Sunday, December 22, 2024
spot_img

34. यूरोप में लोकतांत्रिक विचारों का उदय

भाप के इंजन का आविष्कार

अठारहवीं शताब्दी के आरम्भ में ई.1712 में इंग्लैण्ड में भाप के ऐसे इंजन का आविष्कार हो गया जो तरह-तरह की मशीनें को लगातार ऊर्जा दे सकता था। इन मशीनों के आगमन ने मजदूरों को अपने भविष्य एवं भाग्य पर नए सिरे से सोचने पर विवश किया। देशों की अर्थव्यवस्थाएं बदलने लगीं और लोगों के रहन-सहन में बदलाव आने लगा।

विगत अठारह सौ सालों में विश्व

हमने पिछले अध्याय में चर्चा की थी कि कैथोलिक धर्म के विरुद्ध प्रोटेस्टेण्ट सम्प्रदाय के उठ खड़े होने के बाद इंग्लैण्ड के राजा हेनरी (अष्टम्) ने रोम तथा पोप से सम्बन्ध पूरी तरह तोड़ लिए थे तथा हेनरी ने स्वयं को ईसाई-संघ का अध्यक्ष घोषित कर दिया था। उसके बाद इंग्लैण्ड में धर्म केवल सरकारी कार्यालय के रूप में चलने लगा था और लोगों के दिमागों से धर्म का अंकुश कम हो गया था। यही कारण था कि इंग्लैण्ड में बड़ी मशीनों के आविष्कार का रास्ता सबसे पहले खुला और इंग्लैण्ड ने ही यूरोप में औद्योगिक क्रांति को जन्म दिया।

इस क्रांति का महत्त्व इस बात से समझा जा सकता है कि जूलियस सीजर के युग से लेकर अठारहवीं सदी के आरम्भ तक पूरी दुनिया में लोगों के आवागमन का मुख्य साधन घोड़ा एवं बग्घी ही बने हुए थे। जूलियस सीजर के समय से लेकर अठारहवीं सदी के आगमन तक यूरोप के लोगों के धर्म भले ही तेजी से बदल गए थे किंतु उनके सोचने का तरीका अठारहवीं सदी में भी वही था जो जूलियस सीजर के समय में था।

TO PURCHASE THIS BOOK, PLEASE CLICK THIS PHOTO

लोगों की आर्थिक परिस्थितियाँ भी वही थीं और लोगों पर शासन करने के तरीके भी वही थे। कहने का अर्थ यह कि विगत अठारह सौ सालों में दुनिया बहुत कम बदली थी किंतु भाप का इंजन न केवल दुनिया के भौतिक स्वरूप को बदलने वाला था अपितु दुनिया के लोगों के दिमागों में भी भारी परिवर्तन करने वाला था। यूरोप के निर्धन एंव मध्यमवर्गीय लोग धर्म की बजाय समृद्धि, उत्पादन, वाणिज्य एवं विज्ञान के बारे में सोचने लगे थे। लोग शिक्षा एवं स्वास्थ्य के बारे में सोचने लगे थे। अब उन्हें राजा की जगह प्रजा का राज्य चाहिए था।

दार्शनिकों एवं लेखकों की लहर

यूरोप के जन-साधारण के चिंतन में आए इस परिवर्तन में केवल मशीनों की ही भूमिका नहीं थी, अपितु अठारहवी शताब्दी के यूरोप में दार्शनिकों, ंिचंतकों एवं लेखकों की एक लहर सी उत्पन्न हो गई थी जिसने लोकतांत्रिक विचारों के आगमन की गति को तेज कर दिया।

प्लूमे वाल्टेयर

फ्रांसीसी इतिहासकार एवं दार्शनिक प्लूमे वॉल्टेयर ने अठारहवीं शताब्दी में पुरानी राजनीतिक एवं धार्मिक मान्यताओं को चुनौती देते हुए उनके विरोध में यूरोपीय समाज के समक्ष अनेक नए विचार रखे। वह अपने समय के बुद्धिमान व्यक्तियों में से गिना जाता था। उसने ईसाईयत तथा रोमन कैथोलिक चर्च की कड़ी आलोचना की तथा धर्म की स्वतंत्रता, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और चर्च को शासन से अलग करने का समर्थन किया।

 उसके विचारों ने यूरोपियन सभ्यता को बहुत गहराई तक प्रभावित किया। 5 जनवरी 1767 को रूस के राजा फैड्रिक (द्वितीय) को लिखे एक पत्र में वॉल्टेयर ने लिखा- ‘हमारा धर्म (ईसाईयत) निश्चित रूप से संसार में आज तक हुए धर्मों में अत्यंत हास्यास्पद, अत्यधिक बेतुका तथा अत्यधिक रक्त-रंजित है। आप इस धर्म के अंध-विश्वासों को समाप्त करके मानवता पर शाश्वत उपकार कर सकते हैं। मैं भीड़ में अपनी बात नहीं कहता जो उपदेश दिए जाने योग्य नहीं है, तथा जो हर तरह से गुलामी के उपयुक्त है। मैं अपनी बात ईमानदार लोगों के बीच कहता हूँ जो सोचने-समझने की इच्छा रखते हैं।’  

वॉल्टेयर ने बाइबिल की एडम और ईव की कहानी को अस्वीकार करते हुए बहुजननिक सिद्धांत का प्रतिपादन किया जिसके अनुसार प्रत्येक मनुष्य-प्रजाति का उद्भव पूरी तरह से अलग-अलग हुआ। इस प्रकार वॉल्टेयर के समय से लोग बाइबिल पर टिप्पणियां एवं सहमतियां-असहमतियां व्यक्त करने की हिम्मत करने लगे। इससे भी लोगों में स्वतंत्रता सम्बन्धी विचारों को बढ़ावा मिला।

वाल्टेयर को बंदी बना लिया गया तथा उसे फ्रांस से बाहर निकाल दिया गया। वाल्टेयर जिनेवा के पास फर्नी में जाकर रहने लगा। जेल में उसे कागज, पैन और स्याही उपलब्ध नहीं कराई गई। इसलिए उसने पुस्तकों की लाइनों के बीच में सीसे के टुकड़ों से कविताएं लिखीं। वाल्टेयर को अन्याय और कट्टरपन से सख्त नफरत थी। जनता के नाम उसका संदेश था- ‘इन बदनाम चीजों को नष्ट कर दो।’  वह ई.1778 तक जीवित रहा।

जीन जैक्यूज रूसो

वॉल्टेयर के काल में जिनेवा में रूसो नामक एक शिक्षा-शास्त्री हुआ। उसने धर्म और राजनीति पर इतने उत्तेजक लेख लिखे कि सम्पूर्ण यूरोप में रूसो की धूम मच गई। उसके विचारों ने फ्रांस की राज्य-क्रांति के लिए प्रेरक तत्व का कार्य किया। लोगों के दिमाग में क्रांति की आग सुलग उठी। उसकी सबसे विख्यात पुस्तक ‘सोशियल कॉण्ट्रेक्ट’ है जिसमें कहा गया है कि– ‘मनुष्य जन्म से मुक्त है किंतु वह सब स्थानों पर जंजीरों में जकड़ा हुआ है।’

गिबन

अठारहवीं सदी में ही गिबन नामक एक अंग्रेज लेखक हुआ जिसने ‘डिक्लाइन एण्ड फॉल ऑफ रोमन एम्पायर’ नामक ग्रंथ लिखा। इस ग्रंथ ने कैथोलिक इतिहास की कड़वी सच्चाई लोगों के सामने रखी।

मान्टेस्क्यू

फ्रांस में मान्टेस्क्यू नामक चिंतक हुआ जिसने ‘एस्पिरिट डेस लोइस’ नामक ग्रंथ लिखा।

