वीर दुर्गादास राठौड़ ने औरंगजेब के पौत्र बुलंद अख्तर एवं पौत्री शहजादी सफियतुन्निसा औरंगजेब को लौटा दिए। इससे औरंगजेब दुर्गादास से प्रसन्न तो हुआ किंतु औरंगजेब ने राठौड़ों को उनका राज्य लौटाने से मना कर दिया। वह राठौड़ों को बिना कोई राज्य दिए अपनी नौकरी में रखना चाहता था। यह बात राठौड़ों को पसंद नहीं आई।
पाठकों को स्मरण होगा कि औरंगजेब के चौथे पुत्र अकबर ने ई.1681 में अपने पिता से विद्रोह किया था किंतु दौराई के मैदान में असफल हो जाने के बाद वह राजपूतों के संरक्षण में मराठा शासक शंभाजी की शरण में चला आया था।
जब औरंगजेब अकबर तथा शंभाजी के विरुद्ध कार्यवाही करने के लिए स्वयं दक्खिन में आकर बैठ गया तो ई.1686 में अकबर भारत छोड़कर ईरान भाग गया था।
अकबर के दो पुत्र तथा दो पुत्रियां थीं। जब अकबर भारत छोड़कर ईरान भागा तो उसके चारों बच्चे भारत में ही छूट गए। इनमें से एक पुत्र नेकूसियर तथा एक पुत्री आगरा के लाल किले में निवास कर रहे औरंगजेब के हरम में थे तथा एक पुत्र बुलंद अख्तर एवं एक पुत्री शहजादी सफियतुन्निसा राजपूतों के पास थे एवं वीर दुर्गादास के संरक्षण में मारवाड़ में निवास कर रहे थे ताकि औरंगजेब उन्हें पकड़ न सके।
जब अकबर ईरान भाग गया तो औरंगजेब ने अकबर के परिवार के बारे में पता करवाया। औरंगजेब के गुप्तचरों ने औरंगजेब को जानकारी दी कि अकबर की एक बेगम अपने दो बच्चों के साथ वीर दुर्गादास के संरक्षण में जोधपुर के आसपास किसी अज्ञात स्थान पर निवास कर रही है। इस पर औरंगजेब ने जोधपुर के सूबेदार शुजात खाँ को आदेश भिजवाए कि वह किसी भी कीमत पर अकबर के परिवार को हासिल करे।
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शुजात खाँ ने मारवाड़ में बहुत से स्थानों पर छापे मारे किंतु वह अकबर के परिवार का पता नहीं लगा सका। इस पर औरंगजेब ने शुजात खाँ को लिखा कि या तो शहजादे के परिवार को ढूंढ कर लाए, या राठौड़ों से समझौता करके अकबर के परिवार को प्राप्त करे और यदि तुझसे कुछ भी न हो सके तो हाथों में चूड़ियां पहनकर मेरे समक्ष उपस्थित हो।
बादशाह की इस चिट्ठी के मिलते ही शुजात खाँ ने दुर्गादास से समझौता करने के प्रयास आरम्भ किए। उसने ईश्वरदास नागर के माध्यम से वीर दुर्गादास से इस सम्बन्ध में पत्र-व्यवहार किया। इ
स पर वीर दुर्गादास ने ईश्वरदास नागर को पत्र लिखा कि वह इस शर्त पर अकबर के परिवार को लौटा सकता है कि बादशाह औरंगजेब, अकबर की पत्नी और बच्चों को तंग न करे, राजकुमार अजीतसिंह को जोधपुर का राजा स्वीकार करे तथा भविष्य में कभी भी दुर्गादास का घर बर्बाद न करने का वचन दे। ईश्वरदास ने यह पत्र शुजात खाँ को भेज दिया तथा शुजात खाँ ने यह पत्र औरंगजेब को भेज दिया।
उस जमाने में औरंगजेब जैसा मक्कार भारत भर में नहीं था। वह अजीतसिंह को अजीतसिंह मानता ही नहीं था। इसलिए औरंगजेब ने दुर्गादास की दो बातें मान लीं किंतु स्वर्गीय महाराजा जसवंतसिंह के पुत्र अजीतसिंह को जोधपुर का राजा मानने से मना कर दिया।
औरंगजेब ने शुजात खाँ को लिखा कि दुर्गादास को स्वर्गीय महाराजा जसवंतसिंह के बराबर का मनसबदार बनाया जा सकता है। अर्थात् उसे पांच हजारी मनसब दिया जा सकता है। उस काल के मुगल-तंत्र में यह मनसब काफी बड़ा माना जाता था और केवल बड़े राजा-महाराजा और राजकुमारों को दिया जाता था।
जब दुर्गादास को बताया गया कि औरंगजेब राजकुमार अजीतसिंह की बजाय दुर्गादास को पांच हजारी मनसब देने को तैयार है तो दुर्गादास ने यह प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया तथा पुनः शुजात खाँ को पत्र लिखा कि स्वामी से पहले सेवक इस मनसब को स्वीकार नहीं कर सकता। इस पर औरंगजेब ने दुर्गादास को तीन हजारी और अजीतसिंह को डेढ़ हजारी जात तथा पांच सौ सवार का मनसब दिया। दुर्गादास तथा अजीतसिंह को मारवाड़ राज्य के कुछ परगनों की जागीरी भी दी गई।
हालांकि यह प्रस्ताव राजकुमार अजीतसिंह के लिए अपमानजनक था किंतु दुर्गादास तथा अजीतसिंह दोनों ने इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया क्योंकि इस प्रस्ताव के माध्यम से औरंगजेब ने पहली बार अजीतसिंह को न केवल स्वर्गीय महाराजा जसवंतसिंह का पुत्र स्वीकार कर लिया था अपितु उसके पैतृक राज्य के कुछ हिस्से लौटाना भी स्वीकार कर लिया था। ई.1695 में औरंगजेब ने शहजादे अकबर की बेगम को शुजात खाँ के पास भेजा। शुजात खाँ ने उसे शाही सम्मान के साथ औरंगजेब के पास दक्खिन में भेज दिया।
जब दुर्गादास ने देखा कि औरंगजेब ने अकबर की बेगम के साथ अच्छा सुलूक किया है तो ई.1696 में उसने शहजादी सफियतुन्निसा को शुजात खाँ के पास भेज दिया।
जब शहजादी को औरंगजेब के समक्ष ले जाया गया तो औरंगजेब ने उसे पढ़ने के लिए कुरान दी। शहजादी सफियतुन्निसा ने उसी समय अपने बाबा औरंगजेब को कुरान पढ़कर सुनाई। यह देखकर औरंगजेब आश्चर्यचकित रह गया। उसे तो लगता था कि बचपन से ही राजपूतों के बीच में रहने के कारण इसे कुरान पढ़नी नहीं आती होगी किंतु शहजादी ने उसे बताया कि दुर्गादास ने शहजादी को कुरान पढ़ाने के लिए अलग से शिक्षक नियुक्त कर रखा था।
मारवाड़ की कुछ ख्यातों में आए उल्लेख के अनुसार राजकुमार अजीतसिंह शहजादी सफियतुन्निसा से विवाह करना चाहता था किंतु वीर दुर्गादास ने अजीतसिंह को शहजादी सफियतुन्निसा से मिलने एवं उससे विवाह करने पर रोक लगा दी। दुर्गादास ने शहजादी को कुरान पढ़ाने का प्रबंध किया ताकि अनुकूल समय आने पर उसे फिर से मुगलिया हरम में भेजा जा सके और वहाँ शहजादी को नीचा नहीं देखना पड़े।
जब औरंगजेब ने अकबर की बेगम तथा बेटी से अच्छा व्यवहार किया तो वीर दुर्गादास पूरी तरह संतुष्ट हो गया और दो वर्ष बाद अर्थात् ई.1698 में उसने अकबर के पुत्र बुलन्द अख्तर को भी औरंगजेब के पास भेज दिया। जब शहजादे बुलंद अख्तर को उसके बाबा औरंगजेब के समक्ष प्रस्तुत किया तो शहजादे ने औरंगजेब से मारवाड़ी भाषा में बात की।
औरंगजेब तथा उसके दरबारी अमीरों को यह देखकर बहुत बड़ा धक्का लगा कि तैमूरी, चंगेजी ईरानी और तूरानी खून का वारिस मुगल शहजादा मारवाड़ी भाषा बोल रहा था, यह बात उनके लिए असहनीय थी। वे तो फारसी बोलने वाले अभिजात्य शाही लोग थे। मारवाड़ी उनके लिए जाहिलों की भाषा थी। फिर भी औरंगजेब ने अन्य शहजादों की तरह बुलंद अख्तर को भी शाही सेवा में रख लिया।
ई.1698 में दुर्गादास स्वयं भी दक्खिन में जाकर औरंगजेब से मिला। औरंगजेब ने दुर्गादास को पूरे शस्त्रों के साथ शाही दरबार में आने की अनुमति प्रदान की तथा दुर्गादास की बड़ी आवभगत की।
औरंगजेब ने दुर्गादास को राजकुमार अजीतसिंह से भी बड़ी जागीर प्रदान की तथा अनेक मूल्यवान पुरस्कार दिए। दुर्गादास ने यह सब स्वीकार कर लिया क्योंकि वह चाहता था कि किसी भी तरह औरंगजेब, मारवाड़ के वास्तविक स्वामी को उसका राज्य लौटा दे। एक सप्ताह के बाद दुर्गादास वापस मारवाड़ लौट आया।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता