चूड़ामन जाट सिनसिनी के जाट परिवार में उत्पन्न हुआ था। उसके पिता का नाम भज्जा सिंह था। चूड़ामन को ही भरतपुर के राजवंश का संस्थापक माना जाता है। एक समय ऐसा भी आया जब दिल्ली के लाल किले ने चूड़ामन जाट के सामने घुटने टेक दिए!
शाहजहाँ के समय से ही आगरा-मथुरा क्षेत्र में जाट संगठित एवं शक्तिशाली होने लगे थे। ईस्वी 1670 में औरंगजेब ने वीर गोकुला जाट के टुकड़े करवाकर जाटों को कुचलने का प्रयास किया था किंतु जाटों का आंदोलन ब्रजराज सिंह, भज्जासिंह तथा बदनसिंह आदि जाट नेताओं के नेतृत्व में निरंतर गति पकड़ता रहा।
ईस्वी 1688 में वीर राजाराम जाट ने औरंगजेब के पूर्वज शहंशाह अकबर की हड्डियाँ आग में डाल दीं थीं। इसके बाद जाटों और मुगलों में नए सिरे से ठन गई थी।
जब औरंगजेब दक्षिण भारत में अंतिम सांसें गिन रहा था तब जाटों का नेतृत्व चूड़ामन जाट के हाथों में था। औरंगजेब ने चूड़ामन को कुचलने का बहुत प्रयास किया किंतु चूड़ामन आगरा, मथुरा, अलीगढ़, हाथरस, धौलपुर, रतनपुर, होडल आदि के जाटों के बल पर मुगलों से संघर्ष करता रहा।
उन दिनों दिल्ली से ग्वालियर, आगरा से अजमेर तथा मालवा की ओर जाने वाले शाही काफिले तथा व्यापारिक काफिले जाटों द्वारा लूटे जा रहे थे। जाटों ने गारू, हलैना, सौंख, सिनसिनी, थून आदि स्थानों पर गढ़ियां बना रखी थीं। ये गढ़ियां लूट के माल से भरती जा रही थीं जिनसे जाट वीरों को वेतन, अनाज एवं हथियार उपलबध करवाए जाते थे।
इस काल में राजपूतों एवं मुगलों को किसानों से भूराजस्व प्राप्त होता था जबकि मराठों, जाटों एवं सिक्खों की सेनाएं लूट तथा चौथ से प्राप्त पैसे पर खड़ी थीं। जब जून 1708 में औरंगजेब के शहजादे मुअज्जमशाह और आजमशाह जजाऊ के मैदान में लड़ने पहुंचे तो चूड़ामन भी एक विशेष योजना के साथ जाट बंदूकचियों को लेकर जजाऊ में जाकर बैठ गया। उसने इस युद्ध में किसी का भी पक्ष नहीं लिया।
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उन दिनों के युद्धों में यह एक आम प्रचलन था कि युद्ध के पश्चात् विजेता सैनिक, पराजित पक्ष की सेना के डेरे लूटता था किंतु चूड़ामन की योजना यह थी कि जब युद्ध के दौरान दोनों पक्षों की काफी क्षति हो चुकी होगी, तब वह कमजोर पक्ष वाले शहजादे के डेरे लूटकर भाग जाएगा।
मुअज्जमशाह और आजमशाह दोनों ही पक्ष चूड़ामन जाट के इरादों को नहीं भांप सके। उन्होंने जाटों को जजाऊ के निकट आकर जमा होते हुए देखा किंतु इस समय वे जाटों से बात करके उनके इरादों का पता लगाने की स्थिति में नहीं थे। परिस्थितियां भी कुछ ऐसी बन गई थीं कि युद्ध बिना किसी योजना के अचानक आरम्भ हो गया था अतः किसी भी पक्ष को जाटों की तरफ ध्यान देने का अवसर भी नहीं मिला।
आगरा एवं धौलपुर का क्षेत्र उत्तर भारत के सबसे गर्म क्षेत्रों में से है। यदि चम्बल एवं यमुना को छोड़ दिया जाए तो गर्मियों में दूर-दूर तक कहीं पानी उपलब्ध नहीं होता। यही कारण था कि आजम और मुअज्जम चम्बल में पानी की उपलब्धता को देखते हुए जजाऊ में लड़ने के लिए आए थे।
20 जून 1708 को जिस समय अचानक युद्ध आरम्भ हुआ, उस समय सूर्य भगवान आकाश के मध्य में थे और धरती पर मानो आग बरस रही थी। भीषण गर्मी के कारण सैनिकों की आंखें बंद हो रही थीं और पानी के अभाव में उनके अंग शिथिल हो रहे थे। जब दोनों ओर से तोपें चलनी शुरु हुईं तो दोनों पक्षों के सिपाही बार-बार युद्ध का मैदान छोड़कर दूर-दूर भागने लगे। इस दौरान तोप का एक गोला लगने से मुअज्जमशाह के शिविर में आग लग गई। चूड़ामन जाट इसी अवसर की प्रतीक्षा में था। उसने जाट बंदूकचियों को मुअज्जमशाह के डेरे लूटने के आदेश दिए। जाटों ने मुअज्जमशाह के खेमे में जमकर लूट मचाई तथा जितना अधिक सामान उठा सकते थे उसे ऊंटों एवं घोड़ों पर लादकर भाग लिए।
जाटों का एक समूह अब भी मैदान के निकट जमा था। जैसे ही उन्हें ज्ञात हुआ कि मुअज्जमशाह का पलड़ा भारी हो गया है और आजमशाह की हार हो रही है तो जाट फिर से सक्रिय हो गए। इस बार उन्होंने आजमशाह के डेरों को लूटा।
इस लूट में चूड़ामन जाट को इतना अधिक धन एवं माल प्राप्त हुआ कि अब वह आराम से एक विशाल सेना खड़ी कर सकता था। चूड़ामन को दोनों खेमों से अपार खजाना, बहुमूल्य आभूषण, हीरे-जवाहरात, बड़ी संख्या में ऊंट, घोड़े एवं बैल हाथ लगे थे। जब तक मुअज्जमशाह युद्ध समाप्त करके अपने खेमे में लौटता तब तक चूड़ामन तथा उसके जाट जजाऊ से बहुत दूर जा चुके थे।
युद्ध की समाप्ति के बाद बहुत से मुगल एवं राजपूत सैनिक धौलपुर तथा ग्वालियर की ओर भागे। इन भागते हुए सैनिकों पर जाटों तथा रूहेलों ने आक्रमण किए। जान बचाने के लिए भागते हुए सैनिकों को पकड़-पकड़कर मारा गया। उनके शवों से चम्बल की खारें भर गईं। इरविन तथा नत्थनसिंह नामक आधुनिक लेखकों ने लिखा है कि एक भी मुगल सैनिक, जाटों की लूट से नहीं बच सका।
जजाऊ के युद्ध के बाद जब मुअज्जमशाह विजयी हुआ और बहादुरशाह के नाम से बादशाह बना तो उसने चूड़ामन जाट को अपने दरबार में बुलाया। बहादुरशाह ने अपने विरोधियों एवं शत्रुओं के प्रति एक विशेष प्रकार की नीति अपनाई थी। इस नीति के अनुसार वह अपने विरोधियों को अपने पक्ष में आने का अवसर देता था ताकि वे मित्र बनकर रहें।
इसी नीति के तहत बहादुरशाह ने चूड़ामन जाट को आगरा के लाल किले में बुलाया। उसने चूड़ामन को 1500 जात तथा 500 सवार का मनसब देकर शाही नौकरी में रख लिया। इस प्रकार लाल किले ने पहली बार जाटों के समक्ष घुटने टेक दिए। चूड़ामन साधारण किसान का बेटा था किंतु अब वह राजाओं-महाराजाओं की श्रेणी में 1500 जात का मनसबदार बन गया था।
जब बहादुरशाह ने सवाई जयसिंह को आम्बेर राज्य से हटाया तो बहादुरशाह ने चूड़ामन जाट को आम्बेर राज्य के विरुद्ध कार्यवाही करने के लिए नियुक्त किया। बाद में जब मुगल बादशाह कमजोर पड़ गए तो चूड़ामन ने आम्बेर नरेश जयसिंह से समझौता करके उत्तर भारत की राजनीति में जाटों के प्रभाव को और अधिक बढ़ा दिया।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता