सैयद बन्धु ईरान से आए हुए शिया मुसलमान थे। विगत कुछ वर्षों में लाल किले की कमजोर का फायदा उठाकर वे अत्यंत शक्तिशाली हो गए थे। वे मुगल बादशाहों को कीड़े-मकोड़ों की तरह मारने लगे!
अब तक सैयद बन्धु दो मुगल बादशाहों अर्थात् जहांदारशाह और फर्रूखसियर के प्राण ले चुके थे। इनमें से जहांदारशाह औरंगजेब के पुत्र बहादुरशाह का बेटा था जबकि फर्रूखसियर बहादुरशाह के दूसरे पुत्र अजीमुश्शान का बेटा था। अब सैयद बन्धु की दृष्टि शहजादे रफी-उद्-दरजात पर गई।
रफी-उद्-दरजात का जन्म 1 दिसम्बर 1699 को हुआ था। पाठकों का याद होगा कि औरंगजेब के पुत्र बहादुरशाह के चार पुत्रों में से सबसे छोटे पुत्र का नाम रफी-उस्-शान था जिसे बहादुरशाह के पुत्र अजीम-उस्-शान ने ई.1712 में उत्तराधिकार के युद्ध में मार डाला था।
रफी-उस्-शान के कई पुत्र थे जिनमें से तीसरे पुत्र का नाम रफी-उद्-दरजात था। वह भारत के मुगलों के तख्त पर बैठने वाला दसवां बादशाह था। 28 फरवरी 1719 को उसे बादशाह बनाया गया। जब रफी-उद्-दरजात को तख्त पर बैठाने के लिए ले जाया गया, तब उसकी माता फूट-फूटकर रो रही थी। क्योंकि वह जानती थी कि दुष्ट सैयद बन्धु जिस तरह जहांदारशाह तथा फर्रूखसियर को मार चुके थे, एक दिन वे रफी-उद्-दरजात को भी मार डालेंगे।
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रफी-उद्-दरजात राजयक्ष्मा अर्थात् ‘टुबरकुलोसिस’ का मरीज था और किसी भी कीमत पर बादशाह नहीं बनना चाहता था किंतु जोधपुर के महाराजा अजीतसिंह तथा जाटों के नेता चूड़ामन ने रफी-उद्-दरजात का एक-एक हाथ पकड़ा तथा उसे हिम्मत बंधाते हुए उसी तख्ते ताउस पर बैठा दिया जिस पर कभी शाहजहाँ और औरंगजेब बैठा करते थे।
महाराजा अजीतसिंह के आग्रह पर बादशाह रफीउद्दरजात ने हिन्दुओं पर से जजिया उठा लिया तथा हिन्दू तीर्थों को सब प्रकार की बाधाओं से मुक्त कर दिया। चूंकि फर्रूखसियर को तख्ते ताउस से उतारने में कोटा नरेश भीमसिंह, जोधपुर नरेश अजीतसिंह, जाटों के नेता चूड़ामन, राजा रत्नचंद्र, राजा बख्तमल तथा मराठों का बहुत बड़ा हाथ था, इसलिए मुसमान अमीर सल्तनत में से जजिया के हटाए जाने पर चुप रहे।
पाठकों को स्मरण होगा कि सैयद बन्धु ने फर्रूखसियर से कहकर आम्बेर नरेश जयसिंह तथा बूंदी नरेश बुद्धसिंह को अपने-अपने राज्यों में चले जाने के आदेश दिलवाए थे। अभी ये दोनों राजा मार्ग में ही थे कि उन्हें फर्रूखसियर की हत्या हो जाने के समाचार मिले। इस पर इन दोनों राजाओं की स्थिति बड़ी विचित्र हो गई। अब तक मुगल बादशाह के दरबार में इन्हीं दोनों की तूती बोलती थी और ये दोनों राजा ही बादशाह के बड़े मित्र माने जाते थे किंतु अब वे अचानक ही मुगलिया राजनीति के हाशिए पर फैंक दिए गए थे। सवाई जयसिंह को लगा कि फर्रूखसियर को हटाने के बाद सैयद बंधु जयसिंह को भी तंग करेंगे। इसलिए आम्बेर नरेश ने एक त्वरित योजना तैयार की।
