Sunday, November 24, 2024
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19. महान् रोमन साम्राज्य का दुःखद अंत

रोमुलस ऑगुस्टस द्वारा पश्चिमी साम्राज्य का विभाजन

ई.474 में कुस्तुंतुनिया के सम्राट लिओ (प्रथम) ने जूलियस नीपो को रोमन साम्राज्य के सह-सम्राट के रूप में मान्यता दी तथा उसे रोम का शासक नियुक्त किया किंतु कुछ ही समय बाद जूलियस नीपो बीमार हो गया तथा इस अवसर का लाभ उठाकर ई.475 में  फ्लेवियस रोमुलस ऑगुस्टस नामक एक रोमन धनी-सामंत ने नीपो के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। नीपो किसी तरह अपने परिवार के साथ रोम से बाहर चला गया तथा उसके प्राण बच गए। रोमुलस ऑगुस्टस ने रोम तथा उसके आसपास के क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया किंतु कुछ क्षेत्र अब भी नीपो के अधिकार में बने रहे।

नए रोमन शासक रोमुलस ऑगुस्टस का पिता ओरेस्टेज, हूण-आक्रांता अतिला का सचिव रहा था। बाद में किसी समय रोमुलस, जूलियस नीपो की सेवा में आ गया था। रोमुलस ऑगुस्टस ने 31 अक्टूबर 475 से 4 सितम्बर 476 तक रोम पर शासन किया किंतु कुस्तुंतुनिया का सम्राट ई.480 तक जूलियस नीपो को ही रोम के सम्राट के रूप में मान्यता देता रहा जो अब पश्चिमी रोमन साम्राज्य के खण्डित हिस्से पर शासन करता था।

कुस्तुंतुनिया का सम्राट पश्चिमी रोमन साम्राज्य पर विदेशी बर्बर कबीलों के खतरे को भांपने में असमर्थ रहा। वह अपने अहंकार में इतना डूबा हुआ था कि उसने रोमन रक्त के सामंत रोमुलस ऑगुस्टस को रोम के सम्राट के रूप में मान्यता देना उचित नहीं समझा। इस कारण कुछ ही समय में गोथ धड़धड़ाते हुए रोम में घुस आए और उन्होंने हमेशा के लिए रोम से प्राचीन रोमन रक्त वंश के शासकों की शृंखला को सदैव के लिए नष्ट कर दिया।

ओडोवेकर द्वारा रोम पर अधिकार

ई.476 में गोथ रोम में घुस आए और उनके सेनापति फ्लेवियस ओडोवेकर (ओडोसर) ने रोमुलस ऑगुस्टस को हराकर रोम पर अधिकार कर लिया। यही प्राचीन रोमन साम्राज्य का आधिकारिक रूप से दयनीय अंत था। रोम की प्रतिष्ठा ही अब तक उसे बचाए हुए थी किंतु उसके भीतर का खोखलापन अब पूरी दुनिया के सामने आ चुका था।

ई.480 में कुस्तुंतुनिया के सम्राट लियो (प्रथम) की मृत्यु हो गई तथा उसकी जगह जेनो पूर्वी साम्राज्य का राजा बना। इस काल में रोमन साम्राज्य पूरी तरह से दो भागों में बंट गया। पश्चिमी रोमन साम्राज्य की राजधानी रोम तथा पूर्वी रोमन साम्राज्य की राजधानी कुस्तुन्तुनिया रही। रोम, इटली के प्रदेश एवं पश्चिमी यूरोप पश्चिमी रोमन साम्राज्य के अधीन रहे जबकि कुस्तुंतुनिया, यूनान, अनातोलिया तथा बैजेन्टाइन आदि क्षेत्र पूर्वी रोमन साम्राज्य के अधीन रहे। बहुत से इतिहासकार पूर्वी रोमन साम्राज्य को बैजेन्टाइन एम्पायर कहना अधिक पसंद करते हैं।

