Thursday, November 21, 2024
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अध्याय – 37 – इण्डो-सारसैनिक वास्तु एवं स्थापत्य कला

दिल्ली सल्तनत काल में मुस्लिम शासकों द्वारा भारत में बनाए गए भवनों की कला को मुस्लिम कला, तुर्क स्थापत्य कला एवं इण्डो-सारसैनिक वास्तु कला कहा जाता है। यह कला भारत में प्रचलित प्राचीन हिन्दू स्थापत्य एवं मध्यकालीन राजपूत स्थापत्य से तो अलग थी ही, तुर्कों के बाद स्थापित होने वाली मुगल स्थापत्य कला से भी अलग थी।

मुस्लिम वास्तु के तीन चरण

मुस्लिम वास्तु के तीन क्रमिक चरण स्पष्ट हैं-

(1.) पहला चरण: पहला चरण विजेता आक्रांताओं के विजय-दर्प एवं धर्मांधता से प्रेरित होकर हिन्दू स्थापत्य को नष्ट करने का था। मुहम्मद गौरी के साथ भारत आए हसन निज़ामी ने लिखा है कि प्रत्येक किला जीतने के बाद उसके स्तंभ और नींव तक महाकाय हाथियों के पैरों तले रौंदकर धूल में मिला दिए जाते थे। अनेक भारतीय नगर, दुर्ग एवं मंदिर इसी प्रकार नष्ट किए गए।

(2.) दूसरा चरण: दूसरा चरण सोद्देश्य और आंशिक विध्वंस का था जिसमें हिन्दू इमारतें इसलिए तोड़ी गईं ताकि विजेताओं की मस्जिदों और मकबरों के लिए तैयार शिल्प-सामग्री उपलब्ध हो सके। बड़ी-बड़ी धरनें और स्तम्भ मंदिरों एवं अन्य हिन्दू भवनों से निकालकर नई जगह ले जाए गए। इस काल में मंदिरों को विशेष क्षति पहुँची जो मुसलमानों द्वारा विजित प्रांतों की नई राजधानियों के निर्माण के लिए तैयार सामग्री की खान के रूप में प्रयुक्त हुए और उत्तर भारत से हिंदू वास्तु प्रायः सम्पूर्ण रूप से नष्ट हो गया।

(3.) तीसरा चरण: मुस्लिम वास्तु का तीसरा एवं अंतिम चरण तब आरंभ हुआ जब मुस्लिम आक्रांता देश के अनेक भागों में मस्जिदें एवं मकबरे बनाने लगे।

मुस्लिम वास्तु की तीन शैलियाँ

मुस्लिम वास्तु-शैलियों को तीन वर्गों में रखा जा सकता है-

(1.) दिल्ली वास्तु शैली (ई.1193-1554): इसे पठान शैली एवं शहंशाही शैली भी कहा जाता है। इस शैली का अनुसरण दिल्ली सल्तनत के मध्य एशिया से आए तुर्की सुल्तानों एवं अफगानिस्तान से आए पठान सुल्तानों ने किया। इस शैली में दिल्ली की कुतुबमीनार (ई.1200), सुल्तान गढ़ी (ई.1231), अल्तमश का मकबरा (ई.1236), अलाई दरवाज़ा (ई.1305), निजामुद्दीन (ई.1320), गयासुद्दीन तुगलक (ई.1325) और फीरोजशाह तुगलक (ई.1388) के मकबरे, कोटला फीरोजशाह (ई.1354-1490), मुबारकशाह का मकबरा (ई.1434), मेरठ की मस्जिद (ई.1505), शेरशाह की मस्जिद (ई.1540-45) सहसराम का शेरशाह का मकबरा (ई.1540-45) और अजमेर का अढ़ाई दिन का झोंपड़ा (ई.1205) आदि उल्लेखनीय हैं।

(2.) प्रांतीय वास्तु शैलियाँ: मध्ययुगीन प्रांतीय मुस्लिम शैलियों में निम्नलिखित शैलियों को रखा जा सकता है-

पंजाब शैली (ई.1150-1325) : इस शैली में शाह यूसुफ गर्दिजी (ई.1150), तब्रिजी (ई.1276), बहाउलहक (ई.1262) मुल्तान के श्रकने आलम (ई.1320) के मकबरे प्रमुख हैं।

बंगाल शैली (1203-1573) : इस शैली में पंडुआ की अदीना मस्जिद (ई.1364), गौर के फतेहखाँ का मकबरा (ई.1657), कदम रसूल (ई.1530) तथा तांतीमारा मस्जिद (ई.1475) प्रमुख हैं।  

गुजरात शैली (ई.1300-1572) : इस शैली में कैम्बे (ई.1325), अहमदाबाद (ई.1423), भड़ौंच और चमाने (ई.1523) की जामा मस्जिदें एवं नगीना मस्जिद (ई.1525) प्रमुख हैं।

जौनपुर शैली (ई.1376-1479) : इस शैली में जौनपुर की अटाला मस्जिद (ई.1408), लाल दरवाजा मस्जिद (ई.1450) और जामा मस्जिद (ई.1470) प्रमुख हैं।

मालवा शैली (1405-1569) : इस शैली में माण्डू के जहाज-महल (ई.1460), होशंग का मकबरा (ई.1440), जामा मस्जिद (ई.1440), हिंडोला महल (ई.1425), धार की लाट मस्जिद (ई.1405), चंदेरी का बदल महल फाटक (ई.1460), कुशक महल (ई.1445), शहज़ादी का रौजा (ई.1450) आदि प्रमुख हैं।

दक्षिणी शैली (1347-1617) : इस शैली में गुलबर्ग की जामा मस्जिद (ई.1367) और हफ्त गुंबज (ई.1378), बीदर का मदरसा (ई.1481), हैदराबाद की चारमीनार (ई.1591) आदि प्रमुख हैं।

बीजापुर खानदेश शैली (1425-1660) : इस शैली में बीजापुर के गोलगुंबज (ई.1660), रौजा इब्राहीम (ई.1615) और जामा मस्जिद (ई.1570), थालनेर खानदेश के फारूकी वंश के मकबरे (15वीं शती) आदि प्रमुख हैं।

कश्मीर शैली (15-17 वीं शती) : इस शैली में श्रीनगर की जामा मस्जिद (1400), शाह हमदन का मकबरा (17 वीं शती) आदि सम्मिलित हैं।

(3.) मुगल वास्तु शैली : तीसरे वर्ग में मुगल शैली आती है जिसके उत्कृष्टतम नमूने दिल्ली, आगरा, फतेहपुर सीकरी, लखनऊ, लाहौर, इलाहाबाद, औरंगाबाद आदि में किलों, मकबरों, मस्जिदों राजमहलों, उद्यान-मंडपों आदि के रूप में स्थित है। इसी काल में स्थापत्य-कला लाल-बलुआ पत्थर से आगे बढ़कर संगमरमर तक पहुँची और दिल्ली के दीवाने खास, मोती मस्जिद, जामा मस्जिद और आगरा के ताजमहल जैसी विश्व प्रसिद्ध भवन बने।

हिन्दू-मुस्लिम शैलियों के समन्वय के कारण

हिन्दू-मुस्लिम शैलियों के समन्वय से इण्डो-सारसैनिक स्थापत्य का विकास हुआ। हिन्दू-मुस्लिम शैलियों के समन्वय की प्रक्रिया बहुत तेजी से घटित हुई इसके कुछ विशेष कारण थे-

(1.) मुसलमान शासकों ने जब भारत में महल, मस्जिद एवं मकबरे बनवाने आरम्भ किए तो उन्हें भारत में मुस्लिम स्थापत्य के शिल्पी उपलब्ध नहीं हुए। इसलिए कुछ शिल्पी फारस आदि स्थानों से बुलवाए गए। उनके निर्देशन में भारतीय शिल्पियों ने काम किया। अतः स्वाभाविक ही था कि मुस्लिम स्थापत्य में हिन्दू स्थापत्य के तत्व शामिल हो जाएं।

(2.) मुसलमानों ने बहुत तेजी से भारत के विभिन्न क्षेत्रों में प्रसार किया जिसके कारण उन्हें बड़ी संख्या में महलों, मस्जिदों एवं मकबरों आदि की आवश्यकता हुई। इन भवनों के निर्माण के लिए बहुत सामग्री की आवश्यकता थी जिसकी पूर्ति शीघ्रता से नहीं हो सकती थी, इस कारण बहुत से हिन्दू भवनों के अलंकरण को नष्ट करके उनके मूल निर्माण को काम में लेते हुए उन्हें इस्लामिक शैली में ढाल दिया गया। उन भवनों में हिन्दू एवं मुस्लिम शैलियों की छाप दिखाई देती है।

(3.) बहुत से मुस्लिम नवनिर्माण के लिए पुराने हिन्दू मंदिरों, महलों आदि को तोड़कर उनकी सामग्री काम में ली गई। इस कारण भी मुस्लिम शैली पर हिन्दू शैली का प्रभाव दिखाई देने लगा।

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