चोल वंश
चोल तमिल भाषा के ‘चुल’शब्द से निकला है, जिसका अर्थ होता है घूमना। चूंकि ये लोग एक स्थान पर स्थिर नहीं रहते थे इसलिये ये चोल कहलाये। चोल स्वयं को सूर्यवंशी क्षत्रिय् कहते थे। चोलों का इतिहास अत्यन्त प्राचीन है। इनका उल्लेख अशोक के शिलालेखों में भी मिलता है। दक्षिण भारत के इतिहास में लम्बे अन्धकार काल के बाद नौवीं शताब्दी ईस्वी में चोलों का अभ्युत्थान हुआ। अनुमान है कि ये पहले उत्तर भारत के निवासी थे परन्तु घूमते हुए दक्षिण भारत में पहुँच गये। कालांतर में आधुनिक तंजौर तथा त्रिचनापल्ली के जिलों में अपनी राजसत्ता स्थापित कर और तंजौर को अपनी राजधानी बनाकर शासन करने लगे। धीरे-धीरे चोलों ने अपने साम्राज्य की सीमा बढ़ा ली और वे दक्षिण भारत के शक्तिशाली शासक बन गये। प्रारम्भ में चोल आंध्र तथा पल्लव राज्यों की अधीनता में शासन करते थे परन्तु जब पल्लवों की शक्ति का ह्रास होने लगा, तब इन लोगों ने पल्लव राज्य को समाप्त कर दिया और स्वतंत्र रूप से शासन करने लगे।
विजयालय: नौवीं शताब्दी के मध्य तक चोल शासक, पल्लवों के अधीन राज्य करते थे। वि
जयालय ने 846 ई. में स्वतंत्र चोल वंश की स्थापना की। उसका शासनकाल 846 ई. से 871 ई. माना जाता है।
आदित्य (प्रथम): विजयालय का उत्तराधिकारी उसका पुत्र आदित्य (प्रथम) हुआ। पल्लव नरेश ने उसकी सेवाओं से प्रसन्न होकर उसे तंजौर के निकटवर्ती कुछ क्षेत्रों पर राज्य करने का अधिकार दे दिया। आदित्य (प्रथम) ने शीघ्र ही पल्लवों के विरुद्ध विद्रोह कर दिया तथा तोण्डमण्डलम् पर आक्रमण कर दिया। इस युद्ध में पल्लव नरेश अपराजित मारा गया। इस प्रकार पल्लव वंश का अंत हो गया और पल्लव राज्य पर चोल वंश का शासन हो गया। आदित्य (प्रथम) ने पाण्ड्य नरेश पर आक्रमण करके उससे कोंगु प्रदेश छीन लिया। इस प्रकार आदित्य (प्रथम) ने शक्तिशाली चोल राज्य की स्थापना की।
परांतक प्रथम: आदित्य का उत्तराधिकारी उसका पुत्र परान्तक (प्रथम) हुआ। उसने मदुरा के पाण्ड्य नरेश को परास्त करके मदुरा पर अधिकार कर लिया। इस उपलक्ष्य में उसने मदुरईकोण्ड् अर्थात् मदुरा के विजेता की उपाधि धारण की। लंका नरेश ने पाण्ड्य नरेश का साथ दिया था किंतु वह भी परान्तक से परास्त होकर चला गया। राष्ट्रकूट वंश के शासक कृष्ण (द्वितीय) को भी परांतक (प्रथम) ने परास्त किया किंतु बाद में वह स्वयं राष्ट्रकूट शासक कृष्ण (तृतीय) से तक्कोलम् के युद्ध में परास्त हो गया। परान्तक ने अनेक शैव मंदिरों का निर्माण करवाया। संस्कृत का प्रसिद्ध विद्वान वैंकट माधव इसी समय हुआ। उसके द्वारा ऋग्वेद पर लिखा गया भाष्य बड़ा प्रसिद्ध है।
राजराज (प्रथम): चोल वंश का प्रथम शक्तिशाली विख्यात शासक राजराज (प्रथम) था, जिसने 985 ई. से 1014 ई. तक शासन किया। राजराज एक महान् विजेता तथा योग्य शासक था। सबसे पहले उसका संघर्ष चेर राजा के साथ हुआ। उसने चेरों के जहाजी बेड़े को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया। इसके बाद उसने पाण्ड्य राज्य पर आक्रमण किया और मदुरा पर अधिकार कर लिया। उसने कोल्लम तथा कुर्ग पर भी प्रभुत्व जमा लिया। उसने सिंहल द्वीप पर भी आक्रमण कर दिया और उसके उत्तरी भाग पर विजय प्राप्त कर उसे अपने साम्राज्य का प्रान्त बना लिया। उसने कुछ अन्य पड़ोसी राज्यों पर भी अधिकार जमा लिया। इसके बाद राजराज का चालुक्यों के साथ भीषण संग्राम आरम्भ हो गया। यह संग्राम बहुत दिनों तक चलता रहा। अन्त में राजराज की विजय हुई। राजराज ने कंलिग पर भी विजय प्राप्त की।
राजराज (प्रथम) की सांस्कृतिक उपलब्धियां: यद्यपि राजराज (प्रथम) शैव था, परन्तु उससमें उच्च कोटि की धार्मिक सहिष्णुता थी। उसने कई वैष्णव मन्दिर भी बनवाये। उसने चक्र बौद्ध विहार को गाँव दान में दिया। तंजौर का भव्य एवं विशाल राजराजेशवर शिव मन्दिर उसी का बनवाया हुआ है। यह मंदिर द्रविड़ वास्तु का सर्वोत्तम नमूना है। यह मंदिर शिल्पकला, उत्कृष्ट अलंकरण विधानों एवं प्रभावोत्पादक स्थापत्य योजना के लिये प्रख्यात है। मंदिर की दीवारों पर उसकी उपलब्धियों के लेख मिले हैं। स्वयं शिवभक्त होने पर भी राजराज ने विष्णु मंदिरों का निर्माण करवाया। उसने जावा के राजा को एक बौद्ध विहार के निर्माण में सहायता दी और उसके लिये दान भी दिया। वास्तव में राजराज चोल वंश का महान् शासक था। चोल इतिहास का स्वर्णकाल राजराज (प्रथम) से आरम्भ होता है।
राजेन्द्र (प्रथम): राजराज के बाद उसका पुत्र राजेन्द्र (प्रथम) शासक हुआ। उसने 1015 ई. से 1042 ई. तक शासन किया। वह चोल वंश का सर्वाधिक शक्तिशाली शासक था। उसने अपने पिता की साम्राज्यवादी नीति का अनुसरण किया। उसने सबसे पहले दक्षिण के राज्यों पर विजय की। उसने सिंहल द्वीप, चेर एवं पाण्ड्यों पर विजय प्राप्त की। उसने कल्याणी के चालुक्यों से लम्बा संघर्ष किया। इसके बाद उसने उत्तर की ओर प्रस्थान किया। उसने बंगाल, मगध, अण्डमान, निकोबार तथा बर्मा के अराकान और पीगू प्रदेश को भी जीत लिया। इसके बाद उसने अपनी जलसेना के साथ पूर्वी द्वीप समूह की ओर प्रस्थान किया और मलाया, सुमात्रा, जावा तथा अन्य कई द्वीपों पर अधिकार कर लिया।
राजेन्द्र (प्रथम) की सांस्कृतिक उपलब्धियाँ: राजेन्द्र (प्रथम) की राजनैतिक विजयों से विदेशों में भारतीय सभ्यता तथा संस्कृति का प्रचार हुआ। राजेन्द्र (प्रथम) कलाप्रेमी भी था और उसने बहुत से नगरों, भवनों आदि का निर्माण करवाया। उसने गंगईकोण्डचोलपुरम् का निर्माण करवाकर सुंदर मंदिरों, भवनों तथा तड़ागों से अलंकृत कर उसे अपनी राजधानी बनाया। वह साहित्यप्रेमी तथा विद्यानुरागी था। वेद विद्या एवं शास्त्रों के अध्ययन के लिये उसने एक विद्यालय स्थापित किया।
राजेन्द्र (प्रथम) के बाद भी चोलवंश में कई योग्य राजा हुए जिन्होंने अपने पूर्वजों के राज्य को सुरक्षित तथा सुसंगठित रखा परन्तु बारहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में चोल साम्राज्य का पतन आरम्भ हो गया। पड़ोसी राज्यों के साथ निरन्तर संघर्ष करने तथा सामन्तों के विद्रोहों के कारण चोल साम्राज्य धीरे-धीरे निर्बल होता गया। अन्त में पाण्ड्यों ने उसे छिन्न-भिन्न कर दिया।
चोल शासकों की सास्कृतिक उपलब्धियाँ
स्थापत्य कला
चोल शासकों ने अपने पूर्ववर्ती पल्लव राजाओं की भांति द्रविड़ स्थापत्य एवं शिल्प को चरम पर पहुंचा दिया। चोल शासक परान्तक ने अपने राज्य में अनेक शैव मंदिरों का निर्माण करवाया। राजराज (प्रथम) ने कई शिव मंदिर तथा वैष्णव मन्दिर बनवाये। तंजौर का भव्य एवं विशाल राजराजेशवर शिव मन्दिर उसी का बनवाया हुआ है। यह मंदिर द्रविड़ वास्तु का सर्वोत्तम नमूना है। यह मंदिर शिल्पकला, उत्कृष्ट अलंकरण विधानों एवं प्रभावोत्पादक स्थापत्य योजना के लिये प्रख्यात है। राजराज ने जावा के राजा को बौद्ध विहार के निर्माण में सहायता दी और उसके लिये दान भी दिया।
चोल शासकों के काल में विकसित मंदिर शैली, दक्षिण भारत के अन्य भागों एवं श्रीलंका में भी अपनाई गई। उनके शासन के अंतर्गत सम्पूर्ण तमिल प्रदेश बड़ी संख्या में मंदिरों से सुशोभित हुआ। कहा जाता है कि चोल कलाकारों ने इन मंदिरों के निर्माण में दानवों की शक्ति और जौहरियों की कला का प्रदर्शन किया। चोल मंदिरों की विशेषता उनके विशाल शिखर या विमान हैं।
चोल मंदिरों में तंजौर का बृहदीश्वर मंदिर प्रमुख है जो एक दुर्ग के भीतर निर्मित है। इसका निर्माता राजराज (प्रथम) था। इसके विमान का 13 मंजिला शिखर 58 मीटर ऊँचा है। प्रवेशद्वार का गोपुर 29 मीटर वर्गाकार आधार ढांचे पर निर्मित है। गुम्बदाकार शिखर 7.8 मीटर की वर्गाकार शिला पर अधिष्ठित है। इसके ऊपर एक अष्टकोणीय स्तूप तथा 12 फुट ऊँचा कलश स्थापित है। 81 फुट की इस भीमकाय शिला को ऊपर तक ले जाने के लिये मिश्र शैली को अपनाते हुए ऊँचाई में उत्तरोत्तर बढ़ती सड़क का निर्माण किया गया जिसकी लम्बाई 6.4 किलोमीटर थी। शिखर के चारों तरफ 2 मीटर गुणा 1.7 मीटर के आकार में दो-दो नंदी प्रतिष्ठित हैं। स्तूप और विमान इस तरह से निर्मित हैं कि उनकी छाया भूमि पर नहीं पड़ती। इस मंदिर के गर्भगृह में विशाल शिवलिंग स्थापित है जिसे वृहदीश्वर कहा जाता है। पर्सी ब्राउन के अनुसार बृहदीश्वर मंदिर का विमान भारतीय स्थापत्य कला का निचोड़ है। इसी मंदिर की अनुकृति पर राजेन्द्र चोल (प्रथम) ने गंगईकोण्डचोलपुरम् में शिव मंदिर का निर्माण करवाया। यह मंदिर भी चोल कला का उत्कृष्ट नमूना है।
चोल शासक राजेन्द्र (प्रथम) कलाप्रेमी था। उसने बहुत से नगरों, भवनों आदि का निर्माण करवाया। उसने गंगईकोण्डचोलपुरम् का निर्माण करवाकर सुंदर मंदिरों और भवनों तथा तड़ागों से अलंकृत कर उसे अपनी राजधानी बनाया।
दक्षिण के चोल मंदिरों में मण्डप नामक बड़ा कक्ष होता था जिसमें स्तम्भों पर बारीक नक्काशी की जाती थी तथा छतें सपाट रखी जाती थीं। मण्डप सामान्यतः गर्भगृह के सामने बनाये गये। इसमें भक्त एकत्र होकर विधि-विधानपूर्वक नृत्य करते थे। कहीं-कहीं देव प्रतिमों से युक्त एक गलियारा गर्भगृह के चारों ओर जोड़ दिया जाता था ताकि भक्तगण उसकी परिक्रमा कर सकें। सम्पूर्ण ढांचे के चारों ओर ऊँची दीवारों और विशाल द्वारों वाला एक आहता बनाया जाता था जिसे गोपुरम कहते थे। कुछ मंदिरों में राजा और उसकी रानियों के चित्र भी लगाये गये।
साहित्य
चोल काल में तमिल भाषा एवं सहित्य का विकास हुआ। इस काल का प्रसिद्ध लेखक जयगोन्दर था जिसने कलिंगत्तुप्परणि की रचना की। परांतक (प्रथम) के शासन काल में संस्कृत का प्रसिद्ध विद्वान वैंकट माधव हुआ जिसके द्वारा ऋग्वेद पर लिखा गया भाष्य बड़ा प्रसिद्ध है। चोल शासक राजेन्द्र (प्रथम) साहित्य एवं विद्यानुरागी था। वेद विद्या एवं शास्त्रों के अध्ययन के लिये उसने एक विद्यालय स्थापित किया। जयगोन्दर, कुलोत्तुंग (प्रथम) के दरबार को सुशोभित करता था। कुलोत्तुंग (प्रथम) के समय में कम्बन नामक प्रसिद्ध कवि हुए जिन्होंने तमिल रामायण की रचना की। इसे तमिल साहित्य का महाकाव्य माना जाता है। इस काल की अन्य रचनाओं में जैन कवि विरुत्तक्कदेवर कृत जीवक चिंतामणि, जैन विद्वान तोलामोल्लि कृत शूलमणि, बौद्ध विद्वान बुद्धमित्त कृत वीर सोलियम, आदि प्रमुख हैं। चोलकाल के संस्कृत लेखकों में वैष्णव आचार्य नाथमुनि, यमुनाचार्य तथा रामानुज सुप्रसिद्ध हैं।