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ओडोवेकर की हत्या

फ्लेवियस ओडोवेकर ने 17 साल तक रोम को अपने अधिकार में रखा। वह एरियन ईसाई था किंतु रोम के कैथोलिक चर्च के मामलों में उसने विशेष हस्तक्षेप नहीं किया। ई.493 में पूर्वी रोमन सम्राट जेनो के आदेश से पूर्वी रोमन सम्राट के सामंत  थियोडोरिक ने इटली पर आक्रमण किया। वह भी जर्मनी के एक गोथ कबीले का मुखिया था किंतु कुस्तुंतुनिया के सम्राट जेनो का अत्यंत विश्वसनीय एवं दायाँ हाथ माना जाता था।

फ्लेवियस ओडोवेकर तथा थियाडोरिक के बीच कई युद्ध हुए। अंत में दोनों के बीच एक संधि हुई जिसके तहत दोनों ने इटली तथा प्राचीन रोमन साम्राज्य के क्षेत्र आधे-आधे बांट लिए। संधि होने के उपलक्ष्य में एक उत्सव का आयोजन किया गया।

उत्सव के दौरान थियोडोरिक ने अपनी तलवार निकाल कर ओडोवेकर का गला काट दिया। ओडोवेकर की मृत्यु हो गई तथा इटली पर थियोडोरिक का शासन हो गया। उसने इटली में ढाई लाख सैनिक नियुक्त किए तथा इटली के रवेन्ना शहर में ऑस्ट्रोगोथ वंश के राज्य की नींव रखी। थियोडोरिक ने उत्तरी इटली में छोटे-छोटे क्षेत्रों पर शासन कर रहे बर्गुण्डियन एवं वाण्डाल सरदारों की पुत्रियों से विवाह करके उन्हें अपना मित्र बना लिया। इस प्रकार महान् रोमन साम्राज्य की राजधानी रोम से पुराने रोमन शासकों का शासन समाप्त हो गया तथा विदेशी बर्बर कबीलों के राज्य की शुरुआत हुई।

महान् रोमन साम्राज्य के पतन के कारण

पाँचवीं सदी में महान् रोमन साम्राज्य का पतन हो गया। यह विश्व के सबसे विशाल साम्राज्यों में से एक था। इसका विस्तार दक्षिणी यूरोप, उत्तरी अफ्रीका और अनातोलिया तक विस्तृत हो गया था। फारस का साम्राज्य इसका प्रतिद्वंद्वी था जो फुरात नदी के पूर्व में स्थित था। रोमन साम्राज्य में अलग-अलग स्थानों पर अलग-अलग भाषाएँ बोली जाती थीं जिनमें लैटिन और यूनानी प्रमुख थीं।

रोम की पराजय के बहुत से कारण थे। सबसे बड़ा कारण रोमन राजकुमारों, राजकुमारियों, रानियों तथा सेनापतियों की हिंसक एवं स्वार्थी प्रवृत्ति थी जो किसी रोमन सम्राट को शांति से शासन नहीं करने देती थी। रोमन सेनापति एवं अंगरक्षक सेनाएं इतनी भ्रष्ट थीं कि वे किसी से भी धन लेकर अपने सम्राट की हत्या कर डालती थीं।

कोई भी व्यक्ति सम्राट की अंगरक्षक सेनाओं को उत्कोच देकर उनकी निष्ठा को क्रय कर सकता था। यही कारण था कि रोम के बहुत कम शासक ऐसे थे जो प्राकृतिक मृत्यु से मरे हों। मृत्यु और हत्या, रक्त और हिंसा रोम-वासियों के स्वभाव में प्रवेश कर गया था, इसलिए वे इन बातों को बहुत स्वाभाविक समझते थे।

रोमन सामंत तथा उनके युवा पुत्र विलासी एवं मद्यपायी होकर सेनाओं में शामिल होकर लड़ने के योग्य नहीं रह गए थे। यह काम उन्होंने अफ्रीकी तटों से पकड़े गए गुलामों पर छोड़ दिया था। धनी सामंतों के साथ ही रोम का मध्यम-वर्गीय समाज भी सरकार की तरफ से दी जाने वाली मुफ्त की रोटियां तोड़ने का आदी हो चुका था।

जबकि रोमन किसानों एवं श्रमिकों की जिंदगी इतनी बुरी थी कि उन्हें इस बात से कोई अंतर नहीं पड़ता था कि उन पर कौन शासन कर रहा है! रही बात रोमन सेनाओं की तो उनकी स्थिति तो सब से बुरी थी। सेनाओं के श्रेष्ठ सैनिक एवं सेनापति पूर्वी रोमन साम्राज्य के पास थे। पश्चिमी रोमन साम्राज्य की सेनाएं अफ्रीकी गुलाम सैनिकों एवं उत्तरी यूरोप के बर्बर कबीलाई सैनिकों से भरी पड़ी थी। उन्हें भला ऐसे जर्जर और पतनशील राज्य के लिए अपने प्राण संकट में डालने में क्या लाभ था?

इन सबका मिला-जुला परिणाम यह हुआ कि जिस रोम की तूती दुनिया भर में बोलती थी, उसकी तरफ से लड़ने के लिए कोई आगे नहीं आया। पाँचवी शताब्दी ईस्वी तक पोप भी रोम की एक बड़ी शक्ति बन चुका था किंतु वह भी महान् रोम की रक्षा नहीं कर सका। महान् रोमन साम्राज्य ध्वस्त हो गया।

रोम की अधिकांश सम्पत्ति और शक्ति एम्परर कॉन्स्टेन्टीन के साथ ही कुस्तुन्तुनिया चली गई थी। इसलिए असली रोम बहुत कमजोर हो गया था किंतु पश्चिमी रोमन साम्राज्य अपनी पुरानी और असली राजधानी रोम पर पहले की भांति गर्व करता रहा। उसे अपनी वास्तविक स्थिति का भान ही नहीं हुआ। इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि जिन लोगों को रोमवासी बर्बर कहते आए थे, अब वही बर्बर लोग, रोम में घुस गए। बर्बर लोगेों के कई कुख्यात कबीले थे जिनमें गोथ और फ्रैंक अधिक प्रबल थे।

अलेक्जैंडर डिमांट नामक इतिहासकार ने महान् रोमन साम्राज्य के पतन के अनेक कारण बताए हैं। कई इतिहासकार इसके पतन के बीज ईसा की पहली शताब्दी में देखते हैं तो कुछ का मानना है कि रोमन साम्राज्य के पतन के लक्षण तीसरी शताब्दी ईस्वी से प्रकट होने आरंभ हो गए थे। रोमन सेनाएं वाण्डाल, गॉथ, विसिगॉथ और हूण जैसे भयानक आक्रांताओं को नहीं रोक पाईं जबकि ये शक्तियां कई सौ सालों से रोम के लिए खतरा बनी हुई थीं।

रोमन सम्राट ट्राजन के शासनक काल (ई.98-117) में रोमन साम्राज्य का विस्तार अपने चरम पर पहुँचा था किंतु उसके बाद से ही साम्राज्य के क्षेत्रों का संकुचन होना आरम्भ हो गया था। ई.235-84 के बीच रोमन साम्राज्य की पूर्वी सीमाओं पर ससानिड साम्राज्य का तेजी से विस्तार हुआ तथा ससानिड सेनाओं ने रोम पर आक्रमण करने आरम्भ किए।

ई.268 से ई.270 के बीच गृहयुद्ध और प्लेग ने रोमन सेना की संख्या और कोष दोनों को कमजोर कर दिया तथा रोमन साम्राज्य गैलिक, पामेरीन और रोमन नामक तीन भागों में विभक्त हो गया। ई.274 में ऑरेलियस ने इन तीनों खण्डों को फिर से एक किया किंतु उसके बाद महान् रोमन साम्राज्य फिर से गृह-युद्ध में घिर गया तथा यह पुनः दो भागों में टूट गया।

चौथी शताब्दी ईस्वी में डियोक्लेटियन तथा कॉन्स्टेन्टीन ने रोमन साम्राज्य की एकता पुनः स्थापित की। ऑरेलियस (ई.270-75) तथा उसके बाद के रोमन शासकों ने रोम की पुरानी परम्पराओं को भुला दिया जिसमें धनी-जमींदार वर्ग को सत्ता में भागीदारी प्राप्त थी।

ऑरेलियन तथा उसके बाद के सम्राटों ने स्वयं को ‘डोमस एट डेस’ अर्थात्  ‘लॉर्ड एंड गॉड’ कहना आरम्भ कर दिया जिसके कारण राजा और प्रजा का सम्बन्ध स्वामी एवं दास जैसा हो गया। डियोक्लेटियन के शासन काल के आते-आते सम्राट और प्रजा के सीधे संम्पर्क का दौर लगभग समाप्त हो गया।

सम्राट को जनता के सुख-दुःख की सूचना अपने दरबारियों के माध्यम से मिलती थी। इस कारण शासन तंत्र में क्रूरता, करों की कठोर वसूली और भ्रष्टाचार का बोलबाला हो गया। इस कारण अब प्रजा को कोई अंतर नहीं पड़ता था कि उस पर कौन शासन कर रहा है!

रोम के धनी सीनेटर परिवार, शासकों की कमजोरी का लाभ उठाकर कराधान से मुक्त हो गए। उन का ध्यान राज्य एवं प्रजा की सेवा करने से पूरी तरह हट गया और वे धन-सम्पत्ति एवं पद प्राप्त करने के लिए षड़यंत्र रचने लगे। रोम के बड़े किसान अपने खेतों में काम करने के लिए सस्ते में खरीदे गए गुलामों का उपयोग करते थे। जब किसानों पर कर बढ़ा दिए गए तो उन्हें बड़ी संख्या में अपने गुलामों को छोड़ देना पड़ा। इस कारण रोम में बेरोजगार हब्शियों की संख्या बहुत बढ़ गयी।

मार्कस ऑरेलियस के बाद, रोमन सम्राटों ने अपने साम्राज्य का विस्तार करना बंद कर दिया था तथा महान् रोमन साम्राज्य की सीमाएं निरंतर संकुचित होती चली गईं। इस कारण साम्राज्य में स्वर्ण का उत्पादन घट गया। इस कारण रोमन-मुद्राओं में सोने की मात्रा कम कर दी गई जिससे रोमन-मुद्रा का मूल्य कम हो गया। एक तरफ राज्य की सीमाएं, राज्य का राजस्व तथा राज्य का स्वर्ण-उत्पादन घट रहा था किंतु दूसरी तरफ विशाल सैन्य-व्यय अब भी बना हुआ था तथा इटली में विशाल भवनों के निर्माण का काम रुकने का नाम नहीं ले रहा था।

इस कारण रोमन सम्राटों का कोष तेजी से रीतने लगा। ईसा की प्रारम्भिक शताब्दियों में रोमनवासी सिविल इंजीनियरिंग की दृष्टि से महान् इंजीनियर थे तथा विशाल भवनों का निर्माण करने के अभ्यस्त थे। धनी लोगों की आय का अधिकतर भाग इसी काम पर खर्च होता रहा तथा अन्य प्रकार के उद्योग-धंधे उपेक्षित कर दिए गए। इस कारण राजाओं के लिए राजस्व एवं कर संग्रहण के नए स्रोत विकसित नहीं हो सके।

ई.284 में जब डियोक्लेटियन रोम का राजा हुआ तो उसने साम्राज्य को चार महाप्रांतों में बांटकर दो ऑगस्टस एवं दो सीजर की व्यवस्था आरम्भ की तथा अगला शासक कॉन्स्टेंटीन अपनी राजधानी रोम से हटाकर बिजैन्तिया ले गया। इन निर्णयों ने रोमन साम्राज्य के विभाजन एवं पतन की गति को तेज कर दिया। सम्राट कॉन्स्टेंटीन पेगन धर्म को मानता था।

कुछ इतिहासकारों के अनुसार उसे मृत्यु-शैय्या पर जबर्दस्ती ईसाई बनाया गया था। इसके बाद ईसाई धर्म को राजकीय धर्म के रूप में मान्यता दी गई। ईसाई धर्म ने राजा के देवता होने और दैवीय शक्तियों से सम्पन्न होने आदि मान्यताओं को अस्वीकार कर दिया। इस कारण लोगों में राजा के प्रति आस्था और भी कम हो गई।

पश्चिमी रोमन साम्राज्य के लोग लैटिन भाषा बोलते थे और कैथोलिक ईसाई हो गए थे जबकि पूर्वी साम्राज्य की भाषा ग्रीक थी और वे पूर्वी ऑर्थोडॉक्स चर्च के अनुयाई हो गए थे। इसलिए साम्राज्य के दोनों भागों में दूरियां बढ़ती चली गईं। रोमन साम्राज्य के पश्चिमी भाग के पतन के बाद, पूर्वी रोमन साम्राज्य, सैकड़ों वर्षों तक बैजेन्टाइन साम्राज्य के रूप में अस्तित्व में रहा।

इसलिए महान् रोमन साम्राज्य का पतन वास्तव में साम्राज्य के पश्चिमी आधे हिस्से का विदेशी शक्तियों के हाथों में चले जाने की घटना को दर्शाता है। शेष रोमन साम्राज्य अब बैजेन्टाइन एम्पायर के रूप में जीवित था। वह भी स्वयं को रोमन साम्राज्य कहता था तथा स्वयं को उसी प्रकार महान् मानता था जिस प्रकार किसी समय अखण्ड रोमन साम्राज्य स्वयं को महान् रोमन साम्राज्य कहता था और रोम को दुनिया की स्वामिनी कहता था।

रोमन साम्राज्य के महान् होने का भ्रम

रोमवासियों द्वारा रोम को ‘संसार की स्वामिनी’ माना जाता था। रोम के लोग मानते थे कि सम्पूर्ण विश्व रोम के सीजर के अधीन है। रोमन साम्राज्य इतना बड़ा था कि राजधानी रोम के लोग मानते थे कि एक समय में दुनिया का एक ही ‘एम्परर’ हो सकता है। इसी कारण रोमन साम्राज्य को महान् रोमन साम्राज्य कहा जाता था। जबकि वास्तविकता यह थी कि रोमन साम्राज्य भूमध्यसागर के किनारों के देशों तक ही सीमित था। पूर्व दिशा में इसकी सीमा ईराक से आगे कभी नहीं बढ़ी।

रोमन साम्राज्य के काल में तथा उससे भी सैंकड़ों साल पहले से चीन और भारत में विशाल साम्राज्य स्थापित होते रहे थे जो रोमन साम्राज्य से कहीं अधिक सुसंस्कृत, शक्तिशाली एवं बड़े थे किंतु पश्चिमी दुनिया के लोग पूर्व की दुनिया के साम्राज्यों, लोगों एवं उनकी संस्कृतियों से अनभिज्ञ थे। उनके लिए संसार वहीं तक सीमित था, जहाँ तक रोमन साम्राज्य का विस्तार था।

रोम के शासकों में ‘संसार का स्वामी होने की भावना’ अहंकार के रूप में व्याप्त थी। उनका मानना था कि वे पूरे संसार पर राज्य कर रहे हैं। इसलिए वे अजेय हैं। जब कभी रोमन साम्राज्य के पतन के लक्षण उत्पन्न होते तो यही अहंकार उन्हें अत्यधिक क्रियाशील बना देता था और उन्हें नष्ट होने से बचा लेता था। यहाँ तक कि जब रोम साम्राज्य नष्ट हो गया तथा उसकी छाया ही कुछ रूपों में रोमन साम्राज्य के होने का आभास कराती रही, तब भी रोम यही समझता रहा कि वह पूरी दुनिया पर शासन कर रहा है।

इस काल में रोमन व्यापारियों का भारत के साथ तटीय-व्यापार अपने चरम पर था। पश्चिमी भारत में इस समय कुषाणों का शासन था। एक कुषाण शासक ने रोम के पहले सम्राट ऑगस्टस सीजर के दरबार में अपना राजदूत मण्डल भेजा था। इन दोनों देशों में स्थल-मार्ग एवं जल-मार्ग से व्यापार होता था।

भारत से रोम को इत्र, चंदन, रेशम, विभिन्न प्रकार के मसाले, मलमल, जरी के कपड़े, कीमख्वाब तथा जवाहरात भेजे जाते थे। इसके बदले में रोम का सोना भारत आता था। प्लिनी नामक एक रोमन लेखक के अनुसार इस काल में रोम भारत से प्रतिवर्ष 10 करोड़ स्वर्ण मुद्राओं की विलासिता की सामग्री खरीदता था।

क्या रोमन साम्राज्य वास्तव में महान् था? रोम का यह दावा उस समय धराशायी होने लगता है जब हम देखते हैं कि महान् कहे जाने वाले रोमन साम्राज्य में एक के बाद एक करके तिनकों की तरह राजा अवतरित होते थे और शीघ्र ही अपनी अंग-रक्षक सेना द्वारा, या जन-सामान्य की भीड़ द्वारा या सीनेट के सदस्यों द्वारा या रोमन गवर्नरों द्वारा मौत के घाट उतार दिए जाते थे। ई.पू.27 से लेकर ई.455 तक सम्राटों की हत्याओं का यह सिलसिला तब तक जारी रहा, जब तक कि रोम की महानता का दावा पूरी तरह धरती पर नहीं आ गिरा।

भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने अपनी पुस्तक विश्व इतिहास की झलक में रोमन साम्राज्य के ध्वस्त होने पर टिप्पणी करते हुए लिखा है-

‘बहुत लम्बे समय तक रोम का रौब ही उसकी ताकत थी। उसके पुराने इतिहास से प्रभावित होकर लोग उसे सारी दुनिया का शासक समझने लगे थे और उसकी इज्जत करते रहे थे। रोम का डर करीब-करीब अंध-विश्वास बन गया था। इस तरह रोम प्रकट रूप में शक्तिशाली साम्राज्य का स्वामी बना रहा किंतु वास्तव में उसके पीछे कोई शक्ति नहीं थी। बाहर से शांति थी और उसके नाटकघरों में, बाजारों में और अखाड़ों में मनुष्यों की भीड़ लगी रहती थी किंतु वह निश्चित रूप से पतन की ओर जा रहा था। सिर्फ इसलिए नहीं कि वह कमजोर था, अपितु इसलिए भी कि उसने जनता की गुलामी और संकटों की नींव पर धनिकों की सभ्यता का महल खड़ा किया था।’

 रोम के पतन के साथ ही अमीरों की तड़क-भड़क और विलासिता का भी अंत हो गया। रोम का विनाश इतनी भयावह विधि से हुआ था कि उनके द्वारा सदियों से संचित ज्ञान भी नष्ट हो गया। इस समय जर्मन जाति ‘गोथ’, ‘विसिगोथ’ एवं ‘वाण्डाल’ कबीलों के रूप में तथा फ्रैंच जाति ‘फ्रैंक’ कबीले के रूप में अर्धसभ्य एवं लड़ाकू समूहों की स्थितियों में जी रही थीं। रोम जैसी महान् सभ्यता के नष्ट हो जाने के बाद इन्हें अब अपने बल पर सभ्यता की सीढ़ियां चढ़नी थीं।

रोम के पतन से यूरोप में अंधकार युग का आगमन

यद्यपि जवाहर लाल नेहरू ने रोमन साम्राज्य के अंत को साम्राज्य का ध्वंस न मानकर ‘रोम’ नगर का ध्वंस माना है क्योंकि रोमन साम्राज्य तो कुस्तुंतुनिया के नेतृत्व में तब भी जीवित था तथापि यह रोमन साम्राज्य के ध्वंस से भी बड़ी घटना थी। ‘रोम’ जैसी रहस्यमय एवं अद्भुत शक्ति का उत्तरी यूरोप की बर्बर जातियों के हाथों पतन होना, निश्चित ही समूचे यूरोप, समूचे प्राचीन रोमन धर्म एवं समूचे ईसाई धर्म के लिए एक बड़ी राजनीतिक एवं सांस्कृतिक घटना थी।

क्योंकि  रोम और यूनान के प्राचीन दार्शनिकों के चिंतन से बनी वह पुरानी दुनिया लगभग पूरी ही नष्ट हो गई थी। इन अर्थों में यह एक महान् युग का अंत था। कहा जा सकता है कि जो सभ्यता एक हजार साल से भी अधिक समय में अंकुरित, पल्लवित एवं पुष्पित हुई थी, अचानक ही पककर मुरझा गई थी।

यह एक आश्चर्य की बात थी कि रोम वासियों द्वारा धर्म, दर्शन, अध्यात्म, चिकित्सा एवं अन्य विषयों के सम्बन्ध में जो ज्ञान अर्जित किया गया था, वह भी काल के गाल में समा गया। यद्यपि यूरोप के बहुत से देशों में रोम का संचित ज्ञान फुटकर रूप में याद रखा गया और आगे बढ़ाया गया किंतु उसका अधिकांश हिस्सा भुला दिया गया। निष्कर्ष रूप में यह निर्विावाद रूप से कहा जा सकता है कि रोमन साम्राज्य के पतन के बाद यूरोप में अंधकार का युग लौट आया।

रोम के पतन में ईसाई धर्म की भूमिका

बहुत से आलोचकों का मानना है कि रोमन साम्राज्य के पतन एवं यूरोप में अंधकार के युग के आगमन का कारण ईसाई धर्म था। अब यह वह धर्म नहीं रहा था जिसका प्रचार ईसा मसीह ने अथवा सेंट पीटर आदि शिष्यों ने अथवा प्रथम शताब्दी ईस्वी के ईसाई संत पॉल ने किया था अपितु यह राजकीय ईसाइयत थी जो एम्परर कॉन्स्टेन्टीन के ईसाइयत स्वीकार कर लिए जाने के बाद पश्चिम में फैली थी।

चौथी शताब्दी ईस्वी में सम्राट कॉन्स्टेन्टीन के ईसाइयत स्वीकार कर लेने के बाद यूरोप में एक हजार वर्ष का एक ऐसा युग आरम्भ हुआ जिसमें  मनुष्य के ‘विवेक’ को जंजीरों में जकड़ दिया गया तथा ‘विचार’ को गुलाम बना दिया गया।

 इस कारण इस काल में ज्ञान और विज्ञान ने कोई उन्नति नहीं की। ईसाइयत में पनपी इस प्रवृत्ति के कारण न केवल अत्याचार, कट्टरपन एवं असहिष्णुता ने ही जोर पकड़ा अपितु इससे लोगों के लिए विज्ञान और बहुत सी बातों में आगे बढ़ना कठिन हो गया।

इस युग में मनुष्य का चिंतन एवं विज्ञान जब भी ऐसी बातें कहने का प्रयास करते थे जो बाइबिल में लिखी बातों से अलग होती थीं तो धर्म एवं विज्ञान में संघर्ष उत्पन्न हो जाता था जिसमें प्रायः विज्ञान की पराजय हो जाती और धर्म जीत जाता। इस कारण कुछ लोग यूरोप में अंधकार छा जाने के लिए ईसाइयत को दोषी ठहराने लगते हैं।

जबकि कुछ अन्य लोगों का मानना है कि उस अन्धकार युग में ज्ञान के दीपक को जलाए रखने वाले ईसाइयत और ईसाई पादरी तथा पुजारी ही थे। उन्होंने कला और चित्रकारी को जीवित रखा, अत्यंत महत्त्वपूर्ण पुस्तकों को सुरक्षित रखा और उनकी प्रतिलिपियां तैयार कीं।

वस्तुतः यूरोप में अंधकार के युग के आगमन के लिए ईसाइयत को दोषी ठहराना उचित नहीं होगा, इसके लिए तो रोम की वह प्राचीन विलासिता पूर्ण संस्कृति ही जिम्मेदार थी जिसने नवीन ज्ञान उत्पन्न होने के सारे मार्ग अवरुद्ध करके भोग-विलास को ही जीवन का एकमात्र सत्य मान लिया था!

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