सामाजिक व्यवहार एवं शिष्टाचार
मध्य-कालीन भारतीय समाज में जाति-प्रथा बुरी तरह से हावी थी। इस कारण सामाजिक शिष्टाचार भी अपनी जाति तक सीमित होकर रह गया था। दूसरी जातियों के साथ सामाजिक व्यवहार प्रायः नहीं के बराबर था। समाज पूरी तरह पुरुष-प्रधान था। घरों की स्त्रियां, घर में आए पुरुष अतिथियों से प्रायः बातचीत नहीं करती थीं।
गांव की चौपाल पर पुरुष तो परस्पर मिलते रहते थे, किंतु स्त्रियों को मित्र और सम्बन्धियों से मिलने की अनुमति नहीं थी। शहरों में भी पुरुष अपने कार्य के सिलसिले में एक-दूसरे से मिलते थे किंतु स्त्रियों को ऐसे अवसर बहुत कम उपलब्ध थे। स्त्रियों में पर्दा-प्रथा प्रचलित थी। जन्म, विवाह, शव-यात्रा आदि के समय या किसी की बीमारी पर स्त्रियों को घर में आए सगे-सम्बन्धियों से मिलने के अवसर प्राप्त होते थे।
मध्ययुग में अतिथियों के स्वागत के लिए अनेक औपचारिकताएं की जाती थीं। अतिथि के आगमन पर घर का मुखिया द्वार पर जाकर उसका स्वागत करता था। प्रवेश द्वार पर ही अतिथि अपने जूते उतार देता था। पुरुष-अतिथि एवं संत आदि के आगमन पर हिन्दुओं में चन्दन, पुष्प, चावल आदि युक्त जल से उसके पैर धोये जाते थे, फिर उसे बैठक में ले जाया जाता था।
अमीरों के घर में बैठक का कमरा सजाकर रखा जाता था जिसमें मूल्यवान दरियां और मखमल के गद्दे बिछे रहते थे। साधारण घरों में चटाई और चारपाई होती थी। शाही पुरुष अपने अतिथियों से दीवानखाने में मिलते थे, जहाँ प्रतिदिन दरबार लगता था। इस कक्ष को सुन्दर कालीन और बहुमूल्य पर्दों से सजाया जाता था। अतिथि अपनी सामाजिक स्थिति के अनुसार गृहस्थ के दाईं या बाईं ओर बैठता था। अपरिचितों को भी बैठक में आकर मिलने की अनुमति होती थी।
शाही लोगों से मिलने पर भेंट देने की परम्परा थी। किसी बड़े ओहदेदार व्यक्ति के पास छोटे आदमी का खाली हाथ जाना अशिष्टता मानी जाती थी। बादशाह एवं शहजादे के जन्मदिन, विजय अभियान एवं शिकार से सकुशल वापसी, नौरोज आदि अवसरों पर नजराना दिया जाता था, जिनमें से कुछ हिस्सा रखकर शेष लौटा दिया जाता था।
भारतीयों के आचार-व्यवहार की अनेक विदेशी यात्रियों ने प्रशंसा की है। परस्पर वार्तालाप में लोग मर्यादा का ध्यान रखते थे। अपने से बड़े या श्रेष्ठ व्यक्ति से बातचीत में सावधानी बरती जाती थी और उसके प्रति सम्मान के लिए अपना सिर ढका जाता था। बड़ों की उपस्थिति में लोग प्रायः खड़े ही रहते थे। शाही दरबार में उपस्थित होने के विस्तृत नियम थे। अमीर, उमराव एवं दरबारियों को प्रतिदिन सुल्तान के समक्ष उपस्थित होना पड़ता था।
विशिष्ट दरबारियों तथा शहजादों के अतिरिक्त अन्य कोई व्यक्ति दरबार में नहीं बैठ सकता था। राज्य के उच्च अधिकारियों, विदेशों से आए राजदूतों तथा वित्तीय एवं सैन्य सहायता के लिए आए पदच्युत रजवाड़ों के शासकों को भी इस नियम से छूट नहीं दी गई थी। बादशाह के जाने से पूर्व किसी को दरबार छोड़़ने की अनुमति नहीं थी। बादशाह का नाम जो भी सुने, जहाँ भी सुने उससे अपेक्षा की जाती थी कि वह सम्मान के साथ अपना सिर झुकाए।
पत्रवाहक से शाही फरमान प्राप्त करने के लिए अमीरों, सेनापतियों और दरबारियों को थोड़ी दूर चलकर आना पड़ता था और फरमान लेते समय झुकना और उसे अपने सिर से लगाना पड़ता था। दरबार में भी उत्तम ढंग से शिष्टाचार का निर्वाह किया जाता था।
अभिावादन की परम्पराएं
मध्य-काल में अभिवादन की परम्पराएं बहुत कुछ आज की ही तरह थीं। हिन्दुओं में बराबरी वालों को राम-राम कहकर अभिवादन किया जाता था। उच्च पदस्थ व्यक्ति, सूबेदार, मंत्री या सेनापति का अभिवादन सिर से ऊपर हाथों को जोड़कर किया जाता था। छोटों के द्वारा बड़ों का अभिवादन उसके पैरों को छूकर किया जाता था। गुरु के अभिवादन में लेटकर दण्डवत् किया जाता था।
राजा का अभिवादन, ब्राह्मणों को छोड़़कर, शेष लोगों के द्वारा पैर छूकर या धरती को स्पर्श करके किया जाता था। ब्राह्मण राजा के अभिवादन में सिर से ऊपर अपने दोनों हाथ जोड़ लेते थे। विजयनगर दरबार में प्रत्येक व्यक्ति को नंगे पैर जाना होता था।
दरबार में जाने वाला व्यक्ति राजा के पांव चूमने के बाद हाथ बांधकर एक ओर खड़ा हो जाता था तथा तब तक धरती पर दृष्टि रखता था जब तक राजा उसे सम्बोधित नहीं करता था। गुरु नानक ने अपने अनुयाइयों को नमस्कार के उत्तर में ‘सत-कर्तार’ कहने की सलाह दी थी।
मुसलमान अभिवादन के लिए ‘सलाम’ अथवा ‘अस्सलाम वालेकुम’ कहते थे और प्रत्युत्तर में ‘वालेकुम अस्सलाम’ कहते थे। बराबरी के लोगों एवं मित्रों का अभिवादन करते समय दांये हाथ को मस्तक के सामने तक उठाते थे। एवं तीन बार गले लगाकर एक-दूसरे का हाथ पकड़ते थे।
वरिष्ठ एवं श्रेष्ठ जन के अभिवादन में आगे झुककर दायें हाथ को मस्तक के पास ले जाते हैं। सुल्तान के अभिवादन के लिए भी नियम बनाए गए थे। इसके लिए सामान्य तरीका ‘जमींबोसी’ (धरती चूमना) या ‘पांवबोसी’ (पैर चूमना) है। बलबन पांवबोसी का तरीका अधिक पसन्द करता था।
अबुल फजल ने बादशाह के प्रति सामूहिक अभिवादन के रूप में ‘कोर्निस’ और ‘तसलीम’ का उल्लेख किया है। कोर्निस में दायें हाथ की हथेली को ललाट पर रखकर आगे की ओर सिर झुकाया जाता था। तसलीम पेश करते समय दायें हाथ को जमीन पर रखना होता था, जिसमें हथेली ऊपर की ओर रहती थी। फिर हथेली को छाती एवं माथे से लगाया जाता था।
अकबर ने आदेश जारी किया कि तसलीम की यह क्रिया एक साथ तीन बार की जानी चाहिए। उसने अभिवादन का दूसरा तरीका सिजदा अर्थात् बादशाह के सामने दण्डवत लेटना भी शुरू कराया था किन्तु कट्टरपंथी मुसलमानों ने इसे व्यक्ति-पूजा मानकर इस तरीके पर आपत्ति की। अतः दीवान-ए-आम में इसकी मनाही हो गई फिर भी निजी कक्ष में इसकी अनुमति थी।
शाहजहाँ के शासन काल में इस तरीके को समाप्त कर दिया गया और इसकी जगह जमींबोसी का तरीका अपनाया गया। बाद में इसे भी स्थगित कर तसलीम के पुराने ढंग को संशोधित करके अपनाया गया। नए तरीके में कम से कम चार बार तसलीम करनी होती थी। औरंगजेब ने इस प्रकार के समस्त अभिवादनों को मूर्ति-पूजा का परिचायक मानते हुए इन्हें समाप्त कर दिया और अभिवादन के लिए केवल ‘अस्सलाम वालेकुम’ को मान्यता दी।
वस्त्र, प्रसाधन और आभूषण
मध्य-कालीन भारत में लोगों के वस्त्र, प्रसाधन एवं आभूषण उनकी आर्थिक, सामाजिक एवं राजनीतिक हैसियत के अनुसार होते थे। विभिन्न समुदायों के लोग प्रायः सूती वस्त्र पहनते थे।
जन-सामान्य की पोषाक: हिन्दू पुरुषों में धोती, कुर्ता तथा पगड़ी अधिक प्रचलित थे और हिन्दू औरतों में कांचली, घाघरा ओढ़नी अधिक लोकप्रिय थी किंतु साड़ी-ब्लाउज और पेटीकोट भी समान रूप से प्रचलित थीं। औरतें घर से निकलते समय शरीर को चादर से लपेट लेती थीं। मजदूर और किसान वर्ग के लोग घुटनों से ऊपर तक छोटी सी धोती लपेटते थे।
सर्दियों में साधारण लोग सूती कोट पहना करते थे, जिसमें रुई भरी होती थी। उत्तर भारत में पगड़ी अथवा साफा प्रचलित था किंतु कश्मीर और पंजाब में रुई भरी हुई टोपी का चलन था। अत्यंत निर्धन लोग केवल लंगोट लगाकर जीवन बिताते थे। मुसलमानों के राज्य में ऐसे लोगों की संख्या निरंतर बढ़ती चली गई थी।
सरकारी कारिंदों की पोषाक: मुसलमान सैनिकों की कोई विशेष पोशाक नहीं थी फिर भी वे चुस्त कपड़े पहनते थे जिन पर तलवार, ढाल, गुप्ती आदि हथियार कसे हुए होते थे। शाही कारिंदे एवं गुलाम कमरबंद, लाल जूते और ‘कुला’ पहनते थे।
तुर्की सुल्तानों के काल की पोषाक: दिल्ली सुल्तानों के काल में लम्बी तातारी टोपी पहनने का प्रचलन था किंतु बाद में तातारी टोपी का स्थान पगड़ी ने ले लिया। पगड़ी दोनों समुदायों के लोग सामान्य रूप से धारण करते थे। मुस्लिम सफेद और गोल पगड़ी बांधते थे जबकि हिन्दुओं में रंगीन, ऊँची और नोकदार पगड़ी प्रचलित थी। गर्मी के कारण जुर्राबें बहुत कम पहनी जाती थी।
अधिकांश हिन्दू नंगे पैर रहते थे। बलबन ने अपने गुलामों को जुर्राब पहनने का आदेश दिया था। कट्टर धार्मिक प्रवृत्ति के मुसलमान नमाज आदि में सफाई बनाए रखने के लिए जुर्राबों का इस्तेमाल आवश्यक मानते थे। उस समय तुर्की जूते अधिक प्रचलित थे, जो सामने से नोकदार तथा ऊपर से खुले हुए होते थे। इनको पहनने और उतारने में अधिक सुविधा रहती थी।
अमीर अपने जूते रंगीन मखमल या जरी के बनवाते थे जिन पर रेशम और चमड़े के फीते लगाए जाते थे। कुछ जूतों पर हीरे-जवाहरात भी जड़वाये जाते थे। कालीकट के ब्राह्मण जाड़ों में भूरे चप्पल तथा गर्मियों में काठ की खड़ाऊ पहनते थे। मध्यम-वर्गीय परिवार लाल चमड़े के जूते पहनते थे, जिन पर फूलों की आकृतियां बनी रहती थीं।
साधु-सन्तों, फकीरों एवं दरवेशों को उनकी पोषाक से पहचाना जाता था। मुस्लिम फकीर लम्बी ‘दरवेश-टोपी’ तथा पैरों में ‘काठ की चट्टी’ पहनते थे और शरीर पर एक लम्बा चोगा डालते थे। मुस्लिम दार्शनिक पगड़ी, चोगा तथा पाजामा पहनते थे। हिन्दू संन्यासी एवं योगी केवल लंगोटी से काम चलाते थे। हिन्दू पंडित कमर में रेशमी चादर लपेट लेते थे, जिसका एक छोर पांव तक लटकता रहता था और लाल रंग की रेशमी चादर कन्धों पर डाल लेते थे।
मुगलकाल में शाही अमीरों की पोषाक: उच्च वर्ग के लोगों के वस्त्र महंगे होते थे। अमीर मुसलमान सलवार, सुतन्नी और पाजामा पहनते थे। शरीर के ऊपरी भाग पर कुर्ता, जैकेटनुमा कोट, काबा या लम्बा कोट पहना जाता था जो घुटनों तक लटकता था। यह मलमल या बारीक ऊन का बना होता था। मुगल बादशाह रोएंदार फर के कोट पहनते थे। धनी लोग कन्धे पर रंगीन ऊनी चादर रखते थे।
मध्य-युगीन सुल्तान, अमीर, खान आदि शाही पुरुष जरी वाले रेशमी और मखमली कपड़े पहनते थे। उनकी पोषाकों में दिबा-ए-हफ्तरंग (सप्तरंगी किमखाब), बीसात-ए-जमुरादी (मोतिया रंग की पोशाक), जामा-ए-जारबफ्त (जरी या सोने के तारों से बुना कपड़ा), कतान-ए-रूसी (रूस में बना कपड़ा), कतान-ए-बिरारी, बरकरमान (कई रंगों का ऊनी कपड़ा) आदि का भी प्रयोग होता था।
अकबर की पोषाक: अकबर ने अपनी पोशाकों के लिए कुशल दर्जी नियुक्त किए। आइन-ए-अकबरी में ग्यारह प्रकार के कोट का विवरण मिलता है। उनमें ‘टकन चिया पेशवाज’ सर्वाधिक महत्त्व का था। यह गोल-घेरदार कोट था, जो सामने से खुला रहता था और दांयी ओर से बंद होता था।
इसके साथ ही रोएंदार कोट ‘शाह आजीदाह’ का भी महत्त्व था। अकबर मुलायम रेशम की धोती भी पहनता था। मॉन्सेरट ने अकबर की पोशाक के बारे में लिखा है- ‘बादशाह सलामत की पोशाक रेशम की थी, जिस पर सोने का सुन्दर काम किया रहता था। उनकी पोशाक घुटनों तक झूलती थी तथा उसके नीचे पूरे गांव का जूता होता था। वे मोती और सोने के जेवर भी पहनते थे।’
महिलाओं की पोषाक: महिलाओं की पोशाक साधारण थी। गरीब स्त्रियां साड़ी पहनती थीं जिसके एक छोर से उनका सिर ढका रहता था। गरीब और अमीर दोनों वर्ग की स्त्रियां वक्ष पर अंगिया पहनती थीं। दक्षिण भारत में निम्न-वर्ग की स्त्रियां सिर नहीं ढकती थीं। गरीब उड़िया स्त्रियां कपड़ा प्राप्त न होने के कारण पत्तियों से शरीर को ढकती थीं। मुसलमान स्त्रियां सलवार-कमीज पहनती थीं, ऊपर से बुर्का डालती थीं।
मध्य-कालीन चित्रों में स्त्रियों को ओढ़नी के साथ पीठ पर बंधने वाली चोली पहने हुए चित्रित किया गया है। स्त्रियां घाघरा भी पहनती थीं, जिनमें किनारी एवं कसीदाकारी का काम होता था। बंगाली स्त्रियां कांचुली या चोली पहनती थीं। यह दो प्रकार की होती थी, एक छोटी होती थी, जिससे केवल स्तन ढकते थे, दूसरी लम्बी होती थी और कमर तक जाती थी।
धनी औरतें कश्मीरी ऊन का बना बारीक ‘कावा’ पहनती थीं। कुछ स्त्रियां उत्तम प्रकार के कश्मीरी शॉल ओढ़ती थीं। हिन्दू और मुसलमान महिलाएं सूती, रेशमी या ऊनी दुपट्टे से सिर ढकती थी। उस काल में पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियां जूतों का प्रयोग अधिक करती थीं।
सौन्दर्य प्रसाधन
मनुष्य में सुंदर एवं आकर्षक दिखने की ललक आदिकाल से है। इसलिए शरीर पर सुगंधित पदार्थों का लेप करने, अंगराग लगाने, उबटन मलने, बाल संवारने, काजल लगाने, वस्त्रों को रंगने, आभूषण पहनने आदि की परम्पराएं भी अत्यंत प्राचीन काल से चली आ रही हैं। मध्य-कालीन भारतीय समाज में भी ये परम्पराएं प्रचलन में थीं।
स्नान करने और कपड़ा धोने के लिए साबुन का उपयोग किया जाता था। शरीर एवं कपड़ों पर लगाने के लिए कई प्रकार की कीमती सुगंधियों का प्रयोग किया जाता था। केशों को काला करने के लिए ‘वस्मा’ और ‘खिजाब’ का प्रयोग होता था। कपड़ों को सफेद बनाए रखने के लिए नील का प्रयोग होता था। साबुन, पाउडर और क्रीम जैसी प्रसाधन सामग्रियों के रूप में ‘घासूल’, त्रिफला, उबटन और चन्दन का प्रयोग होता था।
अबुल फजल ने मुगल काल में स्त्रियों के सोलह शृंगारों का उल्लेख किया है जिनमें स्नान करना, केशों में तेल, लगाना, चोटी गूँथना, रत्नों से वेणी शृंगार करना, मोतियों से सजाकर बिन्दी लगाना, काजल लगाना, हाथ रंगना, पान खाना तथा स्वयं को फूलमालाओं तथा कर्णफूल, हार, करधनी आदि आभूषणों से सजाना आदि सम्मिलित हैं। हिन्दू महिलाएं अपने केश पीछे की ओर बांधती थीं।
धनी परिवारों की महिलाएं अपनी केशों को सिर के ऊपर शंक्वाकार गूँथकर उनमें सोने-चांदी के कांटे लगाती थीं। नकली केश लगाने का उल्लेख भी मिलता है। हिन्दू स्त्रियां सिन्दूर का टीका लगाने तथा उससे मांग भरने को शुभ मानती थीं। आंखों में काजल लगाती थीं तथा पलकों को रंगने के लिए सुरमे का प्रयोग करती थीं। भारतीय स्त्रियां अपने हाथों और पांवों में मेहन्दी लगाती थीं।
मुंह पर लगाने के लिए ‘गलगुना’ और ‘गाजा’ (लाल रंग) का प्रयोग किया जाता था। केश संवारने में लकड़ी, पीतल एवं हाथी दांत की कंघियों का प्रयोग होता था। अकबर ने शाही परिवार की सुगन्धित पदार्थों की आवश्यकताएं पूरी करने के लिए शेख मन्सूर की अध्यक्षता में ‘खुशबूखाना’ स्थापित किया था। जहाँगीर की बेगम नूरजहाँ की माँ ने गुलाब से एक नवीन इत्र का निर्माण किया था जिसका नाम ‘इत्र-ए-जहाँगीरी’ रखा गया। नूरजहाँ स्वयं भी फूलों से इत्र तैयार करती थी और वह विभिन्न डिजाइनों के सुंदर कपड़े डिजाइन करती थी। उन पर चित्र भी बनाती थी।
आभूषण
सभ्यता के विकास के साथ ही स्त्रियों में आभूषणों के प्रति बोध उत्पन्न हुआ। वे अपने शरीर के विभिन्न अंगों को फूल, कौड़ी, छोटे शंख, मिट्टी, ताम्बे एवं सोने के बने मनकों तथा सिक्कों आदि से सजाती थीं। अत्यंत प्राचीन काल से ही हार, ताबीज एवं मनके मिलने लगते हैं।
मुगलकालीन लेखक अबुल फजल ने सैंतीस आभूषणों का उल्लेख किया है। चौक, मांग, कतबिलादर (संभवतः आधुनिक चंद्रमान), सेकर और बिंदुली आदि आभूषण सिर और ललाट पर धारण किए जाते थे। कर्णफूल, पीपल पत्ती, मोर भांवर और बाली कानों में पहने जाते थे। नाक में पहनने के आभूषणों की शुरुआत संभवतः मुसलमानों ने की थी। इनमें ‘नथ’ और ‘बेसर’ अधिक प्रचलित थे।
हिन्दू स्त्रियां सिर के आगे के भाग में सोने-चांदी का टीका या बोर धारण करती थीं। टीका माथे पर झूलता रहता था जबकि बोर माथे के अगले भाग पर स्थिर रहता था। नाक के बाएं भाग में सोने-चांदी की लौंग पहनी जाती थी जिसके आगे के भाग में मोती, हीरा या अन्य कीमती पत्थर जड़ा जाता था। गले में सोने-चांदी के हार पहने जाते थे जिनमें हीरे, जवाहरात एवं मोती आदि से बने नग जड़े जाते थे।
हार एक लड़ी से लेकर कई लड़ी के भी होते थे। धनी स्त्रियों के हार में पांच-सात लड़ियां होती थीं। हाथ के ऊपरी भाग में बाजूबन्द या तोड़े पहने जाते थे और कलाई में कंगन, चूड़ी एवं गजरा पहने जाते थे। कमर में तगड़ी, क्षुद्र खंटिका, कटि मेखला एवं सोने की पेटी धारण की जाती थी। अंगुलियों में अंगूठियां पहनी जाती थीं। पैरों में जेहर, घुंघरू, पायल आदि पहनते थे। पैरों की अंगुलियों में झांक, बिछुआ तथा आंवट पहने जाते थे।
हिन्दू पुरुष कानों में कर्णफूल, गले में साने की चेन तथा अंगुलियों में अंगूठियाँ पहनते थे। राजपूत पुरुषों में ‘कर्णफूल’ धारण करना अनिवार्य था। मुसलमान पुरुष आभूषणों के विरोधी थे, फिर भी कुछ मुसलमान ‘ताबीज’ और ‘गण्डा’ आदि पहनते थे। सुल्तान और मुगल बादशाह सोने, चांदी, हीरे, माणिक आदि के आभूषण पहनते थे।
सर टॉमस रो ने उल्लेख किया है कि- ‘जहाँगीर अपने जन्मदिन पर कीमती वस्त्रों तथा हीरे-जवाहर के आभूषणों से सजकर प्रजा के समक्ष आता था। उसकी पगड़ी सुंदर पक्षी के पंखों से सजी रहती थी, जिसमें एक ओर काफी बड़े आकार का माणिक, दूसरी ओर बड़े आकार का हीरा तथा बीच में हृदय की आकृति का पन्ना सुशोभित होता था। कन्धों पर मोतियों और हीरों की लड़ियां झूलती थीं तथा गले में मोतियों के तीन जोड़े हार होते थे। बाजुओं में हीरे के बाजूबन्द तथा कलाई में हीरे के तीन कंगन होते थे। हाथ की प्रायः प्रत्येक अंगुली में अंगूठी होती थी।’
बहूमूल्य हीरों की बनी ‘मांग टीका’ की कीमत पांच लाख टका तक हो सकती थी। सोने और चांदी के काम में गुजराती हिन्दू स्वर्णकार अधिक विख्यात थे। एक चतुर कारीगर की फीस 64 दाम प्रति तोला थी।
भोजन
मध्य-कालीन भारतीय समाज में हिन्दुओं एवं मुसलमानों के भोजन में मांस के अतिरिक्त कोई विशेष अंतर नहीं था। हिन्दुओं के भोजन में विभिन्न प्रकार के अनाज एवं दाल, दूध, दही, मक्खन तथा तेल आदि से बने कई तरह के व्यंजन होते थे। धनी लोग अपने भोजन में गेहूँ एवं मक्का का आटा एवं दलिया, चावल, बेसन तथा उबली हुई सब्जियों का प्रयोग करते थे। उत्तर प्रदेश, बिहार और उड़ीसा के धनी लोग पूड़ी और लूची का अधिक प्रयोग करते थे।
वे चावल के साथ बादाम, किशमिश आदि मिलाकर पुलाव तथा अन्य व्यंजन तैयार करते थे। सामान्यतः दाल-भात खाया जाता था। अल्पाहार में दही-चिउड़ा का प्रयोग अधिक होता था। मिष्ठान्न में हलवा, लापसी, खीर, मीठे चावल एवं मीठे दलिया का अधिक प्रचलन था। ब्राह्मण, वैश्य, जैन, बौद्ध-भिक्षु एवं अन्य उच्च वर्ग के लोग मांस, मछली, अण्डा, प्याज, लहसुन जैसे तामसिक भोजन को घृणास्पद मानते थे किंतु राजपूत इनका प्रयोग करते थे।
समाज में निम्न समझी जाने वाली जातियाँ भी मांस-मछली एवं अण्डे का प्रयोग करती थीं। दक्षिणी भारत के हिन्दुओं में सामिश भोजन का प्रचलन बहुत कम था। विदेशी यात्रियों का कथन है कि- ‘हिन्दू मांसाहार की कम जानकारी रखते थे तथा वैसा भोजन नहीं करते थे जिसमें रक्त हो।’ उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात और मध्य भारत में ऐसी बहुत सी जातियां थीं जो मांसाहार से दूर रहती थीं जबकि पंजाब, बंगाल और कश्मीर में कुछ ब्राह्मण भी मांस-मछली खाते थे।
मुसलमान सामिष भोजन अधिक करते थे। मुसलमानों को मांस तथा उसके बने हुए विविध व्यंजन अधिक प्रिय थे। वे मांस-मछली से ‘दूजा ब्रियानी’ और ‘कीमा पुलाव’ बनाया करते थे। अकबर एवं उसके बाद के कुछ मुगल बादशाहों ने पवित्र दिनों में पशुवध का निषेध कर रखा था। अकबर ने पहले, शुक्रवार को फिर रविवार को मांसाहार करना छोड़़ दिया था। जहाँगीर ने अपने पिता के जन्मदिन पर पशुवध की मनाही कर दी थी तथा वह स्वयं सप्ताह में एक दिन व्रत रखता था और उस दिन केवल गुजराती खिचड़ी खाता था।
तुर्की सुल्तान और मुगल बादशाह काबुल से सूखी मेवा, बदख्शां से तरबूज, समरकंद से अंगूर और सेव, याज्द से अनार, यूरोप से अनानास और काबुल से बेर एवं जामुन आदि मंगवाते थे। सूखे मेवे में नारियल, खजूर, मखाना, कमलगट्टा, अखरोट, पिस्ता आदि होते थे। पीने के लिए नदी एवं कुएं आदि का ताजा जल काम में लाया जाता था।
साधारण लोग तालाबों एवं ताल-तलैयों का जल भी पीते थे। हिन्दू राजा, मुगल बादशाह तथा कुछ रईस लोग गंगाजल को स्वास्थ्यवर्धक और पवित्र मानते थे। अन्य नदियों का जल भी मंगवाया जाता था। मुगल बादशाह बर्फ के शौकीन थे। अमीर एवं उच्च वर्ग के मुसलमान विभिन्न प्रकार के पशु-पक्षियों के मांस एवं अण्डों से विभिन्न प्रकार के व्यंजन तैयार करवाते थे।
साधारण वर्ग के लोगों के भोजन में दलिया, खिचड़ी, भात एवं पुलाव आदि का अधिक प्रयोग होता था। दक्षिण में लोगों का मुख्य भोजन चावल था। गुजराती लोग चावल और दही पसन्द करते थे। कश्मीरियों के भोजन में उबले चावल तथा नमकीन उबली सब्जियों की प्रमुखता थी। उत्तर के लोगों में गेहूँ, ज्वार या बाजरा की चपातियां खाई जाती थीं। बेझर एवं मिस्सी रोटियों का भी प्रचलन था। धनी एवं मध्यमवर्गीय लोग दिन में तीन बार तथा निर्धन लोग दिन में दो बार भोजन करते थे एवं दोपहर में चने तथा भुने हुए अनाज खाते थे।
माद्रक द्रव्य
मध्य-काल में प्रयोग किए जाने वाले मादक द्रव्यों में मुख्यतः शराब, अफीम, भांग और तम्बाकू थे। कुछ लोग गांजा एवं सुल्फा भी पीते थे। पान, चाय और कॉफी को भी माद्रक द्रव्य माना जाता था। जन-सामान्य मादक द्रव्यों के सेवन को दुर्गुण मानता था। अल्लाउद्दीन खलजी आदि तुर्की सुल्तानों और जहाँगीर एवं औरंगजेब आदि कुछ मुगल बादशाहों ने अपने शासन में मद्य-सेवन पर प्रतिबंध लगाए। बाबर मद्यपान करता था किंतु उसने अपनी सेना पर अपने नैतिक प्रभाव में वृद्धि करने के उद्देश्य से मद्यपान त्याग दिया था।
अकबर, जहाँगीर एवं शाहजहाँ भी मदिरापान करते थे किंतु औरंगजेब मद्यपान नहीं करता था। अधिकांश मुगल अमीर भी मद्यपान करते थे। मुगल काल में देशी शराब की विख्यात किस्मों में ताड़ी, नीरा, महुआ, खेरा, बधचार और जागरे प्रमुख थीं। पुर्तगाल और फारस से उत्तम किस्म की शराब मंगायी जाती थी।
राजपूतों में अफीम का सेवन अधिक प्रचलित था। वे युद्धकाल में अफीम का सेवन अधिक करते थे। कुछ मुगल बादशाह भी अफीम का सेवन करते थे। आरम्भ में भारत में तम्बाखू पैदा नहीं होता था किंतु पुर्तगाली अपने साथ पहली बार तम्बाखू लेकर आए। जन-साधारण में कुछ ही वर्षों में तम्बाखू पीने की लत इतनी अधिक बढ़ गई कि ई.1617 में जहाँगीर ने तम्बाखू के सेवन पर रोक लगाई किंतु जनता पर इस रोक का कोई असर नहीं हुआ।
इटावली यात्री मानुसी ने लिखा है कि अकेले दिल्ली में तम्बाकू पर लगाई गई चुंगी से प्रतिदिन 5,000 रुपये की आय होती थी। जहाँगीर ने ‘भांग’ को अस्वास्थ्यकर मानकर उसके सेवन पर रोक लगाई। सुसंस्कृत परिवारों में चाय और कॉफी को भी नशा माना जाता था। इनका प्रचलन कोरोमंडल के तटवर्ती क्षेत्रों में अधिक था।
मध्य-कालीन आवास
मध्य-कालीन समाज में आज की ही तरह अमीरों के घर बड़े, पक्के एवं महंगे होते थे जबकि गरीबों के घर छोटे, कच्चे एवं सस्ते होते थे। घरों का निर्माण जलवायुवीय आवश्यकताओं के आधार पर होता था। देश के गर्म हिस्सों में जालीदार खिड़कियां और झरोखे अधिक बनाए जाते थे ताकि प्रकाश और वायु का आगमन निर्बाध रूप से हो। जबकि ठण्डे क्षेत्रों में खिड़कियां छोटी रखी जाती थीं। जिन क्षेत्रों में वर्षा अधिक होती थी या बर्फ गिरती थी, उन क्षेत्रों में घरों की छतें ढलवां बनाई जाती थीं।
शाही आवास: शाही आवास प्रायः किसी दुर्ग के भीतर बनाए जाते थे। ये दुर्ग किसी बड़ी नदी या पहाड़ी झरने के निकट होते थे। राजमहलों एवं शाही महलों में मुख्य प्रवेश द्वार के निकट मर्दाना महल एवं भीतर की ओर ‘जनाना’ महल एवं ड्यौढ़ी बनाए जाते थे। शाही महलों में दीवाने आम, दीवाने-ए-खास, शस्त्रागार, भण्डार, खजाना, घुड़साल, नक्कारखाना आदि भी बनाए जाते थे।
जनाना महलों में छोटे झरोखे होते थे जिनमें से हरम अथवा अन्तःपुर की औरतें संगीत समारोह, पशुओं की लड़ाई एवं दरबार की कार्यवाही आदि देखती थीं। महलों के चारों ओर बाग, बारादरी, फव्वारे और जलाशय बनाए जाते थे। मुगलों द्वारा बनाए गए भवनों में लाल बलुआ पत्थर एवं संगमरमर का प्रयोग अधिक होता था।
धनी लोगों के आवास: धनी लोगों के घर भी ‘मर्दाना’ और ‘जनाना’ दो हिस्सों में बनाए जाते थे। अतिथियों के लिए दीवान या बैठक, सोने के लिए शयनकक्ष, भोजन पकाने के लिए रसोई एवं नहाने के लिए स्नानागार बनाए जाते थे। अमीरों के घरों में शौचालय भी होते थे। प्रायः घर के मध्य में एक बड़ा सा आंगन होता था। औरतों की अधिकतर गतिविधियां प्रायः इसी आंगन में होती थीं।
घरों के ऊपर प्रायः समतल छत होती थी, जहां गर्मियों में रात के समय परिवार के लोग खुले में सोते थे। छत पर प्रायः एक कक्ष या छतदार बरामदा होता था जिसे बरसाती कहते थे जहाँ वर्षा के समय सोया जा सकता था। धनी लोगों के घरों के चारों ओर उद्यान लगाया जाता था। प्रायः साग-सब्जियों एवं पूजा के लिए फूलों की वाटिकाएं भी होती थीं। व्यापारियों के घर ईंट और चूने से बहुमंजिले भवन के रूप में बनते थे। मलाबार में धनिकों के घर टीक की लकड़ी से बनाए जाते थे, जो प्रायः दो मंजिले होते थे।
सोने के लिए खाट और पलंग का प्रयोग होता था। धनी लोगों के घरों में लकड़ी की आराम-कुर्सियां होती थीं। रईस लोगों के पलंगों एवं खाटों पर कीमती बिछावन और तकिए होते थे। वे लोग जाड़ों में कम्बल एवं गर्मियों में मच्छरदानी का प्रयोग करते थे। रईसों की बैठकें कालीनों से सजाई जाती थीं। बैठकों में गोलाकार गाव-तकिये या मसनद होते थे।
हाथ से झलने वाले पंखों का भी चलन था। ये पंखे ताड़पत्र, हाथीदांत, जरी, रेशम, मोटे कागज आदि से बनते थे। अमीरों की हवेलियों में दास-दासियां पंखे झलते थे। छत की कड़ियों से बड़े-बड़े पंखों को लटकाया जाता था जिन्हें कक्ष के बाहर बैठे सेवक डोरी से खींचते थे। बादशाह या अमीरों के यहाँ पंखे के हत्थे सोने या चांदी के होते थे, जिनमें हीरे-जवाहरात जड़े होते थे।
जन-साधारण के आवास: साधारण आय वाले लोगों के घर रईसों के घरों की तुलना में छोटे और साधारण होते थे। यदि घर मुख्य सड़क पर होता था तो नीचे की मंजिल में दुकानों के लिए कुछ स्थान आगे की ओर निकाल दिया जाता था। घरों की छत के साथ छज्जे भी होते थे जिनसे मकानों की दीवारों पर छाया रहती थी तथा धूप एवं वर्षा से बचाव होता था। दीवारों पर सफेदी पोती जाती थी। मध्यम वर्गीय लोगों के घर प्रायः पक्के एवं एक-दो मंजिल के होते थे जबकि निम्न मध्यमवर्गीय लोगों के घर कच्चे एवं एक-मंजिले होते थे।
निर्धन लोगों के आवास: निर्धन घास-फूस की झोंपड़ियों में रहते थे जिनमें कोई खिड़की या अलग कोठरी नहीं होती थी। एक झोंपड़ी में ही पूरा परिवार रहता था। दो झोंपड़ियों को मिलाकर बड़ा घर तैयार करना विशेष बात समझी जाती थी। झोंपड़ी का एक दरवाजा प्रवेश द्वार के रूप में होता था। कच्चे घरों एवं झौंपड़ियों के आंगन तथा दीवारें मिट्टी और गोबर से लीपे जाते थे।
कश्मीर में अधिकांश घर लकड़ी से बनते थे। बहुत-से लोग नावों पर भी रहते थे। झौंपड़ियों एवं कच्चे घरों में सोने के लिए प्रायः चटाई का प्रयोग होता था। गरीब लोग बिछावन के लिए केवल दरी या चादर का प्रयोग करते थे। गरीब लोग ताड़ और नारियल के पत्तों से बने पंखे प्रयोग करते थे।