यह महाराजा जसवंतसिंह का उपकार ही था कि छत्रपति शिवाजी रात के अंधेरे में शाइस्ता खाँ के पुत्र का सिर काट कर मुगल शिविर से सुरक्षित निकल गए।
जब वीर मराठे अपने राजा शिवाजी के नेतृत्व में औरंगजेब के ममेरे भाई अबुल फतह का कटा हुआ सिर लेकर भाग रहे थे तब मार्ग में मारवाड़ नरेश जसवंतसिंह का सैन्य शिविर पड़ा। इस शिविर में राजपूतों का कड़ा पहरा था। इन पहरेदारों ने शिवाजी के सैंकड़ों सिपाहियों को अपने शिविर के सामने से भागते हुए देखा किंतु महाराजा जसवंतसिंह की तरफ से कोई हलचल नहीं की गई।
महाराजा की सेना की तरफ से ऐसा दिखाने का प्रयास किया गया कि राजपूत शिविर के सिपाहियों को शिवाजी द्वारा की गई कार्यवाही के बारे में कुछ भी पता नहीं चला किंतु मुगल अधिकारियों का यह मानना था कि औरंगजेब से नाराज जसवंतसिंह और उसके सिपाहियों ने जानबूझ कर शिवाजी को अपने शिविर के सामने से सुरक्षित निकल जाने का अवसर दिया।
उन दिनों पूरे देश में यह प्रचलित हो गया था कि शिवाजी के इस कार्य में महाराजा जसवंतसिंह की प्रेरणा काम कर रही थी क्योंकि शाइस्ता खाँ ने औरंगजेब से शिकायत करके धरमत के युद्ध के बाद महाराजा जसवंतसिंह को पदच्युत करवाया था। समकालीन लेखक भीमसेन ने लिखा है- ‘केवल ईश्वर जानता है कि सत्य क्या है!’
शिवाजी द्वारा जिस प्रकार अफजल खाँ की हत्या की गई और पूना के लाल महल में घुसकर जो ताण्डव किया गया, उससे लाल किले की नींद हराम हो गई। लाल किले के लिए शिवाजी किसी रहस्यमयी शक्ति से कम नहीं रह गए थे जो कहीं भी, कभी भी पहुंच कर कुछ भी कर सकते थे।
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औरंगजेब शाइस्ता खाँ की इस असफलता पर बहुत क्रोधित हुआ और उसे अपने डेरे-डण्डे उठाकर बंगाल जाने के निर्देश दिए। शाइस्ता खाँ भी यहाँ रुकना हितकर न समझकर, चुपचाप बंगाल के लिए रवाना हो गया। उसके लिए तो यही अच्छा था कि औरंगजेब ने उसे कंदहार के मोर्चे पर नहीं भेजा था। शाइस्ता खाँ कंदहार की सर्दी और पहाड़ की चढ़ाइयों से बहुत डरता था।
शाइस्ता खाँ के साथ-साथ महाराजा जसवंतसिंह के विरुद्ध भी कार्यवाही की जानी अपेक्षित थी किंतु उनके विरुद्ध कोई कार्यवाही नहीं की गई। औरंगजेब जानता था कि महाराजा जानबूझ कर शिवाजी के विरुद्ध कार्यवाही नहीं कर रहा था। इसलिए उसने महाराजा को वहीं पर नियुक्त रखा ताकि यदि जसवंतसिंह शिवाजी को नहीं मारे तो एक दिन शिवाजी ही जसवंतसिंह को मार डाले और औरंगजेब को इन दो प्रबल हिन्दू शक्तियों में से किसी एक से छुटकारा मिल सके।
नवम्बर 1663 में महाराजा जसवंतसिंह के नेतृत्व में शिवाजी के प्रसिद्ध दुर्ग सिंहगढ़ पर आक्रमण हुआ। समकालीन लेखक भीमसेन ने लिखा है-
‘जसवंतसिंह ने कोंडाणा दुर्ग पर आक्रमण किया जिसे सिंहगढ़ भी कहते थे। मुगलों ने किले की दीवारों पर चढ़ने का प्रयास किया किंतु शिवाजी के सैनिकों ने उन्हें मार गिराया। बड़ी संख्या में मुगल और राजपूत सैनिकों की जानें गईं। बारूदी विस्फोट से भी बहुत से लोग मारे गए। किले को जीतना असंभव हो गया। असफलता से निराश होकर महाराजा जसवंतसिंह और राव भाऊसिंह हाड़ा ने 28 मई 1664 को किले पर से घेरा उठा लिया और औरंगाबाद लौट गए।’
औरंगजेब की जीवनी आलमगीरनामा में बड़े खेद के साथ महाराजा के विरुद्ध टिप्पणी की गई है-
‘एक भी किले पर कब्जा नहीं हो पाया। शिवाजी के विरुद्ध अभियान कठिनाई में पड़ गया और क्षीण हो गया।’
हिन्दू जाति पर महाराजा जसवंतसिंह का उपकार यहीं तक सीमित नहीं था, जब तक वे जीवित थे, तब तक औरंगजेब हिन्दू धर्म को मिटाने के लिए अपनी पूरी ताकत नहीं लगा सकता था। औरंगजेब का मानना था कि शिवाजी के प्रति केवल महाराजा जसवंतसिंह ही नहीं अपितु सभी हिन्दू राजा सहानुभूति दिखा रहे थे। आम्बेर नरेश मिर्जाराजा जयसिंह जो वर्षों से शाहजहाँ तथा औरंगजेब की सेवा करता रहा था, उसके प्रति भी औरंगजेब सशंकित था। औरंगजेब को लगता था कि मिर्जाराजा जयसिंह जानबूझ कर शिवाजी से हार जाता था।
जबकि मिर्जाराजा जयसिंह ने शिवाजी को जितनी क्षति पहुंचाई थी, उतनी क्षति शायद ही किसी अन्य मुगल सूबेदार अथवा हिन्दू राजा ने पहुंचाई थी। जयसिंह ने शिवाजी के बहुत से किले छीनकर शिवाजी को पुरंदर की संधि करने के लिए विवश कर दिया था किंतु जसवंतसिंह की बात दूसरी थी, जसवंतसिंह और औरंगजेब के बीच शुरु से ही छत्तीस का आंकड़ा था इस कारण यदि औरंगजेब जसवंतसिंह पर संदेह करता था तो इसमें कुछ भी गलत नहीं था।
शिवाजी पर किया गया महाराजा जसवंतसिंह का उपकार स्वयं महाराजा के लिए बहुत भारी पड़ा। औरंगजेब ने जसवंतसिंह के पुत्रों को छल-बल से मारा। औरंगजेब ने जसवंतसिंह को अफगानिस्तान के युद्ध में झौंक दिया तथा उसके इकलौते कुंअर पृथ्वीसिंह को दिल्ली बुला लिया।
कुछ समय बाद औरंगजेब ने कुंअर पृथ्वीसिंह को एक विषबुझी पोषाक उपहार में दी। इस पोषाक को पहनने पर 8 मई 1667 को जसवंतसिंह के कुंअर पृथ्वीसिंह की दर्दनाक मृत्यु हो गई। महाराजा जसवंतसिंह पुत्र-शोक में डूब गया। पृथ्वीसिंह के बाद राज्य का कोई उत्तराधिकारी भी नहीं था। इसलिए जसवंतसिंह के भयानक शोक का कोई पार नहीं था।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता