Sunday, November 24, 2024
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अध्याय – 21 : गुप्त कालीन भारत

गुप्त-कालीन समाज में बाह्य संस्कृति को आत्मसात् करने की अपूर्व क्षमता थी। यही कारण है कि शक, कुषाण, पह्लव आदि विदेशी संस्कृतियां, जो गुप्त साम्राज्य की स्थापना के पूर्व से भारत में निवास कर रही थीं, गुप्तों के प्रतापी शासन काल में भारतीयों में घुल-मिल कर अपना अस्तित्त्व खो बैठीं।

सामाजिक जीवन

गुप्तकालीन भारतीय समाज बड़ा ही प्रगतिशील था। गुप्त शासकों द्वारा वैदिक संस्कृति का पुनरुत्थान किये जाने के कारण समाज में वैदिक धर्म की प्रधानता व्याप्त हो गई। इससे लोगों का सामाजिक जीवन सुख, शांति, सदाचरण एवं सहयोग से परिपूर्ण हो गया।

जाति प्रथा: मौर्य काल से भी पहले से चले आ रहे बौद्ध तथा जैन-धर्मों के प्रचार के कारण गुप्त काल आते-आते, समाज में जाति-प्रथा के बन्धन शिथिल पड़ गये थे परन्तु इस काल में जाति-प्रथा अपने पूर्व स्वरूप में सुदृढ़ बन गई। ब्राह्मणों को फिर से सर्वश्रेष्ठ माना जाने लगा। समाज में उनका आदर-सत्कार फिर से बहुत बढ़ गया। फाह्यान के विवरण से ज्ञात होता है कि उस काल में चाण्डालों की निकृष्ट जाति पैदा हो गई जो घृणा की दृष्टि से देखी जाती थी। चाण्डाल, नगर से बाहर रहते थे। जब वे नगर में प्रवेश करते थे तब उन्हें लकड़ी बजाते हुए चलना पड़ता था जिससे लोगों को चाण्डालों के आने की सूचना मिल जाय और वे मार्ग से अलग हो जायें।

विवाह: वैदिक वर्ण व्यवस्था का प्रचार होने से उस काल में जाति के भीतर विवाह अच्छे समझे जाते थे किंतु अन्तर्जातीय विवाहों का भी प्रचलन था। क्षत्रिय गुप्त सम्राटों ने ब्राह्मण माने जाने वाले वाकाटक वंश के साथ वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित किये। इस काल में विधवा विवाह का भी प्रचलन था। चन्द्रगुुप्त द्वितीय ने अपने भाई रामगुप्त की विधवा ध्रुवदेवी के साथ विवाह किया था। बहु-विवाह की प्रथा का भी प्रचलन इस युग में था। इस काल में अनमेल वृद्ध-विवाहों के उदाहरण भी मिलते हैं।

स्त्रियों की दशा: इस काल में स्त्रियों की दशा बहुत अच्छी थी। उन पर किसी तरह के अत्याचार नहीं थे। पर्दे की प्रथा प्रचलन में नहीं थी और स्त्रियाँ स्वतंत्रता पूर्वक बाहर आ जा सकती थीं, परन्तु घर से बाहर निकलते समय वे अपनी देह पर अलग से कपड़े का आवरण डाल लेती थीं। उस काल के विद्वानों ने अपने ग्रन्थों में सती प्रथा की ओर भी संकेत किया है।

दास-प्रथा: गुप्तकाल में दास-प्रथा का प्रचलन था। युद्ध बंदी प्रायः दास बना लिये जाते थे। ऋण न चुकाने पर ऋणी लोग अपने ऋणदाता के दास बन जाते थे। यदि कोई जुआरी जुए में हार जाता था तो वह भी दासता के बन्धन में फँस जाता था परन्तु यह दासता आजीवन नहीं होती थी। कैद से छूट जाने, ऋण चुका देने तथा जुए में हारे हुए धन को चुका देने पर दासता समाप्त हो जाती थी।

खान-पान: अंहिसा-धर्म के प्रचार के कारण भारतीय समाज धीरे-धीरे शाकाहारी होता जा रहा था और मांस-भक्षण धीरे-धीरे कम होता जा रहा था। चीनी यात्री फाह्यान ने तो यहाँ तक लिखा है कि चाण्डालों के अतिरिक्त (जो समाज में बड़ी घृणा की दृष्टि से देखे जाते थे) कोई भी व्यक्ति मांस, मदिरा लहसुन, प्याज आदि का सेवन नहीं करता था। इससे यह प्रकट है कि हिन्दू लोग खान-पान में शुद्धता तथा सात्त्विकता का ध्यान रखते थे।

आर्थिक दशा

गुप्त-काल आर्थिक दृष्टि से बड़े़ गौरव का युग था। इस काल में देश धन-धान्य पूर्ण था। जनता बड़ी सुखी तथा सम्पन्न थी।

कृषि: इस काल में कृषि ही लोगों का मुुख्य व्यवसाय था। मनुस्मृति में पांच प्रकार की भूमियों का उल्लेख किया गया है। विभिन्न प्रकार के अनाजों के साथ-साथ फल तथा मसालों आदि की भी कृषि होती थी। गुप्तकाल में चावल, गेहूँ, अदरक, सरसों, तरबूज, इमली, नारियल, नाशपाती आडू़, खुबानी, अंगूर, संतरा आदि की खेती होती थी। गांधार अभिलेख में कुओं, तालाबों, पीने का पानी एकत्र करने, उद्यानों, झीलों, पुलों आदि नगरीय सुविधाओं का उल्लेख किया गया है।

उद्योग धंधे: गुप्त काल में विभिन्न प्रकार के कुटीर-उद्योग एवं विविध प्रकार के धन्धे उन्नत दशा में थे।

आंतरिक व्यापार: गुप्त साम्राज्य में आन्तरिक व्यापार उन्नत दशा में था और वह नदियों तथा सड़कों द्वारा होता था। गुप्त-साम्राज्य में शान्ति तथा सुव्यवस्था स्थापित हो जाने के कारण व्यापारी निर्भय होकर व्यापार करते थे। इन व्यापारियों की अपनी श्रेणियाँ बनी हुई थीं जिन्हें बड़े़ सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था। इन श्रेणियों के अपने प्रधान होते थे और इनकी कार्यकारिणी भी होती थी। इससे व्यापार बड़े़ संगठित रूप में चलता था।

विदेशी व्यापार: गुप्त काल में ताम्रलिप्ति बंगाल का प्रसिद्ध बन्दरगाह था। उत्तरी भारत का सारा व्यापार इसी बन्दरगाह द्वारा चीन, वर्मा तथा पूर्वी-द्वीप-समूह से होता था। इन देशों के साथ दक्षिण-भारत के राज्यों से भी व्यापार होता था। यह व्यापार गोदावरी तथा कृष्णा नदियों के मुहानों पर स्थित बन्दरगाहों के द्वारा होता था। गुप्त-साम्राज्य पश्चिमी समुद्र-तट तक पहँुच गया था। भड़ौंच इस ओर का सबसे प्रसिद्ध बन्दरगाह था। इस बन्दरगाह से पाश्चात्य देशों, विशेषतः रोम-साम्राज्य के साथ व्यापार होता था।

आयात-निर्यात: इस युग में भारत में सोने चाँदी का उत्पादन कम होता था। इसलिये विदेशों में बहुत बड़ी मात्रा में भारतीय माल भेजा जाता था और वहाँ से सोना-चाँदी मँगाया जाता था। भारत से चंदन, लौंग, सुगंधि, लाल मिर्च, शीशम की लकड़ी, मोती, रत्न, सुगन्धि, शंख, चंदन, अगर, सूती किमखाब, चावल तथा वस्त्र आदि का निर्यात किया जाता था। इनके बदले में विदेशों से रेशम, सोना-चांदी, दास दासियों एवं घोड़ों का आयात किया जाता था।

धार्मिक दशा

धार्मिक दृष्टि से गुप्त-काल का बहुत बड़ा महत्त्व है। इस काल में भारत में कई धर्म प्रचलन में थे।

भागवत धर्म: इस काल में भागवत धर्म की बड़ी तेजी से उन्नति हुई जिसे वैष्णव धर्म भी कहते हैं। गुप्त राजाओं ने वैदिक परम्पराओं के अनुसार अश्वमेध यज्ञ किये जिनमें ब्राह्मणों तथा अन्य धर्मों को मानने वालों को बड़े-बड़े दान दिये गये। गुप्त-साम्राज्य भागवत धर्म के अनुयायी थे। इसी धर्म को उन्होंने अपना राजधर्म बनाया। राजधर्म हो जाने के कारण भागवत धर्म का खूब प्रचार हुआ। लोगों का बौद्ध बनना रुक गया। इस काल में कृष्ण को विष्णु का अवतार माना गया और श्रीमद्भगवद्गीता के सिद्धान्तों का खूब प्रचार हुआ।

शैव धर्म: वैष्णव धर्म के साथ-साथ शैव धर्म का भी इस काल में खूब प्रचार हुआ। वाकाटक, मैत्रक, कदम्ब आदि राजाओं ने शैव धर्म को स्वीकार कर उसे प्रश्रय दिया। इस काल में अनेक शिव मन्दिरों का निर्माण हुआ। शिव के अर्द्धनारीश्वर रूप की कल्पना इसी काल में हुई तथा अर्द्धनारीश्वर स्वरूप की मूर्तियों का निर्माण हुआ।

बौद्ध धर्म: इस काल में देश में बड़ी संख्या में बौद्ध प्रजा निवास करती थी। बौद्ध धर्म में भी महायान का अधिक बोलबाला था।

जैन धर्म: गुप्त काल में जैन धर्म भी उन्नत अवस्था में था। बड़ी संख्या में जैन साधु देश के विभिन्न भागों में घूमते रहते थे। देश के विभिन्न भागों में जैन धर्म को मानने वाली प्रजा भी बड़ी संख्या में निवास करती थी।

धार्मिक सहिष्णुता: गुप्त सम्राट् ने भागवत् धर्म को स्वीकार किया और उसे राज्याश्रय प्रदान किया। उनमें उच्चकोटि की धार्मिक सहिष्णुता थी। वे समस्त धर्मों तथा उनके मतावलम्बियों को आदर की दृष्टि से देखते थे। समस्त धर्मों तथा मतों को मानने वाली प्रजा उनकी कृपा की पात्र थी। समस्त धर्मों के साधु-संत तथा उपासक गुप्त सम्राटों से दान-दक्षिणा पाते थे। गुप्त सम्राटों ने राजकीय सेवाओं का द्वार समस्त धर्मों के लोगों के लिए खोल रखा था। वे योग्यता के आधार पर नियुक्तियाँ दिया करते थे।

मूर्ति पूजा का विस्तार: गुप्त सम्राटों की धार्मिक सहिष्णुता की नीति का परिणाम यह हुआ कि बौद्ध तथा जैन-धर्म का अस्तित्त्व बना रहा और वे शान्तिपूर्वक अपनी धार्मिक क्रियाओं को करते रहे। इस काल में बौद्ध तथा जैन दोनों ही धर्म भागवत धर्म से प्रभावित हुए। इस कारण बौद्ध धर्म के अनुयायी, बुद्ध तथा बोधिसत्वों को ईश्वर का अवतार मानने लगे और उनकी मूर्तियाँ बनाकर चैत्यों (मन्दिरों) में उनकी पूजा करने लगे। इसी प्रकार जैन-धर्म के मानने वाले भी जैन मन्दिर बनवा कर तीर्थकरों की मूर्तियों की पूजा करने लगे।

मंदिरों का निर्माण: इस काल में विष्णु, शिव, सूर्य, बुद्ध, बोधिसत्वों तथा तीर्थकरों की पूजा का महत्व बढ़ गया इस कारण उनकी पूजा के लिए बड़ी संख्या में मन्दिरों का निर्माण किया गया। इन मन्दिरों में पूजा-पाठ तथा देवताओं की उपासना की जाती थी। बड़ी संख्या में मन्दिरों का निर्माण होने से इस काल में शिल्प-कला तथा चित्र-कला की बड़ी उन्नति हुई। चूँकि इन मन्दिरों में कीर्तन तथा नृत्य हुआ करते थे इसलिये इस युग में संगीत तथा नृत्यकला की भी बड़ी उन्नति हुई।

गुप्त कालीन साहित्य

साहित्य तथा कला की दृष्टि से भी गुप्त युग का बड़ा महत्त्व है। यह साहित्य के पुनरूत्थान तथा पुनर्जागरण का युग माना जाता है। इस युग में संस्कृत-साहित्य की आशातीत वृद्धि हुई। उसे एक बार फिर से देश की एकमात्र साहित्यिक भाषा बनने का गौरव प्राप्त हुआ। इस काल में पाली तथा प्राकृत भाषाओं में साहित्य की रचना बन्द हो गई और संस्कृत ही साहित्यकारों की अभिव्यंजना का माध्यम रह गई। मौर्य काल एवं उसके बाद के समय में, भारतीय कला पर जो विदेशी प्रभाव आ गया था, वह प्रभाव इस युग में हट गया तथा विशुद्ध भारतीय कला की पुनर्प्रतिष्ठा हुई।

संस्कृत-साहित्य का पुनरुद्धार: चूँकि गुप्त-काल में वैदिक धर्म की पुनर्स्थापना हुई इसलिये उसके साथ-साथ संस्कृत भाषा की उन्नति होनी भी अनिवार्य थी। इस कारण गुप्त काल संस्कृत साहित्य के पुनरुद्धार का युग माना जाता है। इस युग में संस्कृत भाषा में ऐसे उच्चकोटि के ग्रन्थ लिखे गये जो विश्व साहित्य में अमर हो गये। इस काल में संस्कृत को एकमात्र साहित्यिक भाषा बनने का गौरव फिर से प्राप्त हो गया। पाली तथा प्राकृत भाषाओं में साहित्य-रचना की जो मनोवृत्ति आरम्भ हुई थी वह बन्द हो गई। ब्राह्मणों के साथ-साथ अन्य सम्प्रदाय वालों ने भी संस्कृत भाषा में ही साहित्य रचना आरम्भ कर दिया। इतना ही नहीं, विदेशी लेखक एवं यात्री भी संस्कृत भाषा की ओर आकृष्ट हुए और उन्होंने संस्कृत सीखी।

साहित्यकारों को आश्रय: गुप्त-सम्राट् विद्या-व्यसनी थे और साहित्य में उनकी बड़ी रुचि थी। समुद्रगुप्त स्वयं उच्चकोटि का विद्वान् एवं साहित्यकार था और कविताएँ लिखता था। इसी से वह कविराज ‘अर्थात् कवियों का राजा’ कहा गया है। समुद्रगुप्त का मन्त्री हरिषेण भी उच्चकोटि का कवि था। उसकी प्रशस्ति प्रयाग के स्तम्भ लेख में अब भी विद्यमान है। समुद्रगुप्त विद्वानों तथा साहित्यकारों का आश्रयदाता माना जाता है। बौद्ध दार्शनिक वसुबन्धु तथा बौद्ध-नैयापिक दिड्नाग को समुद्रगुप्त का आश्रय प्राप्त था।

