तख्त पर बैठने के कुछ दिन बाद सुल्तान मुहम्मद बिन तुगलक ने गंगा-यमुना के दोआब क्षेत्र में भू-राजस्व करों में वृद्धि की। किसानों पर भूमि कर के अतिरिक्त ‘घरी’ अर्थात गृहकर तथा ‘चरही’ अर्थात् चरागाह कर भी लगाया गया।
तत्कालीन मुस्लिम लेखक जियाउद्दीन बरनी के अनुसार बढ़ा हुआ कर, प्रचलित करों का दस से बीस गुना था। हालांकि यह बात बिल्कुल भी समझ में नहीं आती। मुस्लिम सुल्तान पहले से ही किसानों से आधी उपज कर के रूप में लिया करते थे, अतः उसका दस या बीस गुना कैसे लिया जा सकता है?
अंग्रेजों ने लिखा है कि किसानों पर कर पहले से दो गुने कर दिए गए थे। यह बात भी समझ में नहीं आती। यदि किसानों से उनकी पूरी फसल छीन ली जाती थी तो किसान जीवित कैसे बच सकते थे!
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कुछ मुस्लिम इतिहासकारों के अनुसार भू-राजस्व करों में वृद्धि एक बटा दस या एक बटा बीस कर ली गई थी। यह बात भी समझ में नहीं आती क्योंकि यदि कर में 5 प्रतिशत या 20 प्रतिशत की वृद्धि की गई होती तो किसान अपने घरों को छोड़कर नहीं भागते तथा उतने बड़े स्तर पर विद्रोह नहीं हुआ होता, जितने बड़े स्तर पर हुआ था।
अतः केवल इतना ही कहा जा सकता है कि किसानों पर कर पहले की अपेक्षा बढ़ा दिए गए थे। पहले से ही विपन्नता भोग रहे किसानों को इन करों से बड़ा कष्ट हुआ। दुर्भाग्य से उन्हीं दिनों दो-आब के क्षेत्र में भयानक अकाल पड़ गया और खेतों में उपज बहुत कम हुई।
जब सुल्तान के सैनिकों ने किसानों से कर-वसूलने में कठोरता की तो चारों ओर विद्रोह की अग्नि भड़क उठी। शाही सेनाओं ने विद्रोहियों को कठोर दण्ड दिये। इस पर दो-आबे के किसान खेती-बाड़ी छोड़कर जंगलों में भाग गये।
खेत वीरान हो गये और गांवों में सन्नाटा छा गया। शाही सेना ने लोगों को जंगलों से पकड़कर उन्हें कठोर यातनाएं दीं तथा उन्हें मजबूर किया कि वे खेतों को फिर से बोएं।
इन यातनाओं से बहुत से किसान मर गए। जब ये बातें सुल्तान तक पहुंचीं तो सुल्तान ने प्रजा की सहायता के लिए कुछ व्यवस्थाएँ करवाईं परन्तु तब तक प्रजा का सर्वनाश हो चुका था।
इस कारण किसान, सुल्तान की उदारता से कोई लाभ नहीं उठा सके।
इतिहासकारों ने मुहम्मद बिन तुगलक द्वारा गंगा-यमुना के दो-आब क्षेत्र में की गई कर वृद्धि के अलग-अलग कारण बताये हैं-
सोलहवीं शताब्दी के अकबर-कालीन कट्टर-मुस्लिम उलेमा बदायूनीं का कहना है कि यह अतिरिक्त कर दो-आबे की विद्रोही प्रजा को दण्ड देने तथा उस पर नियन्त्रण रखने के लिए लगाया गया था। सर हेग ने भी इस मत का अनुमोदन किया है।
अंग्रेज इतिहासकार गार्डनर ब्राउन का कहना है कि दोआब साम्राज्य का सबसे अधिक धनी तथा समृद्धिशाली भाग था। इसलिये इस भाग से साधारण दर से अधिक कर वसूला जा सकता था।
अधिकांश मुस्लिम लेखकों का मानना है कि दोआब का कर, शासन-प्रबन्ध को सुधारने के विचार से बढ़ाया गया था। जबकि आधुनिक इतिहासकारों का कहना है कि सुल्तान ने अपने रिक्त-कोष की पूर्ति के लिए दोआब पर अतिरिक्त कर लगाया था।
इस प्रकार गंगा-यमुना के दोआबे में भू-राजस्व करों में वृद्धि की यह योजना सफल नहीं हुई। इस योजना के असफल हो जाने के कई कारण थे।
पहला कारण यह था कि प्रजा बढ़े हुए करों को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थी। यह स्वाभाविक ही था क्योंकि किसानों की आर्थिक स्थिति पहले से ही खराब थी तथा कोई भी व्यक्ति अधिक कर देना पसन्द नहीं करता।
दूसरा कारण यह था कि इन्हीं दिनों दोआब में अकाल पड़ गया था, जनता बढ़े हुए कर को चुका ही नहीं सकती थी।
तीसरा कारण यह था कि सरकारी कर्मचारी और सिपाही किसानों की फसल का आकलन करने में बेईमानी करते थे तथा किसान की उपज का अधिकांश भाग छीन लेते थे।
सरकारी कर्मचारी अनाज की दो ढेरियां बनाते थे, एक बहुत बड़ी और एक छोटी। वे इन दोनों ढेरियों को बराबर का बताते तथा बड़ी वाली ढेरी हड़प लेते।
तत्कालीन मुस्लिम लेखक जियाउद्दीन बरनी ने मुहम्मद बिन तुगलक की कर नीति की कटु आलोचना की है। जबकि यह तो कर्मचारियों की बेईमानी का मामला था।
कुछ इतिहासकारों ने जियाउद्दीन बरनी की आलोचना पर आक्षेप लगाये हैं कि बरनी उलेमा वर्ग का था जिसके साथ सुल्तान की बिल्कुल भी सहानुभूति नहीं थी। इसलिये सुल्तान की निन्दा करना बरनी के लिए स्वाभाविक ही था।
बरनी स्वयं भी दो-आबे के बरान क्षेत्र का रहने वाला था और बरान के लोगों को भी को भी दोआब के कर का शिकार बनना पड़ा था। इसलिये बरनी में सुल्तान के विरुद्ध कटुता का होना स्वाभाविक था।
बरनी द्वारा की गई कटु आलोचना बिल्कुल निर्मूल भी नहीं कही जा सकती। अकाल के समय की गई करों में वृद्धि को किसी भी प्रकार उचित नहीं ठहराया जा सकता है।
अंग्रेज लेखक गार्डन ब्राउन ने मुहम्मद बिन तुगलक को बिल्कुल निर्दाेष सिद्ध करने का प्रयत्न किया है और प्रजा की हालत खराब होने का सारा दोष अकाल पर डाला है किंतु गार्डन ब्राउन का तर्क कई कारणों से स्वीकार नहीं किया जा सकता।
यदि गार्डन ब्राउन की बात सही है कि किसानों की हालत अकाल के कारण खराब हुई थी, तो सुल्तान को, अकाल आरम्भ होते ही अतिरिक्त कर हटा देने चाहिए थे और प्रजा की सहायता करनी चाहिए थी।
सुल्तान को शाही कर्मचारियों पर भी पूरा नियन्त्रण रखना चाहिए था।
जबकि सुल्तान ने यह सब बहुत विलम्ब से किया। इसलिये सुल्तान को उसके उत्तरदायित्व से मुक्त नहीं किया जा सकता।
वास्तविकता यह है कि सुल्तान को अपनी विशाल सेनाओं के वेतन के लिए अपार धन की आवश्यकता थी जिसकी पूर्ति किसी न किसी को लूट कर ही की जा सकती थी।
चाहे वह भारत के हिन्दू राजाओं को लूटे या फिर अपने राज्य में रह रही हिन्दू प्रजा को! और सुल्तान ने यही किया।
अगली कड़ी में देखिए- मुहम्मद बिन तुगलक दिल्ली के कुत्ते-बिल्लियों और भिखारियों को पकड़कर दौलताबाद ले गया!