जयसिंह ने आगरा के किलेदार मित्रसेन को संदेश भिजवाया कि वह शहजादे नेकूसीयर को जेल से निकालकर बादशाह घोषित कर दे। मैं तेरी सहायता के लिए आगरा आ रहा हूँ। पाठकों को स्मरण होगा कि नेकूसीयर औरंगजेब के विद्रोही पुत्र अकबर का सबसे छोटा बेटा था। जब ई.1687 में अकबर महाराष्ट्र से ईरान भाग गया था तब अकबर का दो साल का बेटा नेकूसीयर आगरा के मुगलिया हरम में ही छूट गया था। तब से औरंगजेब ने इसे आगरा में बंदी बना रखा था।
मित्रसेन एक ब्राह्मण वैद्य था तथा अपनी योग्यता के बल पर उन्नति करता हुआ आगरा के किलेदार के पद पर जा पहुंचा था। वह आम्बेर नरेश सवाई जयसिंह का विश्वसनीय व्यक्ति था। इसलिए मित्रसेन ने सवाई जयसिंह का संदेश मिलते ही 18 मई 1719 को नेकूसीयर को जेल से बाहर निकाल कर आगरा के लाल किले में उसका राज्याभिषेक करवाया।
नेकूसीयर ने बादशाह बनने के बाद किलेदार मित्रसेन को राजा बीरबल की पदवी दी तथा उसे सात हजारी मनसबदार बनाया। नेकूसीयर ने लाल किले में नियुक्त कर्मचारियों एवं सिपाहियों को अपने प्रति निष्ठावान बनाने के लिए शाही कोष से एक करोड़ रुपया निकालकर उनमें वितरित करवाए।
इसके बाद नेकूसीयर के आदेश से आगरा में स्थित गैरत खाँ के मकान पर गोलीबारी आरम्भ कर दी गई। गैरत खाँ आगरा सूबे का नाजिम था तथा सैयदों का विश्वस्त था। उसने नेकूसियर के सैनिकों का सामना किया तथा आगरा की समस्त गतिविधियों के समाचार सैयद बंधुओं को लिखकर भिजवा दिए।
सैयद हुसैन अली खाँ कोटा नरेश भीमसिंह तथा जाटों के नेता चूड़ामन को अपने साथ लेकर आगरा का विद्रोह दबाने के लिए रवाना हो गया। इन लोगों ने 23 जून 1719 को दिल्ली से प्रस्थान किया और कुछ ही दिनों में आगरा पहुंचकर लाल किले को घेर लिया। 12 अगस्त 1719 को नेकूसीयर तथा मित्रसेन ने आत्मसमर्पण कर दिया।
इस प्रकार केवल तीन माह के लिए ही सही किंतु नेकूसीयर मुगलों का बादशाह हुआ। भले ही वह दिल्ली के तख्त पर न बैठा हो किंतु आगरा के लाल किले में उसकी विधिवत् ताजपोशी हुई थी। यदि वंशावली के हिसाब से देखा जाए तो मुगलों के तख्त पर रफीउद्दरजात की बजाय नेकूसीयर का अधिकार पहले था क्योंकि वह औरंगजेब का पौत्र था जबकि रफीउद्दरजात औरंगजेब का प्रपौत्र था। इन दोनों में से किसी का भी पिता बादशाह नहीं बना था।
जब किलेदार मित्रसेन ने आगरा में नेकूसीयर की ताजपोशी की तब सवाई राजा जयसिंह भी एक सेना लेकर आगरा की तरफ बढ़ा किंतु जब वह टोडा पहुंचा तो उसे आगरा में नेकूसीयर तथा मित्रसेन की पराजय के समाचार मिले, इसलिए वह पुनः आम्बेर लौट गया। महाराजा जयसिंह ने इलाहाबाद के सूबेदार छबेलाराम को भी सेना लेकर आगरा पहुंचने के लिए लिखा था किंतु उस समय इलाहाबाद सूबे में एक बड़ा विद्रोह चल रहा था और छबेलाराम की सेना वहाँ व्यस्त थी, इसलिए छबेलाराम भी नेकूसीयर की सहायता के लिए नहीं पहुंच सका।
कुछ इतिहासकारों के अनुसार नेकूसीयर ने आगरा से निकल भागने के लिए चूड़ामन से गुप्त संधि की तथा उसने नेकूसीयर को सुरक्षित रूप से आम्बेर राज्य में पहुंचा देने का वचन दिया किंतु जब नेकूसीयर पचास लाख रुपये तथा अपने भतीजे मिर्जा असगरी को साथ लेकर चूड़ामन के साथ किले से बाहर निकला तो चूड़ामन ने नेकूसीयर को पकड़कर सैयद हुसैन अली खाँ को सौंप दिया तथा रुपये अपने पास रख लिये।
कुछ इतिहासकारों के अनुसार कोटा के महाराजा भीमसिंह ने नेकूसीयर को बंदी बनाकर फिर से लाल किले की उसी जेल में डाल दिया। कुछ दिन बाद नेकूसीयर को दिल्ली के सलीमगढ़ दुर्ग की जेल में भेज दिया गया। यह भाग्यहीन शहजादा जीवन भर जेल में ही पड़ा रहा और 11 मार्च 1723 को जेल में ही मृत्यु को प्राप्त हुआ।
जिस समय सैयद बन्धुओं ने फर्रूखसियर को तख्त से उतार कर रफी-उद्-दरजात को बादशाह बनाया था, उस समय रफीउद्दरजात की आयु केवल 20 वर्ष थी किंतु वह राजयक्ष्मा अर्थात् ‘टुबरकुलोसिस’ का मरीज था। उसे अपनी मौत नजदीक आती हुई दिखाई दे रही थी। अतः तीन महीने बाद उसने सैयद बंधुओं से कहा कि मुझे हटाकर मेरे बड़े भाई रफीउद्दौला को बादशाह बना दो।
इस पर 4 जून 1719 को रफी-उद्-दरजात के बड़े भाई रफी-उद्-दौला को तख्त पर बैठाया गया। इसके 7 दिन बाद अर्थात् 11 जून 1719 को आगरा के लाल किले में रफी-उद्-दरजात की मृत्यु हो गई। उसने केवल तीन माह नौ दिन राज्य किया।
बहुत से इतिहासकारों का मानना है कि संभवतः सैयद बंधुओं ने आगरा में रफी-उद्-दरजात की हत्या कर दी ताकि वह भविष्य में कभी भी सैयद बंधुओं के लिए खतरा न बन सके। उसका शव दिल्ली लाया गया और महरौली में ख्वाजा बख्तियार काकी की दरगाह के निकट दफना दिया गया।
नया बादशाह अर्थात् रफीउद्दौला अपने भाई रफी-उद्-दरजात से केवल 18 माह बड़ा था। सैयद बंधु उसे बादशाह नहीं बनाना चाहते थे किंतु परिस्थितियों ने सैयदों को विवश कर दिया था कि वे रफीउद्दौला को बादशाह बनाएं। रफीउद्दौला ने शाहजहाँ की उपाधि धारण की। मुगलों के इतिहास में उसे शाहजहाँ (द्वितीय) भी कहा जाता है।
सैयद बन्धु ने नए बादशाह के चारों ओर अपने गुप्तचर नियुक्त कर दिए तथा उसकी प्रत्येक गतिविधि पर दृष्टि रखने लगे। उसे किसी से भी मिलने की अनुमति नहीं थी। वह जुम्मे की नमाज में शामिल नहीं हो सकता था। यहाँ तक कि सैयद बन्धु के सिपाही बादशाह के कपड़ों और भोजन का भी निरीक्षण किया करते थे।
पूर्ववर्ती बादशाह की तरह नया बादशाह भी राजयक्ष्मा का रोगी था, साथ ही अफीम के सेवन का आदी था। बादशाह बनने के बाद उसने अफीम छोड़ने का प्रयास किया किंतु इस प्रयास में वह और अधिक बीमार हो गया। 18 सितम्बर 1719 को उसका भी निधन हो गया। उसनके केवल चार माह और 16 दिन ही राज्य किया। उसे भी महरौली में ख्वाजा बख्तियार काकी की दरगाह के निकट दफना दिया गया।
कामवर खाँ ने आरोप लगाया है कि इन दोनों बादशाहों अर्थात् रफी-उद्-दरजात एवं रफीउद्दौला को सैयद बन्धु ने विष देकर मरवाया था। इस प्रकार सैयद बंधुओं ने पांच मुगल बादशाहों जहांदारशाह, फर्रूखसीयर, नेकूसीयर, रफीउद्दरजात तथा शाहजहाँ (द्वितीय) को कीड़े मकोड़ों की तरह मरवाया तथा शासन सूत्र अपने हाथों में रखकर निरंकुश शासन किया।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता