मुहम्मदशाह रंगीला का दरबार संसार भर के शासकों के दरबारों से अलग था। संसार की समस्त रंगीनियाँ उस दरबार में सजी रहती थीं। यहाँ तक कि भरे दरबार में बादशाह स्वयं अपने नंगे चित्र बनाया करता था।
जब ई.1720 में बादशाह मुहम्मदशाह ने सैयद बंधुओं का सफाया कर दिया तो मुहम्मदशाह रंगीला निरंकुश शासक बन गया। उसने चिनकुलीच खाँ को अपना प्रधानमंत्री बना लिया तथा राज्य का सारा भार उस पर डालकर स्वयं रंगरेलियों में व्यस्त हो गया। मुहम्मदशाह को संगीत एवं नृत्यकला से बहुत प्रेम था। इस कारण लोगों ने उसका नाम ‘सदा रंगीला’ रख दिया था। मुगल इतिहास में उसे मुहम्मद शाह रंगीला भी कहा जाता है। उसके काल में मुगल सल्तनत का तेजी से ह्रास हुआ।
मुहम्मदशाह के साथ ही लाल किले की रंगीनियां फिर से लौट आईं। पाठकों को स्मरण होगा कि शाहजहाँ के काल में दिल्ली एवं आगरा के लाल किलों के भीतर गवैयों, नर्तकियों, भाण्डों, नक्कालों, हिंजड़ों, विदेशी शराब, इत्र, हीरे-मोती के आभूषण तथा रेशमी वस्त्रों के विक्रेताओं के झुण्ड मण्डराया करते थे किंतु जब औरंगजेब बादशाह हुआ तो उसने लाल किलों को इन समस्त रंगीनियों से मुक्त करवाया दिया था।
इटैलियन यात्री निकोलो मनूची ने औरंगजेब के काल का एक किस्सा लिखा है। वह लिखता है कि जब औरंगज़ेब ने संगीत पर पाबंदी लगाई तो गवैयों और संगीतकारों की रोज़ी-रोटी बंद हो गई। इससे तंग आकर एक हज़ार गवैयों, नचकैयों, वेश्याओं एवं भाण्डों आदि ने जुम्मे के दिन दिल्ली की जामा मस्जिद से ढोल-नगाड़ों एवं तुरहियों आदि संगीत यंत्रों का जनाजा निकाला तथा जोर-जोर से रोते-पीटते हुए औरंगजेब के सामने से निकले।
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औरंगज़ेब ने जनाजे में शामिल एक गवैये को अपने पास बुलाकर पूछा- ‘ये किसका जनाज़ा लिए जा रहे हो जिसकी ख़ातिर इस क़दर रोया पीटा जा रहा है?’
इस पर उस गवैये ने जवाब दिया- ‘बादशाह ने संगीत का क़त्ल कर दिया है, उसे दफ़नाने जा रहे हैं।’
औरंगज़ेब ने उससे कहा- ‘क़ब्र ज़रा ग़हरी खोदना।’
मुहम्मदशाह के तख्त पर बैठते ही वे सारे वाद्ययंत्र मानो कब्र से निकल कर फिर से जीवित हो गए थे और एक साथ ही मुहम्मदशाह रंगीला का दरबार उनसे आबाद हो गया था। लाल किलों की रंगीनियां एक बार फिर से पूरे जोर-शोर के साथ लौट आई थीं।
उन्हीं दिनों ‘मरक़ए दिल्ली’ नामक एक पुस्तक लिखी गई जिसमें मुहम्मदशाह रंगीला का दरबार विस्तार से वर्णित है। इस पुस्तक को मुहम्मदशाह के दरबारी ‘दरगाह क़ली ख़ान’ ने लिखा था। इस पुस्तक के अनुसार- ‘इस काल की दिल्ली में एक ओर तो मुट्ठी भर शाही और धनी लोग थे जो सब तरह के ऐश और आराम की जिंदगी जी रहे थे और दूसरी ओर बहुत बड़ी संख्या में गरीब लोग थे जो भूख, लाचारी और बेबसी की जिंदगी जी रहे थे। वे दुर्भाग्य से अपना माथा पटकते थे और उन्हें पेट भर भोजन नहीं मिलता था। इस काल की दिल्ली में औलियाओं का बोलबाला था। गरीब लोग अपने दुर्भाग्य से पीछा छुड़ाने के लिए औलियाओं का दामन थामते थे जिनके पास भविष्य के काल्पनिक सुखों का आश्वासन देने के अतिरिक्त और कुछ नहीं था।’
‘मरक़ए दिल्ली’ में आंहज़ोर के क़दम शरीफ़, क़दम गाह हज़रत अली, निज़ामुद्दीन औलिया का मक़बरा, कुतुब साहब की दरग़ाह और सैंकड़ों दरगाहों का उल्लेख किया गया है जहाँ उनके सामने मन्नतें मानने वालों एवं गिड़गिड़ाने वालों की भीड़ लगी रहती थी।
‘मरक़ए दिल्ली’ में लिखा है- ‘यहाँ औलिया कराम की इतनी क़ब्रें हैं कि उनसे बहार भी जल उठे। इन दरगाहों एवं कब्रों पर झाड़-फ़ानूस सजाए जाते हैं और महफ़िलें रोशन होती हैं।’
‘मरक़ए दिल्ली’ के लेखक दरग़ाह कली खान ने इस काल के अनेक संगीतकारों का वर्णन किया है जो शाही दरबार से सम्बन्ध रखते थे। उनमें ‘अदा रंग’ और ‘सदा रंग’ सर्वाधिक विख्यात हैं जिन्होंने ख़याल-तर्ज़-ए-गायकी को नई ऊँचाइयां प्रदान कीं। ‘मरक़ए दिल्ली’ में कहा गया है- ‘सदा रंग जैसे ही अपने नाख़ून से साज़ के तार छेड़ता है दिलों से आह निकलने लगती है और जैसे ही उस के गले से आवाज़ निकलती है, लगता है बदन से जान निकल गई।’
उसी दौर की एक बंदिश आज भी गाई जाती है-
‘मुहम्मदशाह रंगीले सजना तुम बिन कारी बदरया, तन ना सुहाए।’
अर्थात्- हे मुहम्मदशाह रंगीले सजना, तुम्हारे बिना काले बादल हृदय को अच्छे नहीं लगते।
उस दौर में नूर बाई नामक वेश्या के कोठे के आगे शाही अमीरों और धनी लोगों की इतनी भीड़ लगती थी कि उनके हाथियों से दिल्ली की गलियों में जाम लग जाता था। जिसे आज की भाषा में ट्रैफिक जाम कहा जाता है।
मरक़ए दिल्ली में लिखा है- ‘जिस किसी को नूरबाई की महफ़िल का चस्का लगा उसका घर बर्बाद हुआ और जिस दिमाग़ में उसकी दोस्ती का नशा समाया वो बगुले की तरह चक्कर काटता रहता। एक दुनिया ने अपनी पूंजी खपा दी और अनगिनत लोगों ने उस काफ़िर की खातिर सारी दौलत लुटा दी।’
दरग़ाह क़ुली ख़ान ने एक और तवायफ़ अद बेग़म का हैरत अंगेज़ हाल लिखा है- ‘अद बेग़म दिल्ली की मशहूर बैग़म हैं जो पायजामा नहीं पहनती, बल्कि अपने बदन के निचले हिस्से पर पायजामों की तरह फूल-पत्तियां बना लेती हैं। ऐसी फूल-पत्तियां बनाती हैं जो बुने हुए रोमन थान में होती हैं। इस तरह वो अमीरों की महफ़िल में जाती हैं और कमाल ये है कि पायजामे और उस नक्क़ाशी में कोई फ़र्क़ नहीं कर पाता। जब तक उस राज़ से पर्दा ना उठे कोई उनकी कारीगरी को नहीं भांप सकता।’
उस काल के शाइर मीर तक़ी मीर ने तवायफ अद बेग़म की तारीफ करते हुए लिखा है-
‘जी फट गया है रश्क से चसपां लिबास के
क्या तंग जामा लिपटा है उसके बदन के साथ।’
मुहम्मदशाह अपने दिन की शुरुआत झरोखा दर्शन से करता था। उस समय शाही महल के झरोखे के सामने बटेरों या हाथियों की लड़ाइयां आयोजित की जाती थीं। हाथियों और बटेरों की लड़ाइयों से तंग आकर जनता ने झरोखा दर्शन के लिए आना बंद कर दिया। अमीरों को तो अपनी नौकरी करनी ही थी।
मुहम्मदशाह दोपहर के समय बाज़ीगरों, नटों, नक्क़ालों और भांडों की कलाओं से दिल बहलाता था। वह प्रति दिन संध्याकाल में एक पालकी पर बैठकर अपने बाज के साथ शाही उद्यान में घूमने जाता था। उसकी शामें नृत्य और संगीत से तथा रातें औरतों से रंगीन रहा करती थीं।
बादशाह को औरतों के कपड़े पहनने का बड़ा शौक था। इसलिए वह कई बार दरबार में भी औरतों के कपड़े पहनकर आता था। जनाना रेशमी पोशाक का स्पर्श बादशाह को मदहोश बनाए रखता था। उसके पांव में मोती जड़े जूते होते थे।
मुग़ल चित्रकारी जो औरंगज़ेब के दौर में मुरझा गई थी अब पूरी चमक के साथ सामने आई। उस दौर के विख्यात चित्रकारों में निधामल और चित्रमन के नाम शामिल हैं जिनके चित्र मुग़लिया चित्रकारी के सुनहरे दौर के कलाकारों के समकक्ष हैं।
मुहम्मदशाह कालीन मुगलिया चित्रशैली में हल्के रंगों का प्रयोग किया गया है। जहांगीर कालीन चित्रकला में चित्रों में पूरा फ्रेम खचाखच भर दिया जाता था जबकि मुहम्मदशाह के दौर में परिदृश्य में सादगी दिखाने और खाली स्थान रखने का रुझान पैदा हुआ।
कहा जाता है कि जब मुहम्मदशाह औरतों के कपड़ों में मुगलिया दरबार में आने लगा तो उसके बारे में लोगों ने अफवाह उड़ा दी कि बादशाह नपुंसक है। इस पर मुहम्मदशाह रंगीला ने स्वयं अपने नग्न चित्र बनाए जिनमें वह दूसरी स्त्रियों के साथ सहवास करता हुआ दिखाया जाता था। इन चित्रों में से कुछ चित्र आज भी भारत के संग्रहालयों में मौजूद हैं।
कुछ लेखकों ने लिखा है कि मुहम्मदशाह रंगीला, कई बार तो दरबार में बिना कपड़े पहने ही आता था और दरबारियों को भी नग्न होने के लिए कहता था ताकि लोग देख सकें कि बादशाह और उसके अमीर नामर्द नहीं हैं।
मुहम्मदशाह रंगीला का दरबार मुगलों के नैतिक एवं चारित्रिक पतन का सबसे ज्वलंत उदाहरण था किंतु लाल किले ने मुगलों के पतन के इससे भी भयंकर चित्र अतीत में देख रखे थे और कुछ वीभत्स दृश्य लाल किला शीघ्र ही देखने वाला था।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता