हमने इस धारावाहिक की पिछली कुछ कड़ियों में कश्यप ऋषि का उल्लेख किया है। कश्यप, ब्रह्माजी के पुत्र प्रजापति मरीचि के पुत्र थे। वे अत्यंत ज्ञानी थे। उनकी बहुत सारी पत्नियां थीं जिनमें से 17 पत्नियां तो प्रजापति दक्ष की पुत्रियां थीं। माना जाता है कि इस धरती पर जितने भी प्राणी हैं, वे कश्यप ऋषि तथा उनकी पत्नियों की संतान हैं।
ऐसे महापराक्रमी, महाज्ञानी तथा महातपस्वी कश्यप को भी एक बार शाप झेलना पड़ा ओर उस शाप के कारण धरती पर जन्म लेकर ना-ना प्रकार के कष्ट उठाने पड़े। इस कड़ी में हम कश्यप ऋषि के शापग्रस्त होने की कथा की चर्चा करेंगे।
एक बार ऋषि कश्यप ने अपने आश्रम में एक विशाल यज्ञ का आयोजन करवाया तथा अनेक महाज्ञानी ऋषियों को यज्ञ सम्पन्न करने के लिए अपने आश्रम में बुलाया। यज्ञ में आहुति देने के लिए ऋषि को विपुल यज्ञ सामग्री, दूध एवं घी आदि की आवश्यकता थी। इस व्यवस्था के लिए कश्यप ऋषि ने वरुण देव का आह्वान किया।
वरुण देव के प्रकट होने पर कश्यप ने उनसे प्रार्थना की- ‘मुझे ऐसा वरदान दीजिए कि मेरे द्वारा आयोजित होने वाले वाले इस यज्ञ में यज्ञ-सामग्री का कभी अभाव न हो तथा यह यज्ञ भली-भांति सम्पन्न हो जाए।’
वरुण देव ने ऋषि को एक दिव्य गाय भेंट की और कहा- ‘यह गाय आपके यज्ञ हेतु आवश्यक समस्त सामग्री की पूर्ति करेगी। यज्ञ समाप्ति के बाद आप इसे पुनः मुझे लौटा दीजिएगा। अन्यथा मैं इस गाय को वापस लेने के लिए आऊंगा।’ कश्यप ऋषि वरुण देव से वरदान एवं दिव्य गौ प्राप्त करके बहुत प्रसन्न हुए।
कश्यप ऋषि का यज्ञ बहुत लम्बे समय तक चलता रहा। वरुण देव द्वारा दी गई गाय के प्रभाव से उनके यज्ञ में कभी भी बाधा नहीं आई। यज्ञ में प्रयुक्त होने वाली सामग्री का स्वतः प्रबन्ध होता रहा। जब यज्ञ सम्पन्न हुआ तो ऋषि कश्यप के मन में उस दिव्य गौ को लेकर लालच उत्पन्न हो गया। उन्होंने गौ को अपने पास रख लिया।
यज्ञ सम्पूर्ण होने के कई दिनों बाद तक जब ऋषि कश्यप गाय को वापस लौटाने वरुण देव के पास नहीं आए तो एक दिन वरुण देव उनके समक्ष प्रकट हुए तथा बोले- ‘हे मुनिवर, मैंने आपको यह दिव्य गौ यज्ञ सम्पन्न करने के लिए दी थी। अब आपका उद्देश्य पूर्ण हो चुका है। यह दिव्य गौ स्वर्ग की सम्पत्ति है, अतः इसे वापस लौटा दें।’
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तब ऋषि कश्यप ने वरुण देव से कहा- ‘हे वरुण देव! ब्राह्मण को दान में दी गई वस्तु को कभी उससे नहीं मांगना चाहिए अन्यथा वह व्यक्ति पाप का भागी बनता है। अब यह गाय मेरे संरक्षण में है। अतः मैं इसकी देख-भाल भलीभांति करूंगा।’
वरुण देव ने ऋषि को अनेक प्रकार से समझाने का प्रयास किया कि वे इस दिव्य गौ को पृथ्वी पर नहीं छोड़ सकते परन्तु ऋषि कश्यप ने वरुण देव की एक न सुनी। अंत में वरुण देव प्रजापति ब्रह्माजी के पास ब्रह्मलोक गए। वरुण देव ने उन्हें सारी बात बताई। इस पर ब्रह्मदेव पृथ्वीलोक में ऋषि कश्यप के समक्ष प्रकट हुए।
ब्रह्मदेव ने ऋषि कश्यप को समझाया- ‘आप क्यों लोभ में पड़कर अपने समस्त पुण्य नष्ट कर रहे हैं? आप जैसे महान ऋषि को यह शोभा नही देता!’
ब्रह्माजी के बहुत समझाने पर भी ऋषि कश्यप पर कोई प्रभाव नही पड़ा और वे अपने निर्णय पर अडिग रहे। ऋषि कश्यप के इस तरह के व्यवहार से ब्रह्माजी क्रोधित हो गए तथा उन्होंने कश्यप ऋषि को श्राप देते हुए कहा- ‘तुम इस गाय के लोभ में पड़कर अपनी विचार-क्षमता क्षमता खो चुके हो। अतः तुम अपने अंश से पृथ्वी लोक में गौ-पालक के रूप में जन्म लो और गाय की सेवा करो!’
प्रजापति ब्रह्मा के मुख से श्राप सुनकर ऋषि कश्यप को अत्यंत पश्चाताप हुआ और वे अपनी त्रुटि के लिए पितामह ब्रह्माजी तथा वरुण देव से क्षमा मांगने लगे। जब ब्रह्माजी का क्रोध शांत हुआ तो उन्हें भी इस बात पर पश्चाताप हुआ कि क्रोध में आकर उन्होंने महातपस्वी कश्यप ऋषि को श्राप दे दिया।
पितामह ब्रह्मा ने अपने पौत्र कश्यप से कहा- ‘तुम अपने अंश से यदुकुल में उत्पन्न होओगे तथा वहाँ गायों की सेवा करोगे। गौ-सेवा के पुण्य से स्वयं भगवान विष्णु तुम्हारे पुत्र के रूप में जन्म लेंगे।’
इस श्राप के प्रभाव से ऋषि कश्यप ने वसुदेव के रूप में पृथ्वी पर जन्म लिया और उन्हें भगवान विष्णु के अवतार श्रीकृण का पिता बनने का सौभाग्य मिला। कश्यप की पत्नी अदिति को भी, अपनी बहिन दिति के गर्भ को इंद्र के हाथों नष्ट करवाने का प्रयास करने के कारण दिति द्वारा श्राप दिया गया था। इसलिए ऋषि कश्यप जब धरती पर वसुदेव के रूप में जन्मे, तब उनकी पत्नी अदिति देवकी के रूप में और दिति रोहिणी के रूप में उत्पन्न र्हुईं। देवकी का विवाह वसुदेव से हुआ जबकि रोहिणी का विवाह गोपराज नंद से हुआ।
जब देवकी और वसुदेव का विवाह हुआ तो आकाशवाणी हुई कि देवकी का पुत्र कंस का वध करेगा। इसलिए भाई कंस ने देवकी तथा उसके पति वसुदेव को कारागार में बंद कर दिया तथा एक-एक करके देवकी के सात पुत्रों की कारागार में ही हत्या कर दी। वसुदेव एवं देवकी के उद्धार के लिए भगवान श्रीहरि विष्णु ने देवकी के आठवें पुत्र के रूप में श्रीकृष्ण के नाम से अवतार लिया और उन्होंने अत्याचारी कंस का वध किया।
ऋशि कश्यप के सम्बन्ध में विविध धर्म-ग्रंथों में थोड़े-बहुत अंतरों के साथ और भी कथाएं मिलती हैं। एक ग्रंथ में आई कथा के अनुसार जब भगवान परशुराम ने धरती को क्षत्रिय-विहीन किया तब उन्होंने समस्त पृथ्वी अपने गुरु कश्यप मुनि को दान कर दी थी। तब कश्यप मुनि ने परशुराम से कहा- ‘अब तुम मेरे देश में मत रहो।’ परशुराम गुरु की आज्ञा का पालन करने के लिए महेंद्र पर्वत पर जाकर रहने लगे।
एक अन्य पौराणिक कथा के अनुसार एक बार महर्षि कश्यप के पुत्र सूर्य ने माली एवं सुमाली नामक राक्षसों को मार दिया। इस पर भगवान शिव ने सूर्य को मार दिया। इससे रुष्ट होकर ऋषि कश्यप ने भगवान शिव को श्राप दिया कि जिस प्रकार आपने मेरे पुत्र को मारा है, उसी प्रकार आपके पुत्र का भी सिर कटेगा। देवताओं के आग्रह पर भगवान शिव ने सूर्य को वापस जीवित कर दिया। महर्षि कश्यप द्वारा दिए गए श्राप के कारण आगे चलकर भगवान शिव ने अपने पुत्र गणेश का सिर काट कर उन्हें फिर से जीवित कर दिया।