कुल-धर्म
वर्णधर्म और आश्रम धर्म के साथ-साथ मनुष्य को अपने कुल-धर्म का भी पालन करना होता था। इसके अंतर्गत पारिवारिक और वंशगत नियमों तथा आचारों की पालना करनी होती थी। व्यक्ति का परिवार के सदस्यों के प्रति व्यवहार तथा कर्त्तव्य-पालन ही कुलधर्म का मुख्य अंग थे। पिता-धर्म, माता-धर्म, पति-धर्म, पुत्र धर्म, भ्रातृ-धर्म आदि कुल-धर्म के ही अंग हैं।
पिता का धर्म अपनी सन्तान और परिवार के अन्य सदस्यों की आवश्यकताओं का ध्यान रखना है। माता का धर्म अपनी समस्त सन्तानों के प्रति प्रेम और परिवार के अन्य सदस्यों की सुविधाओं आदि का ध्यान रखना है। पति का धर्म अपनी पत्नी, सन्तान, माता-पिता आदि के साथ यथोचित व्यवहार तथा विनम्रता और सहानुभूति पूर्वक व्यवहार करना है।
पत्नी का धर्म पति की सेवा, यौन-पवित्रता, सम-व्यवहार, बड़ों का आदर और छोटों से प्रेम तथा अपने उत्तरदायित्वों का निर्वाह करना है। पुत्र का धर्म अपने से बड़ों का आदर-सत्कार करना, माता-पिता की आशाओं को पूरा करना और देव-ऋण, ऋषि-ऋण, पितृ-ऋण से मुक्त होना है। कन्या के प्रति माता-पिता का कर्त्तव्य तथा कन्या का माता-पिता एवं परिवार के अन्य सदस्यों के प्रति कर्त्तव्य कुल-धर्म का ही अंग है।
युग-धर्म
युग-धर्म साधारण धर्म से अलग होता है। यह काल के अनुसार परिवर्तित हो जाता है। युग के अनुसार नैतिक आदर्श, कार्य-प्रणाली, आचार-विचार, व्यवहार, सांस्कृतिक प्रतिमान और नियम परिवर्तित होते रहते हैं। सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग और कलियुग तत्कालीन समय के धर्म और आदर्श को व्यक्त करते हैं। सतयुग तप-धर्म के लिए, त्रेतायुग ज्ञान-धर्म के लिए, द्वापर युग यज्ञ-धर्म के लिए और कलियुग दान-धर्म की प्रधानता होती है।
राज-धर्म
राजा के लिए निर्धारित किए गए आदर्श एवं कर्त्तव्य साधारण जन के आदर्शों एवं कर्त्तव्यों से भिन्न हो सकते हैं। राजा को अपने स्वार्थ की रक्षा करने की बजाए प्रजा-हित पर अधिक ध्यान देना होता है तथा प्रजा में आदर्श स्थापित करने के लिए अपने सम्बन्ध में अप्रिय निर्णय लेने पड़ते हैं। राजा को प्रजा पर अपनी इच्छा आरोपित करने की बजाए धर्म के अनुसार शासन करना होता है तथा प्रजा को अपनी सन्तान मानकर उसके कल्याण के उपाय करने होते हैं।
राजा के प्रायः तीन प्रधान धर्म थे- (1.) बाह्य आक्रमण से देश की रक्षा करना, (2.) देश और समाज को नियंत्रित रखना और (3.) समाज के लोगों को वर्णाश्रम धर्म पर चलने के लिए प्रेरित करना। राजा के लिए धर्म और नीति का ज्ञान होना अनिवार्य था। महाभारत के अनुसार धर्म का अनुपालन करने से राजा स्वर्ग का भागी होता है और अधर्म का अनुगमन करने पर नर्क का। सज्जन लोगों की रक्षा करना, दुर्जन लोगों को दण्डित करना तथा राज्य में सुख शान्ति और समृद्धि बनाए रखना राजा के मुख्य कर्त्तव्य थे।
स्वधर्म
परिवार और समाज के प्रति प्रत्येक मनुष्य के कुछ कर्त्तव्य एवं उत्तरदायित्व होते हैं। परिस्थिति के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति के कर्त्तव्य एवं उत्तरदायित्व भिन्न हो सकते हैं। इन्हीं कर्त्तव्यों को व्यक्ति का स्वधर्म कहा जाता है। पिता, माता, पुत्र, पुत्री आदि की स्थितियाँ धर्म के अनुसार भिन्न हैं, इसलिए उनके कर्त्तव्य भी भिन्न हैं।
वर्णाश्रम व्यवस्था के अन्तर्गत मनुष्य जिन नैतिक कर्त्तव्यों का पालन करता है, वे कर्त्तव्य भी स्वधर्म के ही भाग हैं। भगवद् गीता के अनुसार अच्छी प्रकार आचरण में लाये हुए परधर्म से, गुणरहित स्वधर्म श्रेष्ठ है। स्वधर्म में मरना भी कल्याणकारक है, परधर्म भय उत्पन्न करने वाला है- ‘श्रेयान्स्व धर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्। स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो मृत्यु भयावहा।’ यहाँ स्वधर्म का आशय वर्णाश्रम धर्म एवं मनुष्य के निजी कर्त्तव्य से है।
आपद्धर्म
परिस्थितियों के प्रतिकूल होने पर अथवा विपत्तिकाल में मनुष्य को साधरण धर्म का पालन करने से शिथिलता मिल जाती थी एवं वह आपद्धर्म का पालन कर सकता था। एक वर्ण के सदस्य विशेष परिस्थितियों में दूसरे वर्ण के धर्म को अपना सकते थे। ब्राह्मण क्षत्रिय अथवा वैश्य का, क्षत्रिय वैश्य का और वैश्य शूद्र का काम कर सकता था। ऐसी स्थिति में व्यक्ति का जन्म के वर्ण से सम्बन्धित कर्त्तव्य छूट जाता था तथा वह दूसरे वर्ण के कर्त्तव्य अपनाकर जीविकोपार्जन करता था।
शत्रु से घिर जाने पर राजा, अपने कुल एवं देश की रक्षार्थ युद्ध का त्याग कर सकता था। वह विपत्तिकाल में किसी ब्राह्मण, क्षत्रिय अथवा वैश्य के घर में छिपकर रहता था तथा शत्रु को धोखा देने एवं राजा या राजकुमार के प्राण बचाने के लिए ब्राह्मण उसे अपनी थाली में भोजन करवाता था। इस प्रकार वर्ण-विरुद्ध आचरण करने से भी ब्राह्मण अथवा क्षत्रिय को दोष नहीं लगता था।
अर्थ
अर्थ रूपी पुरुषार्थ का आशय धन-सम्पत्ति एवं समृद्धि अर्जित करने से है। इसे दूसरा पुरुषार्थ माना गया है। धन के बिना समाज, परिवार एवं व्यक्ति का कार्य नहीं चल सकता किंतु धन में लालसा नहीं रखने को उच्च आदर्श माना जाता था। इस प्रकार भारतीय संस्कृति अर्थार्जन एवं निस्पृह जीवन के बीच संतुलन स्थापित करती है। ऋग्वैदिक आर्य धन-सम्पत्ति, गौ-अश्व आदि की वृद्धि के लिए देवताओं से प्रार्थना करते थे।
अतः अर्थ का अभिप्राय अत्यन्त विस्तृत है। यजुर्वेद की एक ऋचा के अनुसार ‘अर्थ समस्त लोक-व्यवहारों का मूल है।’ इसके बिना मनुष्य के लौकिक एवं पारलौकिक दायित्व सम्पादित नहीं हो सकते। वैदिक ऋचाओं में भी ‘अर्थ’ की कामना की गई है। शास्त्रों में अर्थ का उपार्जन धर्मानुकूल कार्यों से करने का निर्देश दिया गया है। परिवार के भरण-पोषण तथा उसे समृद्ध एवं उन्नतिशील बनाने में अर्थ रूपी पुरुषार्थ का महत्त्वपूर्ण योगदान है।
कौटिल्य ने अपने ग्रंथ ‘अर्थशास्त्र’ में मानव जीवन में अर्थ की महत्ता को सर्वोपरि मान्यता देते हुए लिखा है कि धर्म और काम दोनों अर्थमूलक ही होते हैं। अर्थात् इन दोनों का अस्तित्त्व अर्थ पर ही निर्भर है। लोक निर्वाह भी अर्थ के माध्यम से हो सकता है। जब ऋषि याज्ञवल्क्य राजा जनक के यहाँ पहुँचे तब जनक ने उनसे पूछा- ‘आपको धन और पशु चाहिए या शास्त्रार्थ और विजय?’
ऋषि याज्ञवल्क्य ने उत्तर दिया कि दोनों चाहिए। निश्चय ही याज्ञवल्क्य की दृष्टि में अर्थ का भी महत्त्व था। कौटिल्य के अनुसार ‘काम से धर्म और धर्म से अर्थ श्रेष्ठ समझना चाहिए।’ यद्यपि मनुष्य जीवन में अर्थ की प्रधानता अपरिहार्य है किन्तु पुरुषार्थ में स्वीकृत ‘अर्थ’ का आशय धर्मपूर्वक अर्जित अर्थ से है।
महाभारत में कहा गया है कि अर्थ उच्चतम धर्म है। प्रत्येक वस्तु उस पर निर्भर करती है। अर्थ-सम्पन्न लोग सुख से रह सकते हैं। किसी व्यक्ति के धन का क्षय करके उसके त्रिवर्ग (धर्म, काम और मोक्ष) को प्रभावित किया जा सकता है। धन को काम और धर्म का आधार माना गया है। इसी से स्वर्ग का मार्ग प्रशस्त होता है। धर्म-स्थापन के लिए अर्थ अनिवार्य है क्योंकि इसी से धार्मिक कृत्य सम्पन्न किए जा सकते हैं।
जो व्यक्ति धन से क्षीण है, वह धर्म से भी क्षीण है, क्योंकि धार्मिक कार्यों में धन की आवश्यकता होती है। अर्थविहीन व्यक्ति ग्रीष्म की सूखी सरिता के समान कहा गया है। बृहस्पति-सूत्र में कहा गया है कि अर्थ-सम्पन्न व्यक्ति के पास मित्र, धर्म, विद्या, गुण आदि सब-कुछ होता है जबकि अर्थहीन व्यक्ति मृतक अथवा चाण्डाल के समान होता है। इस प्रकार अर्थ ही जगत् का मूल है।
अनेक शास्त्रकारों ने अर्थ को जीवन का प्रधान साधन माना है तथा किसी भी स्थिति में अर्थ का जीवन से अलगाव स्वीकार नहीं किया है। धनी व्यक्ति अच्छे कुल और उच्च स्थिति का माना जाता है। वह पण्डित, वेदज्ञ (वेदों का ज्ञाता), वक्ता, गुणज्ञ एवं दर्शनीय माना जाता है। इस प्रकार धन में समस्त गुण समाहित हो जाते है। आपस्तम्ब धर्मसूत्र ने मनुष्य को धर्मानुकल समस्त सुखों का उपभोग करने के लिए निर्दिष्ट किया है।
धर्मशास्त्रों में अर्थ-शक्ति की निन्दा भी की गई है। मनु ने लिखा है- ‘जो व्यक्ति अर्थ और काम के प्रति अनासक्त है, उसी के लिए धर्म का विधान है।’ जब अर्थोपार्जन के साधन दूषित हो जाते हैं, जब अर्थ प्राप्ति के लिए हिंसा का आश्रय लेना पड़ता है, प्राणियों को पीड़ित किया जाता है, दूसरे व्यक्तियों के स्वत्व का अपहरण किया जाता है और शोषण-पद्धति द्वारा अर्थ-संचय की पाप-युक्त प्रवृत्ति उग्र रूप धारण कर लेती है, ऐसा ‘धन’ गर्हित, त्याज्य और अवांछनीय है। पाप से कमाए गए धन के कारण व्यक्ति मदान्ध एवं हिंसक हो जाते हैं। वेदों में ऐसे लोगों को ‘असुर’ कहा गया है। वेदों के अनुसार धर्मानुसार धन अर्जनीय है।
धन के विविध रूप हैं। मुद्रा, स्वर्ण, अन्न, फल, फूल, मेवा, रत्न, हीरा, माण्क्यि, गाय, घोड़ा, हाथी आदि भी धन ही हैं। बुद्धि, विवेक एवं ज्ञान भी धन हैं। वेदों ने ‘पार्थिव-धन’ एवं ‘दैवीय-धन’ की चर्चा की है। अनेक लोग बाह्य धन की अपेक्षा आन्तरिक धन की अधिक चिन्ता करते हैं परन्तु आन्तरिक धन भी बाह्य धन की उपेक्षा नहीं करता, उसे वह अपना सहायक समझता है। इस प्रकार अर्थ मनुष्य जीवन का अत्यंत महत्वपूर्ण अंग है और इसीलिए वह पुरुषार्थ की श्रेणी में सम्मिलित किया गया है।
काम
मनुष्य जीवन में ‘काम’ को तीसरा पुरुषार्थ माना गया है। इस पुरुषार्थ का भी मनुष्य जीवन में शेष तीनों पुरुषार्थों के समान ही महत्त्व है। काम के दो स्वरूप हैं- (1.) कामना अर्थात् किसी भी वस्तु अथवा सुख को प्राप्त करने की इच्छा। (2.) यौन-सुख अथवा ऐन्द्रिक-इच्छा। पुरुषार्थ रूपी काम का प्रमुख आशय यौन-इच्छाओं से ही है। यह प्राणी मात्र की सहज प्रवृत्ति है जो उसे प्रकृति से मिली है।
संतान प्राप्ति की इच्छा का कारण भले ही कुछ भी हो किंतु संतान प्राप्ति का माध्यम केवल यौन-इच्छा है। यौन-इच्छा अथवा ‘काम’ के वशीभूत होकर प्राणी इस संसार चक्र को आगे बढ़ाने में समर्थ हेाता है। काम-इच्छा के कारण ही मनुष्य पत्नी और सन्तान की कामना करता है। काम-भाव के अंतर्गत यौन-आकर्षण से लेकर स्नेह, प्रेम, वात्सल्य, अनुराग आदि सम्मिलित होते हैं तथा इस भाव का चरम इन्द्रिय-सुख और यौन-इच्छाओं की तृप्ति है।
‘काम’ मनुष्य जीवन में उत्साह एवं आनंद की सृष्टि करता है तथा उसे ऊंचाइयों तक ले जाता है किंतु ‘काम’ का अतिरेक चारित्रिक दुर्बलता एवं महान् दुर्गुण माना जाता है। इसलिए काम का सेवन भी अर्थ की भांति धर्मानुकूल होना चाहिए। सामाजिक मर्यादाओं के बंधन में रहे बिना काम की पूर्ति, व्यक्ति एवं सम्पूर्ण मानव समाज को हीन अवस्था में पहुँचा सकती है तथा उन्हें पशुवत् बना सकती है। अतः काम पर धर्म के बंधन के साथ-साथ सामाजिक मर्यादाओं का भी अंकुश होना चाहिए।
महाभारत में कहा गया है कि ‘धर्म’ सदा ही ‘अर्थ’ प्राप्ति का कारण है और ‘काम’, ‘अर्थ’ का फल है। कौटिल्य ने काम को अन्तिम श्रेणी में रखा है तथा बिना धर्म और अर्थ को बाधा पहुँचाये इसका पालन करने का निर्देश दिया है। मनु ने ‘काम’ को ‘तमोगुण’ माना है। काम को मनुष्य का अन्तिम उद्देश्य मानकर, धर्म और अर्थ की प्राप्ति के बाद ही इसकी ओर देखना चाहिए। फिर भी काम को धर्म का सार माना गया है क्योंकि व्यक्ति की समस्त अन्तर्वृतियाँ ‘काम’ से संचालित होती हैं।
काम के तीन मुख्य आधार माने गए है- जैविकीय, सामाजिक और धार्मिक। व्यक्ति अपनी ‘ऐन्द्रिक-इच्छाओं’ अर्थात् काम-वासनाओं की पूर्ति जैविकीय आधार पर करता है। ऐन्द्रिक-इच्छाओं की तृप्ति न होने पर मनुष्य में निराशा, तनाव, आक्रोश और क्रोध उत्पन्न होता है। जबकि इनकी पूर्ति से व्यक्ति के मन में तृप्ति का भाव आता है। उसके मन को पूर्णता प्राप्त होती है एवं उसके अहंकार की भी पूर्ति होती है। ऐसा मनुष्य संयत्, शीलयुक्त एवं मर्यादित आचरण करता है।
काम-इच्छाओं से तृप्त व्यक्ति धर्म का अनुसरण करता है तथा अंत में ईश्वर को प्राप्त करने की चेष्टा करता है जबकि काम-इच्छाओं की पूर्ति न होने से मनुष्य, ‘कामाग्नि’ में झुलसता रहता है। कामेच्छा पूरी किए बिना उसे दूसरी वस्तुओं की कामना नहीं रह जाती। इसलिए कौटिल्य ने लिखा है- ‘मनुष्य को धर्म, अर्थ और काम का समान भाव से सेवन करना चाहिए।’ इनमें से किसी एक को अपनाने एवं अन्य पुरुषार्थों की उपेक्षा करने से मनुष्य का चिंतन, दृष्टिकोण एवं व्यवहार असंतुलित हो जाते हैं।
अनेक विद्वानों द्वारा ‘काम’ को मात्र ‘यौन-सुख’ मानने की प्रवृत्ति की कटु आलोचना हुई तथा ‘कामना’ को भी ‘काम’ माना गया। यदि ‘काम’ सृष्टि का मूल है तो ‘कामना’ जीवन का आधार है। कामना-रहित जीवन, संभव नहीं है। कामना का मूल मनुष्य के ‘मन’ में ‘काम-रूप’ से विराजमान है।
इसीलिए काम को ‘मनोज’ अर्थात् ‘मन से जन्म लेने वाला’ कहा गया है। ‘काम’ से ही मन में विविध ‘कामनाएँ’ उत्पन्न होती हैं। किसी कामना के उदय होने पर ही हम किसी कार्य को करने के लिए उद्यत होते हैं और उस ‘उद्यम’ का फल कामनाओं की पूर्ति के रूप में प्राप्त होता है।
प्राचीन ऋषिगण किसी न किसी कामना से संयुक्त होकर तपस्या करते थे। कामना के वशीभूत होकर ही ब्राह्मण वेदों का अध्ययन एवं अध्यापन करते थे। कामना से ही मनुष्य श्राद्धकर्म, यज्ञकर्म, दान और प्रतिग्रह में प्रवृत्त होता है। व्यापारी, कृषक, शिल्पी तथा कर्मकार भी किसी न किसी कामना से ही अपने-अपने कर्मों में प्रवृत होते हैं।
बिना कामना के ब्राह्मण भी अच्छे अन्न का भोजन नहीं करते और न ही कोई बिना कामना के ब्राह्मणों को दान देता। मनु ने न तो कामुकता को प्रशंसनीय माना है और न ही काम-विहीन अवस्था को। यदि केवल ‘कामना-विहीनता’ को स्वीकार किया जाए तो सत् कार्यों के मूल में निहित काम का भी परित्याग करना पड़ता है।