औरंगजेब ने जब शिवाजी को लाल किले में सिंहगर्जना करते हुए सुना तो उसे अमरसिंह राठौड़ की याद आ गई। औरंगजेब ने अमरसिंह राठौड़ को भी लाल किले में ऐसी ही गर्जना करते हुए देखा था। अमरसिंह राठौड़ की गर्जना से से भी लाल किले की दीवारें इसी प्रकार कांपने लगी थीं।
औरंगजेब के हरम की औरतें भले ही शिवाजी को प्राणदण्ड दिए जाने के लिए एक सुर से हाय-तौबा कर रही थीं किंतु शिवाजी की सिंहगर्जना से औरंगजेब बुरी तरह से सहम गया था। वह तो स्वयं ही चाहता था कि किसी तरह शिवाजी को मार डाला जाए किंतु आम्बेर के कच्छवाहे शिवाजी को अपने संरक्षण की गारण्टी पर आगरा लाए थे इसलिए औरंगजेब को पूरा विश्वास था कि यदि औरंगजेब ने शिवाजी को मारने की चेष्टा की तो कुंअर रामसिंह उसी समय विद्रोह कर देगा।
इतना ही नहीं, उस के साथ समस्त कच्छवाहे, राठौड़, भाटी और चौहान शासक भी औरंगजेब के प्रबल शत्रु बन जाएंगे जबकि सिसोदिए, जाट, मराठे और सतनामी तो पहले से ही औरंगजेब के लिए भारी मुसीबत बने हुए थे!
औरंगजेब वह दिन भूल नहीं पाता था जब नागौर के राव अमरसिंह राठौड़ ने औरंगजेब के पिता शाहजहाँ की आंखों के सामने ही भरे दरबार में बादशाह के बख्शी सलावत खाँ को मार डाला था और अमरसिंह राठौड़ की गर्जना लाल ने किले की दीवारों को कंपा दिया था।
वह सारा दृश्य औरंगजेब की आंखों के सामने एक बार फिर से घूम गया। औरंगजेब के पिता शाहजहाँ के शासन-काल में जोधपुर के महाराजा गजसिंह ने अपने छोटे कुंअर जसवंतसिंह को जोधपुर राज्य का उत्तराधिकारी घोषित किया। इस पर बड़ा कुंअर अमरसिंह राठौड़ अपने पिता गजसिंह से नाराज होकर शाहजहाँ के पास नौकरी मांगने के लिए आया।
कुंअर अमरसिंह के बाबा जोधपुर नरेश सूरसिंह की बहिन जगत गुसाइन शाहजहाँ की माँ थी। इस नाते शाहजहाँ, अमरसिंह को निकट से जानता था और उसकी वीरता का कायल था। इसलिए शाहजहाँ ने अमरसिंह को अपनी सेवा में रख लिया तथा उसे जोधपुर राज्य का नागौर परगना स्वतंत्र राज्य के रूप में दे दिया। शाहजहाँ ने अमरसिंह को राव की उपाधि भी दी।
अमरसिंह के राज्य नागौर के उत्तर में बीकानेर का मरुस्थलीय राज्य था, वह भी ई.1488 में जोधपुर राज्य के राजकुमार बीका द्वारा स्थापित किया गया था। इस प्रकार जोधपुर, नागौर एवं बीकानेर के राज्य एक ही राजकुल के राजकुमारों द्वारा स्थापित किए गए थे।
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ईस्वी 1631 में बीकानेर के पुराने राजा सूरतसिंह का निधन हो गया और उसका पुत्र कर्णसिंह बीकानेर राज्य का स्वामी हुआ। महाराजा कर्णसिंह अपने युग की विभूति था और उसमें हिन्दू नरेशों के सभी उच्च आदर्श देखे जा सकते थे। वह उस काल के भारत के महान राजाओं में गिने जाने योग्य था किंतु परिस्थतियों के वशीभूत होकर उसे मुगल बादशाह की सेवा करनी पड़ी थी।
उन दिनों नागौर और बीकानेर राज्यों की सीमा पर बीकानेर राज्य का जाखणिया नामक गांव स्थित था। ई.1644 में इस गांव के एक किसान के खेत में एक छोटी सी घटना घटित हुई जिसने इतना विकराल रूप ले लिया कि उसकी आंच शाहजहाँ के दरबार तक जा पहुंची।
हुआ यह कि बीकानेर राज्य के जाखणिया गांव के एक किसान के खेत में मतीरे की बेल लगी। मतीरा एक रेगिस्तानी फल है जो देखने में तरबूज जैसा होता है। यह बेल फैलकर नागौर राज्य की सीमा में चली गयी और फल भी उधर ही लगे। जब बीकानेर राज्य का किसान अपनी बेल के फल लेने के लिये नागौर राज्य की सीमा वाले खेत में गया तो नागौर की तरफ के किसान ने कहा कि फल हमारे राज्य की सीमा में लगे हैं अतः उन पर हमारा अधिकार है।
इस बात पर दोनों किसानों में झगड़ा हो गया। बात राज्याधिकारियों तक पहुंची और दोनों राज्यों के अधिकारियों में भी झगड़ा हो गया। इस झगड़े में तलवारें चलीं जिससे नागौर राज्य के कई सिपाही मारे गये। उन दिनों नागौर नरेश अमरसिंह राठौड़ तथा बीकानेर नरेश कर्णसिंह दोनों ही शाहजहाँ के दरबार में थे। दोनों राज्यों के अधिकारियों ने अपने-अपने राजा को इस घटना की जानकारी भिजवाई।
अमरसिंह ने अपने आदमियों से कहलवाया कि वे सेना लेकर जाएं तथा जाखणिया गांव पर अधिकार कर लें। नागौर की सेना द्वारा ऐसा ही किया गया तथा बीकानेर की सेना के कई सिपाही मारे गए।
जब यह बात बीकानेर नरेश कर्णसिंह को ज्ञात हुई तो उसने अपने दीवान मुहता जसवंत को नागौर पर हमला करने के लिये भेजा। अमरसिंह के सेनापति केसरीसिंह ने बीकानेर की सेना का सामना किया किंतु बीकानेर की सेना भारी पड़ी और नागौर की तरफ के कई सिपाही मारे गये। बीकानेर के विशाल राज्य की सेना के सामने नागौर की छोटी सी सेना परास्त हो गई।
बीकानेर नरेश कर्णसिंह ने शाहजहाँ को जाखणिया गांव में हुई घटना एवं उसके बाद हुए युद्ध की सारी बात बता दी। राव अमरसिंह राठौड़ ने भी बादशाह से मिलकर उसे सारी बात बतानी चाही तथा उससे छुट्टी लेकर नागौर जाना चाहा। इसलिए अमरसिंह ने बादशाह के बख्शी सलावत खाँ से कहा कि वह अमरसिंह की बादशाह सलामत से बात करवाए किंतु बादशाह ने बख्शी को पहले ही संकेत कर दिया था कि वह अमरसिंह को बादशाह से मिलने नहीं दे।
जब कई दिनों तक बख्शी ने अमरसिंह की बात बादशाह से नहीं करवाई तो अमरसिंह ने एक दिन बख्शी से अनुमति लिए बिना ही, बादशाह को मुजरा कर दिया। इस पर बख्शी सलावत खाँ ने अमरसिंह को गंवार कहकर उसकी भर्त्सना की। राव अमरसिंह बहुत स्वाभिमानी व्यक्ति था, वह अपना अपमान सहन नहीं कर सका, इसलिए उसने क्रुद्ध होकर उसी समय अपनी कटार निकाली और बख्शी सलावत खाँ को बादशाह के सामने ही मार डाला।
शाही सिपाहियों ने उसी समय अमरसिंह को घेर लिया। जब अमरसिंह ने देखा कि वह चारों तरफ मुस्लिम सैनिकों से घिर गया है तो उसने दरबार में भयंकर सिंह-गर्जना की जिसे सुनकर अमरसिंह के अंगरक्षक भी तलवार सूंतकर अपने स्वामी की सहायता के लिए आ गए।
देखते ही देखते दोनों तरफ से तलवारें चलने लगीं और शाही सैनिक कट-कट कर फर्श पर गिरने लगे। शाहजहाँ की आंखों के सामने उसके अपने दरबार में इतनी बड़ी घटना के अचानक घटित होे जाने पर शाहजहाँ सकते में आ गया। उसने स्वप्न में भी इस दृश्य की कल्पना नहीं की थी कि राजपूत उसके दरबार में तलवार निकाल कर खड़े हो जाएंगे!
मुगलिया सल्तनत तो इन्हीं राजपूतों के बल पर टिकी हुई थी। आज वही तलवारें सूंतकर बादशाह के आदमियों की गर्दनें काट रहे थे। थोड़ी ही देर में आगरा का लाल किला मुगलों एवं राजपूतों के खून से नहा गया। अमरसिंह तथा उसके अंगरक्षक तलवार चलाते हुए बादशाह के सामने से सही-सलामत निकल गए किंतु तब तक दरबार के बाहर तैनात मुगल सिपाही, भीतर हो रहे शोर को सुनकर दरबार में आ गए और उन्होंने दरबार से बाहर निकल चुके अमरसिंह और उसके अंगरक्षकों को एक पतले गलियारे में रोककर मार दिया।
अमरसिंह राठौड़ की गर्जना के समय औरंगजेब 26 साल का युवक था और संयोगवश अपने पिता के दरबार में उपस्थित था। उसने इस दृश्य को अपनी आंखों से देखा था। आज जब मराठों के राजा छत्रपति शिवाजी ने औरंगजेब के दरबार में सिंह-गर्जना की तो औरंगजेब को वह समस्त दृश्य स्मरण हो आया।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता