोई भी मुगल सूबेदार उसका नियंत्रण क्यों स्वीकार करता! इसलिए लाल किले की विपन्न अवस्था ज्यों की त्यों बनी रही।
लाल किले के दुर्भाग्य से उस काल में पूर्व दिशा से अंग्रेजों का विजय रथ बहुत तेजी से दिल्ली की तरफ बढ़ा आ रहा था और दक्षिण की तरफ से मराठे फिर से शक्तिशाली होने का प्रयास कर रहे थे।
हमने इस धारावाहिक की 147वीं कड़ी में बताया था कि बंगाल के अमीर मीर जाफर ने बंगाल के सूबेदार सिराजुद्दौला से बगावत करके अंग्रेजों को प्लासी के युद्ध में विजय दिलवा दी थी जिसके बाद अंग्रेजों को बंगाल में राजनीतिक सत्ता मिल गई थी। कुछ ही समय बाद अंग्रेजों ने मीर जाफर को हटाकर मीर कासिम को बंगाल का सूबेदार बना दिया। जब मीर कासिम अंग्रेजों की धन सम्बन्धी मांग पूरी नहीं कर सका तो जुलाई 1763 में अंग्रेजों ने मीर कासिम पर हमला कर दिया। मीर कासिम अंग्रेजों से परास्त होकर पटना होता हुआ अवध भाग आया।
अंग्रेजों ने फिर से मीर जाफर को बंगाल का नवाब बना दिया। मीर जाफर पहली बार अपने श्वसुर सिराजुद्दौला से गद्दारी करके नवाब बना था, उस समय भी उसने बंगाल का खजाना अँग्रेज अधिकारियों पर लुटा दिया था। दूसरी बार वह अपने जामाता को अपदस्थ किये जाने के बाद नवाब बना। इस बार भी कम्पनी के अधिकारियों ने उसे चूसने में कोई कसर नहीं छोड़ी।
इससे बंगाल में अराजकता मच गई। अंग्रेजों ने जी भर कर बंगाल, बिहार और उड़ीसा को चूसना आरम्भ कर दिया। इन तीन प्रांतों के किसानों से अंग्रेजों को 30 लाख पौण्ड का वार्षिक राजस्व मिलता था। लॉर्ड क्लाइव का अनुमान था कि कम्पनी और उसके कर्मचारियों ने मीर जाफर से तीन करोड़ रुपये से अधिक की रकम ऐंठी थी।
मीर कासिम ने बंगाल से अवध भाग आने के बाद, अवध के नवाब शुजाउद्दौला की सहायता से अंग्रेजों पर पुनः आक्रमण करने की योजना बनाई। जबकि शुजाउद्दौला ने मीर कासिम को पकड़कर अंग्रेजों के हाथों में सौंपने की योजना बनाई किंतु जब मीर कासिम ने शुजाउद्दौला को बताया कि मीर कासिम के पास दस करोड़ रुपये मूल्य के जवाहरात हैं तो शुजाउद्दौला ने मीर कासिम को अंग्रेजों के हाथों में सौंपने का विचार त्याग दिया और मीर कासिम की सम्पत्ति हड़पने का षड़यंत्र रचा।
इन दिनों मुगल बादशाह शाहआलम (द्वितीय) भी शुजाउद्दौला के साथ इलाहाबाद में था। वह भी अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध करने के लिए तैयार हो गया। बादशाह शाहआलम ने भी दोहरी चाल चली। एक ओर तो वह शुजाउद्दौला के साथ अँग्रेजों के विरुद्ध युद्ध करने के लिये चल पड़ा और दूसरी ओर उसने गुप्त रूप से अँग्रेजों को लिख भेजा कि वह विवशता में नवाब शुजाउद्दौला का साथ दे रहा है।
ई.1764 के अंत में बनारस के पूर्व में स्थित बक्सर में शुजाउद्दौला तथा ईस्ट इण्डिया कम्पनी अपनी-अपनी सेनाएं लेकर पहुंच गए। अँग्रेजों ने युद्ध आरम्भ होने से पहले शुजाउद्दौला के कुछ अमीरों को घूस देकर अपनी तरफ मिला लिया। 23 अक्टूबर 1764 को बक्सर में दोनों पक्षों के मध्य संघर्ष हुआ। तीन घण्टे के युद्ध में अवध की सेना बुरी तरह से परास्त होकर मैदान से भाग खड़ी हुई। अँग्रेजों ने चुनार तथा इलाहाबाद के दुर्गों पर अधिकार कर लिया।
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शुजाउद्दौला ने मराठा सेनापति मल्हारराव होलकर से सहायता प्राप्त की परन्तु अपै्रल 1765 में कड़ा के युद्ध में अँग्रेजों ने उन दोनों को अर्थात् शुजाउद्दौला तथा मल्हारराव होलकर को परास्त कर दिया। अन्त में शुजाउद्दौला ने समर्पण कर दिया। मीर कासिम भागकर दिल्ली चला गया।
बक्सर के युद्ध में भारत के तीन प्रमुख व्यक्तियों- मुगल बादशाह शाहआलम, अवध के नवाब शुजाउद्दौला और बंगाल के नवाब मीर कासिम के भाग्य का फैसला हुआ। यहाँ तक कि मल्हारराव होलकर भी अँग्रेजों से परास्त हुआ। बक्सर विजय के परिणाम स्वरूप, सम्पूर्ण अवध सूबे पर ईस्ट इण्डिया कम्पनी का नियंत्रण हो गया। इससे अँग्रेजों के लिए उत्तरी भारत में साम्राज्य की स्थापना का कार्य सरल हो गया।
अब ईस्ट इण्डिया कम्पनी एक अखिल भारतीय शक्ति बन गई। उसका प्रभाव क्षेत्र बंगाल से दिल्ली तक विस्तृत हो गया। अंग्रेज लेखक ब्रूम ने लिखा है- ‘इस प्रकार बक्सर का प्रसिद्ध युद्ध समाप्त हुआ, जिस पर भारत का भाग्य निर्भर था और जितनी बहादुरी से लड़ा गया, परिणामों की दृष्टि से भी उतना ही महत्त्वपूर्ण था।’
बक्सर का युद्ध समाप्त होने के बाद ई.1765 में अंग्रेजों और मुगल बादशाह के बीच एक संधि हुई। इसे इतिहास में इलाहाबाद की सन्धि कहा जाता है। इस संधि के अन्तर्गत बादशाह शाहआलम ने बंगाल, बिहार और उड़ीसा की दीवानी अर्थात् राजस्व वसूलने का अधिकार ईस्ट इण्डिया कम्पनी को दे दिया तथा ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने शाहआलम को 26 लाख रुपये वार्षिक पेंशन दे दी। जो मुगल बादशाह किसी समय अफगानिस्तान से लेकर बंगाल और काश्मीर से लेकर मैसूर तक के क्षेत्रों के अबाध स्वामी थे, अब मुगल बादशाह के अधीन केवल इलाहाबाद और कड़ा के सूबे रह गए थे।
अंग्रेजों ने मुगल बादशाह से दिल्ली का लाल किला नहीं छीना था किंतु वजीर नजीबुद्दौला ने शाहआलम को लाल किले में घुसने नहीं दिया। इस कारण शाहआलम छः वर्ष तक अवध के नवाब के संरक्षण में इलाहाबाद में निवास करता रहा।
आधुनिक भारत के इतिहास में पानीपत की तीसरी लड़ाई, प्लासी की लड़ाई तथा बक्सर की लड़ाई को सर्वाधिक निर्णायक युद्धों में से माना जाता है। बक्सर की लड़ाई के बाद बंगाल का नवाब कम्पनी के हाथों की कठपुतली बन कर रह गया जबकि अवध का नवाब कम्पनी पर निर्भर रहने वाला समर्थक मित्र मात्र था। मुगल बादशाह की हालत तो और भी बुरी हुई। उसे पेंशन देकर उसकी बादशाहत छीन ली गई।
जी. बी. मालेसन ने लिखा है- ‘चाहे आप इसे देशी और विदेशियों के बीच द्वंद्व युद्ध समझें या ऐसी एक सारगर्भित घटना जिसका परिणाम स्थाई और विशाल हुआ।’
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता