औरंगजेब के दुश्मनों में छत्रसाल बुंदेला का नाम सबसे ऊपर आता है। इस छोटे से राजा ने औरंगजेब को जीवन भर युद्ध के मैदान में उलझाए रखा।
भारत के मध्य में स्थित बुंदेलखंड विंध्याचल का पहाड़ी क्षेत्र है। यह आल्हा-ऊदल जैसे वीरों की भूमि रही है। अकबर के समय रानी दुर्गावती बुंदेलखण्ड पर शासन करती थी। शाहजहाँ ने चम्पतराय बुंदेला को बुंदेलखण्ड क्षेत्र में कौंच की जागीर प्रदान की थी जिसे राजा चम्पतराय ने छोटे से राज्य में परिवर्तित कर लिया था।
आगे चलकर जब शाहजहाँ के पुत्रों में उत्तराधिकार का युद्ध हुआ तो आम्बेर नरेश मिर्जाराजा जयसिंह, जोधपुर नरेश महाराजा जसवंतसिंह आदि की तरह बुंदेला राजा चम्पतराय ने भी औरंगजेब का साथ दिया था किंतु जब औरंगजेब ने हिन्दुओं का दमन करना आरम्भ किया तो चम्पतराय औरंगजेब का विरोधी हो गया।
इस पर औरंगजेब ने अपनी सेना को चम्पतराय पर आक्रमण करने के निर्देश दिए। मुगलों की विशाल सेना के सामने राजा चम्पतराय अपनी छोटी सी सेना लेकर रणक्षेत्र में उतरा। राजा चम्पतराय की रानी लालकुंवरि भी युद्ध क्षेत्र में चंपतराय के साथ रहकर युद्ध करती थी।
जब राजा और रानी मुग़ल सेना से घिर गए और ऐसा लगने लगा कि मुगल उन्हें जीवित ही पकड़ लेंगे तो राजा चम्पतराय तथा उसकी रानी लाल कुंवरि ने अपने-अपने पेट में कटार भौंककर देह छोड़ दी। उस समय उनके दो राजकुमार अंगद राय तथा छत्रसाल जीवित थे। वे दोनों अपने मामा के पास चले गए।
कुछ समय बाद राजकुमार अंगदराय ने आम्बेर के शासक मिर्जाराजा जयसिंह के यहाँ नौकरी कर ली जबकि राजकुमार छत्रसाल बुंदेला ने अपनी स्वर्गीय माता के आभूषण बेचकर गुरु प्राणनाथ के मार्गदर्शन में 30 घुड़सवार और 347 पैदल सैनिकों की एक छोटी सी सेना तैयार की। इस सेना के भरोसे ही केवल 22 वर्ष की आयु में छत्रसाल ने अपने जीवन का पहला युद्ध लड़ा।
आरम्भ में तो छत्रसाल बुंदेला दूसरे राजाओं को अपनी सेना के साथ सेवा देता रहा किंतु बाद में उसकी सेना का विस्तार हो गया जिसमें 72 प्रमुख सरदार थे। स्त्रियों, साधु-सन्यांसियों एवं शरण में आए हुए लोगों की रक्षा करने के कारण छत्रसाल को बुंदेल खण्ड की जनता में लोकप्रियता प्राप्त हो गई।
कुछ समय बाद छत्रसाल भी मिर्जाराजा जयसिंह की सेना में शामिल हो गया। राजा छत्रसाल बुंदेला ने वसिया के युद्ध में अप्रतिम शौर्य का प्रदर्शन किया। इस युद्ध में मिली सफलता के बाद औरंगजेब ने छत्रसाल बुंदेला को राजा की मान्यता प्रदान की।
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जब औरंगजेब ने मिर्जाराजा जयसिंह की दक्खिन के मोर्चे पर नियुक्ति की तो छत्रसाल अपनी सेना के साथ दक्खिन में चला गया। वहाँ छत्रसाल ने अनेक मोर्चों पर शिवाजी की सेना के विरुद्ध युद्ध किया। धीरे-धीरे छत्रसाल को समझ में आने लगा कि मिर्जाराजा जयसिंह गलत पक्ष में है तथा शिवाजी का पक्ष ही सही है।
इसलिए ईस्वी 1668 में राजा छत्रसाल एक दिन अपनी पत्नी और मित्रों के साथ शिकार खेलने के बहाने से मुगल खेमे से निकला और चुपचाप पूना जा पहुंचा। शिवाजी नेे उसका स्वागत किया और उसे राजनीति, छद्मनीति एवं छापामार युद्ध के बारे में जानकारी दी। छत्रसाल ने शिवाजी के साथ मिलकर औरंगजेब की सेना से युद्ध करने की इच्छा व्यक्त की।
इस पर शिवाजी ने उसे सलाह दी कि वह अपनी मातृभूमि बुंदेलखण्ड लौट जाए और अपनी मातृभूमि को मुगलों से मुक्त कराए। वहाँ उसे अपने ही देश के बहुत से साथी मिल जाएंगे। छत्रसाल को यह सलाह उचित लगी। छत्रपति शिवाजी ने अपने हाथों से राजा छत्रसाल की कमर में तलवार बांधी तथा उसका तिलक किया।
इस घटना का वर्णन करते हुए भूषण ने लिखा है-
करो देस के राज छतारे, हम तुम तें कबहूं नहीं न्यारे।
दौर देस मुग़लन को मारो, दपटि दिली के दल संहारो।
तुम हो महावीर मरदाने, करि हो भूमि भोग हम जाने।
जो इतही तुमको हम राखें, तो सब सुयस हमारे भाषें।
शिवाजी से हुई भेंट के बाद राजा छत्रसाल मुगलों की नौकरी छोड़कर अपनी सेना सहित अपने पैतृक राज्य महोबा जाने का विचार करने लगा किंतु अपनी सेना को मुगलों के सैन्य-शिविर से अलग करके निकालना आसान कार्य नहीं था। अंततः ई.1670 में राजा छत्रसाल को अवसर मिल गया और वह अपनी सेना लेकर बुंदेलखण्ड चला आया। बुंदेलखण्ड आकर राजा छत्रसाल बुंदेला ने अपने सम्बन्धी राजाओं से औरंगजेब के विरुद्ध सहायता मांगी। किसी भी राजा ने छत्रसाल का समर्थन नहीं किया। दतिया नरेश शुभकरण ने छत्रसाल का सम्मान तो किया परन्तु बादशाह से बैर न करने की सलाह दी। ओरछा नरेश सुजान सिंह ने राजा छत्रसाल का अभिषेक तो किया पर स्वयं औरंगजेब के विरुद्ध संघर्ष से अलग रहा। छत्रसाल के बड़े भाई अंगदराय ने भी छत्रसाल का साथ देना स्वीकार नहीं किया।
राजाओं से सहयोग न मिलने पर राजा छत्रसाल ने जन-साधारण से सहयोग मांगा। छत्रसाल के बचपन के साथी महाबली तेली ने छत्रसाल की सहायता की तथा उसे कुछ धन प्रदान किया जिससे छत्रसाल ने नए सिरे से अपनी सेना का गठन किया तथा ई.1671 में औरंगजेब के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी। राजा छत्रसाल ने कालिंजर का क़िला जीत लिया और मांधाता चौबे को कालिंजर का किलेदार नियुक्त किया।
औरंगज़ेब ने छत्रसाल के विरुद्ध सेना भेजी किंतु यह सेना छत्रसाल को पराजित करने में सफल नहीं हो सकी। इस पर औरंगजेब ने रणदूलह के नेतृत्व में 30 हज़ार सैनिकों की टुकड़ी छत्रसाल के पीछे भेजी। राजा छत्रसाल ने इटावा, खिमलासा, गढ़ाकोटा, धामौनी, रामगढ़, कंजिया, मडियादो, रहली, रानगिरि, शाहगढ़, वांसाकला सहित अनेक स्थानों पर मुगलों से लड़ाई लड़ी तथा बड़ी संख्या में मुगल सरदारों को बंदी बनाकर उनसे दंड वसूल किया।
मुग़ल सेनापति तहव्वर ख़ाँ, अनवर ख़ाँ, सहरूदीन तथा हमीद खाँ छत्रसाल से मार खा-खाकर बुन्देलखंड छोड़कर भाग गए। बहलोद ख़ाँ छत्रसाल के साथ हुई लड़ाई में मारा गया था। मुरादबक्श ख़ाँ, दलेह ख़ाँ, सैयद अफगन जैसे सिपहसलार भी बुन्देला वीरों से पराजित होकर दिल्लीपति की शरण में भाग गये।
औरंगजेब यह देख-देखकर हैरान होता था कि आखिर छत्रपति शिवाजी ने राजा छत्रसाल को कौनसी घुट्टी पिला दी थी कि एक साधन विहीन छोटा सा जागीरदार, मुगलों की विशाल सेना में लगातार मार लगाता जा रहा था!
जिस प्रकार सिसोदिया राजपूत अरावली पर्वत में, कचोट राजपूत कांगड़ा घाटी में तथा मराठे कोंकण में पहाड़ी क्षेत्र के बल पर मुगलों की सेना को छका रहे थे, उसी प्रकार राजा छत्रसाल ने भी विंध्याचल पर्वत का सहारा लेकर बुन्देलखंड से मुग़लों को मार भगाया।
ईस्वी 1678 में राजा छत्रसाल ने पन्ना में अपनी राजधानी स्थापित की। ई.1687 में योगीराज प्राणनाथ के निर्देशन में छत्रसाल का राज्याभिषेक किया गया। जिस प्रकार महाराणा प्रताप की सफलता में उनके मंत्री भामाशाह का और छत्रपति शिवाजी की सफलता में समर्थ गुरु रामदास का हाथ था, उसी प्रकार राजा छत्रसाल की सफलता में उसके गुरु प्राणनाथ का बहुत बड़ी प्रेरणा काम कर रही थी।
पन्ना में आज भी गुरु प्राणनाथ की समाधि बनी हुई है। स्थानीय लोगों में मान्यता है कि गुरु प्राणनाथ ने इस अंचल को रत्नगर्भा होने का वरदान दिया था। इस कारण जहाँ तक छत्रसाल के घोड़े की टापों के पदचाप बनी, वह धरा धनधान्य से परिपूर्ण एवं रत्नों से सम्पन्न हो गयी।
छत्रसाल के विशाल राज्य के विस्तार के बारे में यह पंक्तियाँ कही जाती हैं-
इत यमुना उत नर्मदा इत चंबल उत टोंस
छत्रसाल सों लरन की रही न काहू हौंस !
औरंगजेब तो ई.1707 में छत्रसाल का दमन करने की अधूरी इच्छा के साथ मर गया किंतु राजा छत्रसाल बुंदेला ई.1731 तक मातृभूमि की सेवा करता रहा। उस समय छत्रसाल की आयु 83 वर्ष थी किंतु वह तब भी मुगलों से संघर्ष कर रहा था। अपने जीवन काल में उसने 52 लड़ाइयां लड़ी थीं।
छत्रसाल बुंदेला के राज्य में चित्रकूट, पन्ना, कालपी, सागर, दमोह, झाँसी, हमीरपुर, जालौन, बाँदा, जबलपुर, नरसिंहपुर, होशंगाबाद, मण्डला, शिवपुरी, कटेरा, पिछोर, कोलारस, भिण्ड और मोण्डेर के परगने शामिल थे।
छत्रसाल के लिए यह कहावत प्रसिद्ध थी –
छत्ता तेरे राज में, धक-धक धरती होय।
जित-जित घोड़ा मुख करे, तित-तित फत्ते होय।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता