गुप्त काल तथा हर्षवर्द्धन काल में वर्ण-व्यवस्था
मौर्योत्तर काल में चातुर्वण्य का जो रूप प्रचलित था, वह गुप्त काल और मध्य काल में भी उसी तरह विद्यमान रहा। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों के चार वर्ण समाज में विद्यमान थे तथा उन्हें उसी वर्ण का माना जाता था, जिस वर्ण में उनका जन्म हुआ था। यही कारण है कि इस युग में अनेक ऐसे राजा हुए जो जन्म से क्षत्रिय नहीं थे।
शुंगों और कण्वों के बाद भी ब्राह्मण कुल में उत्पन्न अनेक व्यक्तियों ने राज्य विजित एवं स्थापित किए किंतु क्षत्रिय कर्म करते हुए भी उन्हें ब्राह्मण वर्ण में ही माना गया। मयूर शर्मा नामक एक ब्राह्मण ने कांची के पल्लव राजा को पराजित कर पल्लव राज्य के एक प्रदेश पर अधिकार कर लिया तथा बनवासी नगरी को राजधानी बनाकर अपना स्वतन्त्र राज्य स्थापित कर लिया।
मयूर शर्मा ने अपनी विजयों के उपलक्ष्य में अठारह बार अश्वमेघ यज्ञ किए। मयूर शर्मा का समय चौथी शताब्दी का मध्य माना जाता है। मयूर शर्मा ने एक नया वंश प्रारम्भ किया जो इतिहास में कदम्ब वंश के नाम से विख्यात हुआ। सातवीं शताब्दी ईस्वी में ह्वेनत्सांग की भारत यात्रा के समय उज्जैन, जिहोती और महेश्वरपुर के राजा ब्राह्मण वर्ण के थे।
कतिपय वैश्य और शूद्र भी राजा बनने में सफल हुए। मगध के गुप्त सम्राट तथा थानेश्वर के वर्धनवंशी राजाओं को भी वैश्य वर्ण का माना जाता है। सातवीं शताब्दी ईस्वी में ह्वेनत्सांग ने सिन्ध के शूद्र राजाओं का उल्लेख किया है। इन तथ्यों से प्रमाणित होता है कि गुप्तकाल और इसके बाद भी वर्ण का आधार जन्म ही था।
हर्ष के काल में भी चातुर्वण्य के वे ही कर्म थे, जो प्राचीन स्मृतिकारों ने निरूपति किए थे। ह्वेनत्सांग ने भी चारों वर्णों का उल्लेख करते हुए उनके वे ही कर्म बताए है जो परम्परागत रूप से प्रतिपादित थे। हर्षवर्धन के ताम्रलेख में हर्षवर्धन को ‘वर्णाश्रम-व्यवस्थापन-प्रवृत्तचक्र’ (वर्णाश्रम धर्मों को व्यवस्थापित करने वाला) कहा गया है।
इससे ज्ञात होता है कि इस युग में भी समस्त वर्णों को अपने-अपने धर्म व कार्यों में स्थिर रखना राजा का कर्त्तव्य माना था। हर्ष कालीन संस्कृत कवि बाण ने ‘हर्षचरितम्’ में राजा हर्षवर्धन को वर्णाश्रम धर्म का पालन करने वाला कहा है। उसने लिखा है कि ‘असंस्कृत ब्राह्मण’ भी अपनी जाति के कारण ‘आदरणीय’ होता है।
मध्य काल में वर्ण-व्यवस्था
मध्य-काल में वर्ण का आधार पूरी तरह ‘जन्म’ हो गया था। जन्म के आधार पर ही किसी को ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र माना जाता था। अब यह कदापि सम्भव नहीं था कि कोई व्यक्ति विद्वता एवं कर्मों के आधार पर ब्राह्मण वर्ण में या वीरता और राजसत्ता के आधार पर क्षत्रिय वर्ण में सम्मिलित हो सके। यदि किसी व्यक्ति का जन्म वैश्य कुल में हुआ था तो विद्वान् एवं याज्ञिक कर्मकाण्डी होने पर भी वह वैश्य ही कहलाता था और सैनिक शक्ति से राज्य प्राप्त करने पर भी वह वैश्य ही समझा जाता था।
दसवीं शताब्दी के अन्त एवं ग्यारहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में भारत आए अरबी विद्वान् अलबरूनी ने लिखा है- ‘समाज के विभिन्न वर्गों के अपने-अपने कर्म नियत थे तथा राजा का यह कर्त्तव्य था कि वह किसी भी व्यक्ति को अपने वर्ण के कार्यों का अतिक्रमण न करने दे। जो व्यक्ति अपने वर्ण के कर्म का अतिक्रमण करता था, उसे दण्ड दिया जाता था।’
ब्राह्मण वर्ण: मध्य-कालीन समाज में ब्राह्मणों की स्थिति सर्वोच्च थी, चाहे वह अयोग्य या भ्रष्ट ही क्यों न हो। अलबरूनी ने भी समाज में ब्राह्मणों की स्थिति सर्वोच्च बताई है। उसे यज्ञ करने, वेदों का अध्ययन-अध्यापन करने, दान लेने का अधिकार था।
क्षत्रिय वर्ण: क्षत्रिय वर्ण परम्परागत रूप से युद्ध करने एवं राज्य व्यवस्था चलाने तक सीमित था। उसे यज्ञ करने, शिक्षा प्राप्त करने एवं दान देने का अधिकार था। शासक के रूप में उसका कर्त्तव्य था कि वह प्रजा को अपने स्वधर्म पर अडिग रखे।
वैश्य एवं शूद्र वर्ण: उत्तरवैदिक-काल में कृषि करने के साथ-साथ पढ़ना और यज्ञ करना भी वैश्यों के कार्य थे किन्तु जब वैश्य वेदादि के अध्ययन की उपेक्षा करने लगे और उनकी शिक्षा, व्यावसायिक प्रवीणता प्राप्त करने तक सीमित हो गई तब उनका सामाजिक स्तर शिल्पियों के समान होने लगा। उस काल में शिल्पियों की गणना वैश्यों में होती थी।
कौटिल्य (चौथी शताब्दी ईस्वी पूर्व) ने अपने ग्रंथ ‘अर्थशास्त्र’ में कृषि करने वालों को शूद्रों में सम्मिलित किया है। चूंकि वैश्य और शूद्र दोनों वर्ण, शिल्प तथा कृषि कर्म करते थे इसलिए मौर्य काल में उनकी सामाजिक स्थिति में कोई विशेष अन्तर नहीं रह गया था। पतन्जलि (दूसरी शताब्दी ईस्वी पूर्व) के अनुसार शिल्पी शूद्र वर्ण में माने जाते थे। मध्य-काल में वैश्य वर्ण में दो भेद थे। वैश्यों का एक वर्ग समृद्ध श्रष्ठियों एवं सार्थवाहों का था तथा दूसरा वर्ग शिल्पियों एवं कृषकों का। अलबरूनी ने लिखा है कि वैश्य और शूद्र में विशेष अन्तर नहीं है।
निष्कर्ष
उपरोक्त विवेचन से निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि वर्ण व्यवस्था प्रारम्भ में त्वचा के रंग के आधार पर बनी थी जिसमें आर्यों के गौर वर्ण और अनार्यों के कृष्ण वर्ण में भेद किया गया था। इस व्यवस्था की स्थापना आर्य जाति के रक्त की शुद्धता को बनाए रखने के लिए हुई थी।
बाद में इस व्यवस्था में श्रेष्ठता का भाव जुड़ जाने से आर्यों को उच्च वर्ण एवं अनार्यों को निम्न वर्ण का माना गया। समाज में धार्मिक, राजनीतिक एवं आर्थिक गतिविधियों के विकास के साथ ही आर्यों के भीतर एक नई तरह की वर्ण व्यवस्था का विकास हुआ और ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र वर्ण अस्तित्व में आए।
प्रारम्भ में कोई भी व्यक्ति अपनी योग्यता बढ़ाकर अपना कार्य और अपना वर्ण बदल सकता था किंतु कालांतर में प्रत्येक वर्ण के लिए स्वधर्म निर्धारित किए गए। ब्राह्मणों के लिए वेदों का अध्ययन-अध्यापन, यजन-याजन आदि कार्य प्रमुख थे। क्षत्रियों के लिए युद्ध करना स्वधर्म माना गया।
वैश्यों के लिए कृषि एवं व्यापार प्रधान कार्य माने गए। शूद्रों के लिए शेष तीनों उच्च वर्णों की सेवा करना एवं शिल्प सम्बन्धी कार्य करना ही उनका स्वधर्म था। समय के साथ प्रत्येक वर्ण के लिए स्वधर्म का निर्वहन अनिवार्य हो गया। राजा का यह कर्त्तव्य माना गया कि वह प्रजा को स्वधर्म पर दृढ़ रहने के लिए बाध्य करे।
जैसे-जैसे वर्ण व्यवस्था के बंधन दृढ़ होते चले गए वैसे-वैसे लोगों के लिए अपने स्वधर्म को त्यागकर अन्य वर्ण के कार्य करना वर्जित हो गया। इस प्रकार वर्ण का निर्धारण ‘जन्म’ से होने लगा।