धरमत का युद्ध न केवल मुगलिया राजनीति का खतरनाक मोड़ सिद्ध हुआ अपितु महाराजा जसवंतसिंह के जीवन की भी अग्नि परीक्षा सिद्ध हुआ। महाराजा जसवंतसिंह की सम्पूर्ण सेना नष्ट हो गई और वह अकेला ही जीवित जोधपुर पहुंच सका! इस युद्ध ने औरंगजेब को शाही तख्त के और अधिक निकट धकेल दिया।
अगली सुबह भगवान सूर्य के क्षितिज पर प्रकट होने से पहले ही औरंगज़ेब और मुरादबक्श की सेनाओं ने नावों में बैठकर क्षिप्रा नदी पार कर ली। चूंकि महाराजा के शिविर तथा क्षिप्रा के बीच में कासिम खाँ ने शिविर लगा रखा था और महाराजा को उसकी गद्दारी के बारे में जानकारी नहीं मिल पाई थी, इसलिए महाराजा की सेनाएं औरंगजेब की सेनाओं के आगमन के सम्बन्ध में जान नहीं सकीं।
महाराजा ने जहाँ शिविर लगा रखा था, उसके ठीक पीछे धरमत गांव स्थित था। जब शाही सेना की कुछ टुकड़ियों ने धरमत गांव में घुसकर महाराजा की सेना की पीछे से घेराबंदी आरम्भ की तो भी महाराजा जसवंतसिंह के आदमियों को इस कार्यवाही का बिल्कुल भी पता नहीं चला।
इस प्रकार महाराजा और उसके राजपूत, मुगलिया राजनीति की खूनी चौसर में ऐसे स्थान पर घेर लिए गए जहाँ से न तो महाराजा जसवंतसिंह के लिए और न उसके राजपूतों के लिए बचकर निकल पाना संभव था।
देखते ही देखते दोनों पक्षों में भीषण संग्राम आरम्भ हो गया। महाराजा जसवन्तसिंह तथा उसके राजपूत बड़ी वीरता के साथ लड़े किंतु आगे से औरंगज़ेब तथा मुराद की सेना ने और पीछे से दुष्ट कासिम खाँ की शाही सेना ने महाराजा की सेना को ऐसे पीस दिया जैसे दो पाटों के बीच अनाज पीसा जाता है।
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जब महाराजा के सिपाही आगे की ओर भागने का प्रयास करते थे तो औरंगज़ेब की तोपों की मार में आ जाते थे, साथ ही धरती में दबा हुआ बारूद भी फट जाता था। इस पर भी महाराजा तथा उसके राठौड़ सरदार जी-जान लगाकर लड़ते रहे। अंत में जब महाराजा बुरी तरह घायल हो गया तथा किसी अनहोनी की आशंका होने लगी तब महाराजा के सामंत, अपने महाराजा को जबर्दस्ती युद्ध क्षेत्र से बाहर ले गए।
युद्ध आरम्भ होने से पहले, महाराजा के साथ अठारह हजार राजपूत योद्धा थे जिनमें से अब केवल छः सौ जीवित बचे थे और उनमें से भी अधिकांश घायल तथा बीमार थे। औरंगज़ेब चाहता था कि महाराजा को जीवित ही पकड़ लिया जाए किंतु महाराजा के राजपूत, महाराजा को लेकर मारवाड़ की तरफ भाग लिए।
स्थान-स्थान पर राजपूत योद्धा, मुगलों से लड़कर गाजर-मूली की तरह कटते रहे। अंत में जब महाराजा अपनी राजधानी जोधपुर पहुँचा तो उसके साथ केवल पंद्रह राजपूत सिपाही जीवित बचे थे। जब आगरा में बैठे शाहजहाँ ने ये समाचार सुने तो वह दुःख और हताशा से बेहोश हो गया।
होश आने पर उसने अपने बड़े बेटे दारा शिकोह को अपने पास बुलाया जो कहने को तो वली-ए-अहद था किंतु वास्तव में अपने साथ दस से ज्यादा आदमी लेकर राजधानी आगरा में नहीं घुस सकता था और एक रात भी लाल किले में नहीं गुजार सकता था!
बादशाह ने दारा शिकोह पर लगीं समस्त पाबंदियां हटा दीं तथा महाराजा रूपसिंह को अपनी सेवा में से हटाकर वली-ए-अहद का संरक्षक नियुक्त कर दिया।
धरमत की पराजय के समाचारों से शाही दरबार में खलबली मच गई। किसी को विश्वास नहीं होता था कि महाराजा जसवंतसिंह धरमत का युद्ध हार चुका है।
आगरा से बहुत से अमीर-उमराव भागकर औरंगजेब के खेमे में पहुंचने लगे। शहजादी जहाँआरा ने शाही प्रतिष्ठा बचाने के लिए मुराद तथा औरंगज़ेब को बादशाह की तरफ से तथा स्वयं अपनी ओर से बहुत मधुर भाषा में चिट्ठियां भेजकर उनसे समझौता करने के प्रयास किए परन्तु दोनों ही शहजादों ने न तो बादशाह की चिट्ठियों के कोई जवाब दिए और न जहाँआरा की चिट्ठियों के।
धरमत का युद्ध समाप्त होने के बाद औरंगज़ेब और मुराद की विजयी सेनाएँ धरमत से आगे बढ़ीं तो बनारस से आगरा की तरफ बढ़ रहे शहजादे सुलेमान शिकोह ने अपनी गति और तेज कर दी।
बनारस से बंगाल की तरफ बढ़ते हुए शाहशुजा को यह जानकर हैरानी हुई कि शहजादा सुलेमान शिकोह शाही सेना को लेकर ताबड़तोड़ आगरा की ओर भागा जा रहा था। शाहशुजा को लगा कि आगरा में कुछ अनहोनी हुई है। इसलिए शाहशुजा ने बंगाल की तरफ बढ़ना छोड़कर पटना में ही अपने डेरे लगा दिए।
इस पर सुलेमान शिकोह और मिर्जा राजा जयसिंह भी अपनी सेना के साथ मार्ग में ही ठहर गए, उन्हें आशंका हुई कि कहीं शाहशुजा ने अपना इरादा तो नहीं बदल लिया और वह फिर से आगरा की तरफ बढ़ने की तो नहीं सोच रहा है। इधर दारा और शाहजहाँ की बेचैनी बढ़ती जा रही थी और वह बार-बार सुलेमान को तत्काल आगरा लौटने के फरमान दोहराने लगा।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता