Thursday, November 21, 2024
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दारा शिकोह

शाहजहाँ का सबसे बड़ा पुत्र दारा शिकोह मजहबी कट्टरता से दूर रहता था और संसार के हर धर्म का आदर करता था। वह रामनामी ओढ़कर लाल किले में घूमा करता था, इस कारण वह मुल्ला-मौलवियों की नजरों में काफिर था।

6 अप्रेल 1648 को दिल्ली के लाल किले में प्रवेश करते समय शाहजहाँ 56 साल का प्रौढ़ हो चुका था किंतु उसके शरीर में अब भी बहुत जान थी। यद्यपि शाहजहाँ के हरम में कई हजार औरतें निवास करती थीं किंतु शाहजहाँ इतना विलासी था कि उसके हरम में नित नई औरतों का आना-जाना लगा रहता था।

शाहजहाँ ने अपने कई अमीर-उमरावों और सेनानायकों के परिवारों की औरतों को अपने हरम में बुलाकर उन्हें खराब किया था। इस कारण कुछ औरतों ने तो आत्म-हत्याएं तक कर लीं। यही कारण था कि उसका हरम षड़यंत्रों से भरा हुआ था। शाहजहाँ के अपने परिवार में कोई उससे प्रेम नहीं करता था। सल्तनत के बहुत से अमीर एवं सेनापति भी बादशाह के खून के प्यासे थे।

शाहजहाँ के हरम में हजारों औरतें थीं किंतु घोषित रूप से शाहजहाँ की केवल नौ बेगमें थीं। इन बेगमों से शाहजहाँ को ढेर सारी औलादें हुई थीं, इतिहास तो अब उनके नाम भी नहीं जानता। शाहजहाँ की मुख्य बेगम मुमताजमहल थी जो शाहजहाँ की तीसरी पत्नी थी। वह केवल 19 वर्ष की आयु में शाहजहाँ से ब्याही गई। ई.1631 में 38 वर्ष की आयु में शाहजहाँ की 14वीं संतान को जन्म देते समय मुमताजमहल की मृत्यु हुई।

पिछली तीन कड़ियों में आप देख चुके हैं कि फरगना और समरकंद के शासक बाबर ने अपने राज्य से हाथ धोने के बाद भारत पर आक्रमण करके आगरा को अपनी राजधानी बनाया। उसके चौथे वंशज शाहजहां ने अपने बाप-दादों द्वारा एकत्र की गई अकूत सम्पदा का उपयोग करके दिल्ली में यमुना के किनारे, लाल किले का निर्माण करवाया।

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मुगल शहजादों में उत्तराधिकार का कोई नियम नहीं था। बादशाह के बूढ़ा होते ही मुगल शहजादे एक दूसरे की हत्या करने में जुट जाते थे तथा अंत में जो शहजादा जीवित बचता था, वह मुगल तख्त का अधिकारी होता था। हमायूं के बाद मुगल शहजादियों के विवाह की परम्परा समाप्त कर दी गई थी जिसके कारण मुगल शहजादियों ने भी इस खूनी खेल में भाग लेना आरम्भ कर दिया था।

जब शाहजहां के बीमार पड़ने की सूचना सल्तनत में फैली तो शाहजहां के चारों शहजादे मुगलिया तख्त पाने के लिए एक दूसरे का खून बहाने को तैयार हो गए।

शाहजहां का तीसरा शहजादा औरंगजेब भले ही इस समय लाल किले से हजारों किलोमीटर दूर दक्षिण के भयानक मोर्चों पर मुगलिया सल्तन के शत्रुओं से जूझ रहा था किंतु उसे लगता था कि लाल किले का अगला वारिस केवल और केवल औरंगजेब ही हो सकता है।

जब औरंगजेब ने सुना कि बादशाह ने दारा शिकोह को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया है तो वह समझ गया कि लाल किला पाने की राह इतनी आसान नहीं रहने वाली है तथा शाहजहां के इस कदम से लाल किला औरंगजेब की पहुंच से बहुत दूर हो गया है।

बहिन रौशनआरा द्वारा लाल किले से भेजी गई इस सूचना से औरंगजेब परेशान हो तो हुआ किंतु वह जल्दी से हार मानने वाला नहीं था।

औरंगजेब न केवल लाल किले का मालिक बनना चाहता था अपितु बड़े भाई दारा शिकोह के कारण मुगलिया राजनीति जिस दिशा में चल पड़ी थी, औरंगजेब उस दिशा का मुंह भी मोड़ना चाहता था।

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औरंगजेब की दृष्टि में दारा शिकोह एक काफिर था और इस्लाम का अपराधी था। वह न केवल शियाओं को, मुगलिया दरबार में बढ़ावा दे रहा था अपितु हिन्दुओं को भी गले लगा रहा था। इस कारण बहुत से शिया और हिन्दू सरदार मुगल दरबार में बड़ा रुतबा पा गए थे। औरंगजेब महसूस करता था कि शाहजहां ने अपने बड़े पुत्र दारा शिकोह को उसी दिन से अपने तीनों शहजादों की तुलना में अधिक महत्व दिया था जिस दिन से शाहजहां ने अपने भाइयों और चाचाओं को मार कर मुगलिया तख्त पर अधिकार किया था।

अपनी ताजपोशी के दिन शाहजहां ने दारा शिकोह को 60,000 जात एवं 40,000 सवार का मनसब दिया था जबकि दूसरे एवं तीसरे नम्बर के पुत्र शाहशुजा एवं औरंगजेब को केवल 20,000 जात एवं 15,000 सवार का तथा चौथे शहजादे मुरादबक्श को केवल 15,000 जात एवं 12,000 सवार का मनसब दिया था।  मुगल दरबार में अमीर, उमराव, शहजादे और सूबेदार की अपनी कोई पहचान नहीं थी। उसकी पहचान केवल मनसब के सवारों और जात से होती थी।

जिसके पास जितने अधिक सवार और जितनी अधिक जात का मनसब था, वह अमीर, उमराव, शहजादा और सूबेदार उतने ही बड़े कद और इज्जत का मालिक था।

औरंगजेब को यह पसंद नहीं आया था कि उसका बाप शाहजहां, किसी भी शहजादे को औरंगजेब से अधिक मनसब प्रदान करे। इसलिए औरंगजेब उसी दिन से मन ही मन अपने बड़े भाई दाराशिकोह का दुश्मन हो गया।

जब तख्त पर बैठने के कुछ दिन बाद शाहजहां ने दारा शिकोह को दिल्ली में रखा और औरंगजेब सहित अपने तीनों छोटे शहजादों को पूर्व, पश्चिम और दक्षिण के दूरस्थ मोर्चों पर रवाना कर दिया तब तो औरंगजेब बुरी तरह से तिलमिला गया।

उसे लगा कि उसके अपने बाप की सल्तनत में उसकी हैसियत दूसरे सूबेदारों से अधिक नहीं है। जबकि दूसरी ओर दारा का रुतबा हर साल बढ़ता रहा। ई.1633 में दारा को वली अहद अर्थात् युवराज बनाया गया।

दारा को ई.1645 में इलाहाबाद का, ई.1647 में लाहौर का और ई.1649 में गुजरात का शासक बनाया गया।

दारा के दुर्भाग्य से ई.1653 में दारा कंधार में एक बड़ी लड़ाई हार गया। इस पराजय से दारा की प्रतिष्ठा को बड़ा धक्का पहुँचा। तीनों छोट भाइयों और उनकी पक्षधर शहजादियों ने दारा के विरुद्ध शाहजहां के कान भरे, फिर भी शाहजहाँ दारा को अपने वारिस के रूप में देखता रहा।

ई. 1657 में शाहजहाँ के बीमार पड़ने की सूचना मिलते ही दक्षिण में नियुक्त औरंगजेब और मालवा में नियुक्त मुरादबक्श ने अपने बड़े भाई दारा को काफ़ि़र घोषित किया।

इस आरोप ने मुगलिया सल्तनत के बड़े सुन्नी अमीरों का ध्यान आकर्षित किया। उन्हें मुगलों के अगले वारिस के रूप में दारा के स्थान मुराद तथा औरंगजेब, अधिक अच्छे लगे।

दारा शिकोह अपने जन्म के समय से ही कट्टर सुन्नी मुसलमानों की आंखों में खटकता था। क्योंकि शाहजहां ने उसके जन्म के लिए अजमेर जाकर, ख़्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती के मज़ार पर मन्नत मांगी थी। शाहजहां मानता था कि दारा शिकोह का जन्म ख़्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की कृपा से ही हुआ था।

दारा स्वयं भी अपनी साधारण जीवन शैली के कारण, शहजादा कम और फ़क़ीर अधिक दिखता था। जीवन की शुरुआत में उसकी रुचि ख़्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती के कादरिया सम्प्रदाय में हुई बाद में वह हिन्दू धर्म के निकट आया और हिन्दू धर्म में अनुरक्त होता चला गया।

हालांकि दारा नियमित रूप से नमाज पढ़ता था किंतु उसका झुकाव सूफियों की ओर अधिक था। अपने परदादा अकबर की तरह वह भी दुनिया के सभी धर्मों की वास्तविकता का पता लगाना चाहता था।

इसलिए जिज्ञासु दारा ने सूफियों तथा हिन्दू विद्वानों से भी उतना ही सम्पर्क रखा जितना कि वह मुसलमान उलेमाओं और दरवेशों से रखता था।

दारा अपने समय का प्रतिभाशाली लेखक था। उसने कई किताबें लिखीं जिनमें सूफी संतों के जीवन चरित्र पर लिखी गई उसकी दो पुस्तकें- ‘सफ़ीनात अल औलिया’ और ‘सकीनात अल औलिया’ अधिक प्रसिद्ध हैं। उसकी लिखी पुस्तकों- ‘रिसाला ए हकनुमा’ और ‘तारीकात ए हकीकत’ में भी सूफीवाद का दार्शनिक विवेचन किया गया है।

उसके कविता संग्रह ‘अक्सीर ए आज़म’ से सभी धर्मों के प्रति उसके आदर भाव का बोध होता है। ‘हसनात अल आरिफीन’ और ‘मुकालम ए बाबालाल ओ दाराशिकोह’ नामक ग्रंथों में उसने धर्म और वैराग्य का विवेचन किया है।

‘मजमा अल बहरेन’ दारा शिकोह का सर्वाधिक चर्चित ग्रंथ है जिसमें वेदान्त और सूफीवाद के शास्त्रीय शब्दों का तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया गया है। उसने हिन्दुओं के 52 उपनिषदों का फारसी में अनुवाद करके ‘सीर-ए-अकबर’ अर्थात् ‘सबसे बड़ा रहस्य’ नामक ग्रंथ तैयार किया।

इन ग्रंथों के कारण कट्टर उलेमाओं और मौलवियों को दारा के खिलाफ जहर उगने का मौका मिल गया। वली ए अहद होने के कारण कोई उसके मुंह पर तो कुछ नहीं कहता था किंतु ये लोग दारा तथा उसके समर्थकों की पीठ के पीछे, उसे काफिर कहने में संकोच नहीं करते थे।

दारा की विभिन्न कृतियों से ज्ञात होता है कि दारा, हिंदू दर्शन और पुराणों से बहुत प्रभावित था। ईश्वर का वैश्विक पक्ष, द्रव्य में आत्मा का अवतरण और निर्माण तथा संहार का चक्र जैसे सिद्धांतों के मामले में तो वह हिन्दू धर्म के एकदम निकट ठहरता है। दारा का विश्वास था कि वेदांत और इस्लाम में सत्यान्वेषण के सम्बन्ध में केवल शाब्दिक अंतर है।

‘मज्म उल बहरैन’ नामक ग्रंथ में दारा शिकोह ने वेदांत तथा सूफिज्म का तुलनात्मक अध्ययन करके इस्लामिक जगत में खलबली मचा दी थी। इस ग्रंथ ने सूफ़िज्म ओर वेदांत दर्शन में मौजूद अनके समानताओं का रहस्योद्घाटन किया।

यह पुस्तक ई.1654-55 में एक संक्षिप्त ग्रंथ के रूप में फारसी भाषा में लिखी गई थी। इसके हिंदी संस्करण को ‘समुद्र संगम ग्रंथ’ कहा जाता है।

जब दारा शिकोह ने घोषित किया कि जिस प्रकार कुरान में एक ईश्वर का अस्तित्व स्वीकार किया गया है, उसी प्रकार वेदों में एक ईश्वर की सत्ता स्वीकार की गई है। इसलिए इन दोनों धर्मों में कोई अंतर नहीं है तो सारे मुल्ला, मौलवी, उलेमा और नजूमी, दारा के दुश्मन हो गए। वे काफिरों की पुस्तकों की तुलना कुरान शरीफ से होते हुए नहीं देख सकते थे।

कुछ कट्टर आलोचकों ने लिखा है कि कई बार दारा शिकोह, रामनामी ओढ़कर सार्वजनिक स्थलों पर दिखाई देता था। उसने अपनी शाही मुहर में भी राम नाम अंकित करवा लिया था। दारा के ये लक्षण देखकर मुल्ला-मौलवी कांप उठते थे।

स्वयं को इस्लाम के ठेकेदार समझने वाले मुल्लाओं को डर था कि यदि आम मुसलमान ने दारा की बातों को स्वीकार कर लिया तो भारत में इस्लाम का प्रचार रुक जाएगा।

मुहम्मद काजिम नामक एक लेखक ने अपने ग्रंथ ‘आलमगीरनामा’ में  दारा शिकोह को ‘वेशिकोह’ अर्थात् बिना इज्जत वाला लिखा है।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

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