एडम स्मिथ

 ई.1776 में इंग्लैण्ड में एडम स्मिथ की पुस्तक ‘वैल्थ ऑफ नेशन्स’ प्रकाशित हुई। यह अर्थशास्त्र की पुस्तक थी किंतु इसने लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था की आवश्यकता एवं उसके सामाजिक सौन्दर्य पर प्रकाश डाला। इस पुस्तक को चौथी शताब्दी ईस्वी पूर्व के भारतीय लेखक कौटिल्य द्वारा लिखी गई ‘अर्थशास्त्र’ की तरह ‘राजनीतिक अर्थशास्त्र’ की पुस्तक कहा जाता है।

इसमें देशों की अर्थव्यवस्था को चलाने वाले नैसर्गिक नियमों की व्याख्या की गई है तथा देश के भीतर ऐसी अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देने का समर्थन किया गया है जिससे उद्योगों का विकास हो, अधिक से अधिक लोगों को रोजगार मिले तथा प्रजा को भुखमरी, निर्धनता एवं अभावों से छुटकारा मिले।

यद्यपि इस पुस्तक का लोकतंत्र से कोई प्रत्यक्ष सम्बन्ध नहीं था तथापि इस प्रकार के विचारों के सामने आने से लोगों को यह सोचने पर विवश होना पड़ा कि देश को धार्मिक मान्यताओं से जकड़ी हुई शासन व्यवस्था से बाहर निकालकर अर्थशास्त्रीय शासन व्यवस्था भी दी जा सकती है। उन्हीं दिनों अमरीका एवं फ्रांस की क्रांतियों ने यूरोप में लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था के प्रति प्यास बढ़ा दी।

थॉमस पेन

अठारहवीं सदी में थॉमस पेन नामक एक प्रभावशाली अंग्रेज लेखक पैदा हुआ। उसने अमरीका के स्वाधीनता संग्राम (ई.1775-83) में, कुछ समय के लिए अमरीका में रहकर अमरीकियों की सहायता भी की। ई.1783 में अमरीका के स्वतंत्र होने के बाद वह इंग्लैण्ड लौट आया। उस समय फ्रांस में क्रांति आरम्भ हो चुकी थी।

थॉमस पेन ने ई.1791 में फ्रांसीसी क्रांति के समर्थन में ‘दी राइट्स ऑफ मैन’ नामक पुस्तक लिखी जिसमें उसने राजशाही पर तीखा हमला बोला तथा लोकशाही शासन व्यवस्था का प्रबल समर्थन किया। अंग्रेज सरकार ने उसे राजद्रोही घोषित कर दिया, वह भाग कर फ्रांस चला गया। वहाँ उसे लुई (सोलहवें) की हत्या का विरोध करने के कारण बंदी बना लिया गया।

पेरिस के बंदीगृह में रहते हुए ई.1794 में उसने ‘द एज ऑफ रीजन’ (तर्क का युग) नामक एक और पुस्तक लिखी। इस पुस्तक में उसने शासन के धार्मिक दृष्टिकोण की आलोचना की। इस पुस्तक को कई देशों में प्रकाशित किया गया। इस पुस्तक को यूरोप में मनुष्य जाति के लिए अत्यंत खतरनाक माना गया।

क्योंकि अधिकतर सरकारों को लगता था कि शासन के लिए धर्म का होना अत्यंत आवश्यक है। जनता को धर्म का भय दिखाकर ही अनुशासन में रखा जा सकता है। यदि शासन में धर्म का समावेश नहीं हुआ तो प्रजा निरंकुश और विद्रोही हो जाएगी। इसलिए कई देशों में इस पुस्तक के प्रकाशकों को जेल भेज दिया गया। अंग्रेज कवि शेली उन दिनों जीवित था। उसने इंग्लैण्ड में इस पुस्तक के प्रकाशक को जेल भेजने वाले जज को पत्र लिखकर उसके निर्णय की आलोचना की।

ऑगस्ट कौण्ट

उन्हीं दिनों फ्रांस में ऑगस्ट कौण्ट (ई.1798-1857) नामक विचारक हुआ। उसने कहा कि पुराने धर्म-शास्त्रवाद और कट्टरपंथी धर्म का युग चला गया है किंतु संसार को किसी न किसी धर्म की आवश्यकता है।

इसलिए उसने ‘रिलीजन ऑफ ह्यूमैनिटी’ (मानव-धर्म) की कल्पना की तथा उसका नाम ‘पॉजिटिविज्म’ (धनात्मकवाद) रखा। इस धर्म के आधारभूत तत्व प्रेम, व्यवस्था और प्रगति रखे गए। इस धर्म का आधार ‘अलौकिकता’ न होकर ‘विज्ञान’ था। इस धर्म को शायद ही किसी ने अपनाया किंतु इस धर्म की कल्पना का प्रभाव लगभग सम्पूर्ण यूरोप पर पड़ा। लोगों के मन से धार्मिक रूढ़ियों का भय जाता रहा और वे अब सामाजिक व्यवस्था को वृहत्तर परिप्रेक्ष्य में दखने लगे।

जॉन स्टुअर्ट मिल

कौण्ट के समय में ही जॉन स्टुअर्ट मिल नामक एक अंग्रेज चिंतक हुआ जिसने इंग्लैण्ड में पहले से ही पनप रहे उपयोगितावाद (यूटिलिटिज्म) के सिद्धांत को लोकप्रिय बनाने का काम किया। इस सिद्धांत का वैचारिक आधार ‘अधिकतम लोगों को अधिकतम सुख’ में निहित था। इस सिद्धांत के अनुसार भलाई-बुराई की केवल यही एकमात्र कसौटी थी, जिस काम से जितने अधिक लोगों को सुख मिले, वह काम उतना ही अधिक अच्छा है।

इस सिद्धांत के लोकप्रिय हो जाने के बाद यूरोपीय देशों में धर्म से लेकर समाज एवं सरकारों को इसी कसौटी पर परखा जाने लगा। इस प्रकार यूरोप के देशों में जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में बौद्धिक उद्वेलन एवं वैचारिक मंथन का युग आ पहुँचा और उन्नीसवीं सदी के आरम्भ में पूरा यूरोप ही जैसे राजशाही और लोकशाही के विचारों के अन्तर्द्वन्द्व में फंस गया। कुछ देशों में राजशाहियां गिर गईं और लोकशाही का प्राकट्य होने लगा। लोगों को मताधिकार दिए जाने लगे।

राजतंत्र एवं लोकतंत्र में मनुष्य के अधिकारों में अंतर

यद्यपि लोकतंत्र सभी मनुष्यों को जीवन जीने के समान अधिकार देने वाली व्यवस्था का नाम है तथापि उसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि वह मनुष्य की बौद्धिक एवं शारीरिक क्षमताओं के अंतर को नहीं देख पाता।

निरंकुश-तंत्र और लोक-तंत्र दोनों ही मनुष्य की बौद्धिक एवं शारीरिक क्षमताओं के अंतर को देखते एवं जानते हैं किंतु निरंकुश-शासन-तंत्र एवं लोकतंत्र में आधारभूत अंतर यह है कि निरंकुश शासन तंत्र कम-बौद्धिक एवं कम-शारीरिक-क्षमताओं के आधार पर मनुष्य की स्वतंत्रता को बाधित कर देता है जबकि लोकतंत्र समस्त अधिक एवं कम शारीरिक एवं बौद्धिक क्षमताओं वाले लोगों को जीवन यापन के एक जैसे आधारभूत अधिकार प्रदान करता है।

लोकतांत्रिक व्यवस्था में मनुष्यों में आर्थिक एवं शैक्षणिक अंतर बना रहता है किंतु उनकी राजनीतिक एवं सामाजिक हैसियत कम या ज्यादा नहीं आंकी जाती। उदाहरण के लिए मताधिकार की शक्ति। लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था में निर्धन एवं धनी, शिक्षित एवं अशिक्षित, शारीरिक रूप से बलिष्ठ एवं विकलांग, स्त्री एवं पुरुष सभी प्रकार के व्यक्तियों को एक ही वोट देने का अधिकार होता है।

इस प्रकार समस्त नागरिकों के दिमाग का औसत, यह तय करता है कि उनका शासक कौन होगा! अठारहवीं एवं उन्नीसवीं सदी का यूरोपीय समुदाय लोकतंत्र एवं मनुष्यों की समानता के विचारों से बहुत दूर था, हालांकि उसके लिए पिछले कई सौ सालों से आवाजें उठ रही थीं किंतु अब समय आ गया था जब लोकतंत्र के लिए आवाजें और तेज हो जाएं।

लोकतंत्र से निराशा

उन्नीसवीं शताब्दी आते-आते लोकतंत्र की मांग तेज होने लगी तथा उन्नीसवीं शताब्दी के अंत तक कई यूरोपीय देशों में नागरिकों को वोट देकर पार्लियामेंट चुनने के अधिकार मिल गए। लोगों ने समझा कि अब उनका जीवन बदल जाएगा किंतु कुछ वर्षों बाद उन्हें यह देखकर हैरानी हुई कि लोकतंत्र में भी वे उतने ही निर्धन एवं बेबस हैं जितने पहले थे।

उन्हें सरकार बनाने का अधिकार मिल गया था किंतु सत्ता में भागीदारी नहीं मिली थी, प्राणांतक भूख ज्यों की त्यों मुँह बाए खड़ी थी। इसलिए उन्नीसवीं सदी के अंत तक यूरोपीय देशों में लोकतंत्र के प्रति उत्साह मंदा पड़ने लगा और लड़खड़ाती हुई राजशाहियां एक बार के लिए थम सी गईं। लोगों का ध्यान इस बात पर गया कि शासन-तंत्र कोई भी हो, यह महत्त्वपूर्ण नहीं है, अधिक महत्त्वपूर्ण यह है कि समाज में धन का बंटवारा कैसे होता है।

 जिन देशों में खराब लोकतंत्र आया था, वहाँ के खराब नेताओं ने निर्धन समाज तक धन को पहुँचने ही नहीं दिया। इस तरह समाजवाद के नए विचारों का आगमन होने लगा। विभिन्न देशों के करोड़ों औद्योगिक-मजदूर जानलेवा शोर करने वाली मशीनों, कारखानों के गंदे परिवेश एवं कोयले की खानों की गर्मी से छुटकारा चाहते थे, पेट भरने को निवाला, और काम के घण्टों में अनुशासन चाहते थे न कि लोकशाही।

ये ऐसी सुविधाएं थीं जिन्हें वे राजशाही के भीतर रहकर भी प्राप्त कर सकते थे। बशर्ते कि राजा अच्छा हो, राजकीय कर्मचारी संविधान से बंधे हुए हों और मिल-मालिकों को कानून का भय हो। फिर भी ये सब बातें अंत में लोकशाही पर आकर पूर्णता प्राप्त करती थीं। अतः सामान्य जनता में भले ही लोकतंत्र का विचार अधिक आदर प्राप्त नहीं कर सका किंतु यूरोपीय देशों का बौद्धिक वर्ग लोकतंत्र को ही समस्त दुःखों के अंत का माध्यम समझता था।

कार्ल मार्क्स

उन्नीसवीं सदी के आरम्भ में ई.1818 में जर्मनी के यहूदी समुदाय में कार्ल मार्क्स नामक एक लेखक ने जन्म लिया। उसे अपने स्वतंत्र विचारों के कारण जर्मनी से निकाल दिया गया और वह पहले फ्रांस चला गया और वहीं रहने लगा। पेरिस में वह एंजेल्स नामक एक अन्य जर्मन के सम्पर्क में आया।

शीघ्र ही वे दोनों गहरे दोस्त बन गए। उन दोनों ने मिलकर कुछ पुस्तकें लिखीं जो यूरोप के लोगों के मस्तिष्क पर तेज रोशनी की तरह प्रभाव डालने वाली सिद्ध हुईं। इन पुस्तकों में लिखी गई बातों से नाराज होकर फ्रांस की सरकार ने भी कार्ल मार्क्स को फ्रांस से निकाल दिया, वह इंग्लैण्ड जाकर रहने लगा और वहाँ उसने एक कारखाना लगा लिया।

ई.1848 को यूरोप में क्रांतियों एवं आंदोलनों का वर्ष कहा जाता है। इनके मूल में श्रमिक आंदोलनों की प्रधानता थी। कार्ल मार्क्स ने अनुभव किया कि यूरोप की मुख्य समस्या श्रमिकों की खराब जीवन-परिस्थितियाँ हैं। यहाँ तक कि फ्रांस की क्रांति के मूल में भी यही समस्या खाद-पानी का काम कर रही है। इसलिए मार्क्स ने मजदूरों के जीवन का गहराई से अध्ययन किया।

सौभाग्य से वह स्वयं एक बड़े कारखाने का मालिक था। इसलिए उसे श्रमिकों की समस्या को समझने में अधिक समय नहीं लगा। ई.1848 में उसने एंजेल्स के साथ मिलकर एक घोषणा पत्र जारी किया जिसे साम्यवादी घोषणापत्र कहा जाता है। इसमें उस समय के स्वतंत्रता, समानता एवं भाईचारे के लोकतांत्रिक नारों की आलोचना की गई तथा कहा गया कि इनकी आड़ में शासकों एवं मिल-मालिकों द्वारा जनता एवं मजदूरों को बेवकूफ बनाकर उनका शोषण किया जा रहा है।

इस घोषणा पत्र के अंत में उन्होंने मजदूरों से अपील की- ‘संसार के मजदूरों एक हो जाओ। तुम्हें खोना कुछ नहीं है सिवाय अपनी गुलामी की जंजीरों के, और पाने को तुम्हारे सामने सारा संसार पड़ा है।’ यह अपील ही इस घोषणापत्र का सार थी।

कार्ल मार्क्स ने यूरोप के समाचार पत्रों एवं पर्चों के माध्यम से साम्यवाद का प्रचार करना आरम्भ कर दिया। इसके साथ ही वह मजदूर संगठनों को एक करने के लिए दिन-रात प्रयास करने लगा। संभवतः उसे यूरोप में कोई बड़ा संकट आता दिखाई दे रहा था और वह चाहता था कि मजदूर न केवल उस संकट के लिए तैयार रहें अपितु उस संकट से लाभ भी उठाएं।

ई.1854 में उसने न्यूयार्क के एक समाचार पत्र में लिखा- ‘फिर भी हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि यूरोप में छठी शक्ति भी है जो विशेष अवसरों पर पाँचों नामदार महान् शक्तियों पर अपनी सत्ता रखती है औ उन सबको थर्रा देती है। यह शक्ति क्रांति की है। बहुत दिन तक चुपचाप एकांतवास के बाद अब संकट और भूख इसे फिर लड़ाई के मैदान में बुला रहे हैं। केवल एक संकेत की आवश्यकता है। फिर से यूरोप की छठी और सबसे महान् शक्ति चमकता हुआ कवच पहने और हाथ में तलवार लिए हुए निकल पड़ेगी, जिस तरह ओलिम्पी के माथे से मिनर्वा प्रकट हुई थी।   यह संकेत यूरोप के शीघ्र आने वाले युद्ध से मिल जाएगा।’

कार्ल मार्क्स ने लंदन में यूरोप के समाजवादियों, मार्क्सवादियों, लोकतंत्र के लिए संघर्ष कर रहे युवकों, क्रांतिकारियों आदि का एक विशाल सम्मेलन बुलाया जिसमें इंग्लैण्ड, इटली, जर्मनी तथा स्पेन सहित कई अन्य देशों के लोग आए।

ई.1867 में मार्क्स की पुस्तक ‘दास कैपिटल’ अर्थात् ‘पूँजी’ प्रकाशित हुई। यह पुस्तक जर्मन भाषा में लिखी गई थी। इसमें यूरोप में प्रचलित तत्कालीन आर्थिक मतों का विश्लेष करके उनकी कमियां बतलाई गई थीं और अपना साम्यवादी मत विस्तार के साथ समझाया गया था।

उसने इधर-उधर की आदर्शवादी बातों को छोड़ड़कर बिना किसी लाग-लपेट के और वैज्ञानिक ढंग से इतिहास और अर्थशास्त्र के विकास की चर्चा की और मनुष्य समाज में वर्गों के क्रम-विकास, इतिहास एवं आपसी अंतर्द्वन्द्वों के बारे में दूर तक असर निकालने वाले नतीजे निकाले। मार्क्स का यह नया समाजवाद, बिल्कुल साफ और तंर्क-संगत था जिसे मार्क्स का समाजवाद, मार्क्सवाद, साम्यवाद एवं कम्यूनिज्म कहा गया।

यह उस धुंधले आदर्शवादी समाजवाद से अलग था, जो अब तक चल रहा था। इस पुस्तक ने न केवल यूरोप के लोगों की अपितु संसार भर के लोगों की बुद्धि पर प्रभाव डाला और यूरोप में साम्यवाद की जड़ें गहराई तक जाने लगीं। इसी के चलते ई.1871 में पेरिस कम्यून की हिंसक घटना हुई। यह संसार में निश्चय-पूर्वक किया गया पहला साम्यवादी विद्रोह था। इस कम्यून के बाद यूरोपीय देशों की सरकारों के मन में मजदूर संगठनों के आंदोलनों से भय बैठ गया तथा उनका रुख मजदूर-संगठनों के विरुद्ध और अधिक कठोर हो गया।

पुरुषों एवं महिलाओं में भेदभाव

उन्नीसवीं सदी में यूरोप के देशों में जब राजनीतिक आंदोलनों के बाद लोकतंत्र ने जन्म लेना आरम्भ किया तो उसके साथ बहुत से किंतु-परन्तु लगे हुए थे। उदाहरण के लिए स्त्रियों को वोट देने का अधिकार नहीं दिया गया। यूरोपीय देशों की महिलाओं एवं राजनीतिक कार्यकर्ताओं द्वारा चलाए गए जबर्दस्त आंदोलनों के बाद वोटिंग अधिकार मिलने आरम्भ हुए।

न्यूजीलैण्ड ने ई.1893 में महिलाओं को वोटिंग अधिकार दिए। उन्नीसवीं सदी में महिलाओं को मताधिकार देने वाला यह एक मात्र देश था। ऑस्ट्रेलिया ने ई.1902 में, फिनलैण्ड ने ई.1906 में, नोर्वे ने ई.1913 में, डेनमार्क एवं आइसलैण्ड ने ई.1915 में अपने देश की महिलाओं को वोटिंग अधिकार प्रदान किए। बहुत से यूरोपीय देशों ने प्रथम विश्वयुद्ध की समाप्ति के बाद इस दिशा में कदम बढ़ाया।

इंग्लैण्ड में महिलाओं के मताधिकार के लिए ई.1867 से आंदोलन आरम्भ हुआ किंतु उनकी लड़ाई लम्बी चली। ई.1918 में 30 साल एवं उससे अधिक आयु की महिलाओं को मताधिकार प्राप्त हुआ। ई.1928 में इंग्लैण्ड में महिलाओं को पुरुषों के बराबर मताधिकार दिए गए।

अमरीकी महिलाओं को ई.1920 में वोट देने के अधिकार प्राप्त हुए। स्पेन में ई.1931 में, फ्रांस ने ई.1944 में तथा इटली ने ई.1946 में अपने देश की महिलाओं को मत देने के अधिकार दिए। स्विट्जरलैण्ड ने ई.1971 में महिलाओं को मताधिकार तो प्रदान किए किंतु वहाँ आज भी पुरुषों एवं महिलाओं के मताधिकारों में अंतर है तथा वहाँ की महिलाएं इस असमानता को दूर करने के लिए आज भी संघर्ष कर रही हैं।

Related Articles

1 COMMENT

  1. Hey there! Do you know if they make any plugins to assist with Search Engine Optimization? I’m trying to get my blog to
    rank for some targeted keywords but I’m not seeing
    very good success. If you know of any please share.
    Appreciate it! You can read similar article
    here: Eco blankets

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Stay Connected

21,585FansLike
2,651FollowersFollow
0SubscribersSubscribe
- Advertisement -spot_img

Latest Articles

// disable viewing page source