नव रत्नों की स्थापना: समुद्रगुप्त का पुत्र चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य भी बड़ा विद्या-प्रेमी तथा विद्वानों का आश्रयदाता था। कहा जाता है कि उसने अपनी राज-सभा को नौ महान् विद्वानों से सुशोभित कर रखा था, जो उसकी राज-सभा के ‘नवरत्न’ कहलाते थे। इन विद्वानों में महाकवि कालिदास सर्वश्रेष्ठ थे। कालिदास की प्रतिभा बहुमुखी थी और वे इस युग के सबसे बड़े कवि तथा नाटककार माने जाते है। कालिदास के लिखे हुए सात ग्रन्थ प्राप्त होते हैं। इनमें रघुवंश, कुमारसम्भव, मेघदूत तथा ऋतुसंहार काव्य ग्रन्थ हैं और अभिज्ञानशाकुतलम्, विक्रमोर्वशीयम् तथा मालविकाग्निमित्र नाटक ग्रन्थ हैं। शाकुन्तलम् संसार का सर्वोत्कृष्ट नाटक-ग्रन्थ माना जाता है। ‘मुद्राराक्षस’ नामक नाटक के रचियता विशाखदत्त इसी काल की विभूति माने जाते है। ‘अमरकोष’ के रचयिता अमर सिंह तथा भारतीय आयुर्वेद के प्रकाण्ड पण्डित एवं चिकित्सक चरक चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के नवरत्नों में थे।

गुप्तकालीन प्रमुख रचनायें

(1) कालिदास: काव्य ग्रंथ- रघुवंशम्, कुमारसम्भवम्, मेघदूतम् तथा ऋतुसंहार। नाटक ग्रंथ- अभिज्ञानशाकुंतलम्, विक्रमोर्वशीयम् तथा मालविकाग्निमित्रम्।

(2) भास: स्वप्नवासवदत्तम्, चारुदत्तम्, प्रतिज्ञायौगन्धरायणम्।

(3) शूद्रक: मृच्छकटिकम्।

(4) विशाखदत्त: देवीचंद्रगुप्तम् तथा मुद्राराक्षस।

(5) भट्टी: भट्ठिकाव्य, रावण वध।

(6) वात्स्यायन: कामसूत्र। (वात्स्यायन को मौर्यकालीन चाणक्य भी माना जाता है।)

(7) दण्डि: दशकुमार चरितम्।

(8) सुबंधु: वासवदत्ता।

(9) भारवि: किरातार्जुनीयम्।

(10) विष्णु शर्मा: पंचतंत्रम्।

(11) पुराण: वायु पुराण, स्मृति पुराण, विष्णु पुराण, ब्रह्म पुराण।

(12) स्मृतियां: बृहस्पति स्मृति, नारद स्मृति।

(13) बौद्ध साहित्य: वसुबंधु चरित, मंजुश्रीमूलकल्प।

(14) जैन साहित्य: जिनसेन रचित हरिवंश पुराण।

(15) विदेशी साहित्य: फाह्यान का फो-क्यो-की तथा ह्वेनसांग का सि-यू-की।

ब्राह्मण ग्रन्थों का पुनरुद्धार: गुप्त काल में अनेक ब्राह्मण-ग्रन्थों का पुनरुद्धार हुआ। पुराणों का सम्वर्द्धन किया गया और मनुस्मृति, याज्ञवलक्य स्मृति, बृहस्पति स्मृति तथा नारद स्मृति में थोड़ा-बहुत परिवर्तन तथा संशोधन किया गया। सूत्रों पर भी टीकाएँ तथा भाष्य लिखे गये और उन्हें समयानुकूल बनाया गया।

हिन्दू दर्शन का विकास: डॉ. अल्तेकर ने गुप्त-कालीन दर्शन पर प्रकाश डालते हुए लिखा है- ‘उस काल के हिन्दू, भारतीय दर्शन की नूतन तथा साहसिक पद्धति को विकसित करने में उतने ही सफल रहे जितने समुद्र पार सामान ले जाने के लिए विशाल तथा सुदृढ़़ पोतों को बनाने में।’

गणित तथा ज्योतिष की उन्नति: उत्तर-कालीन गुप्त सम्राटों के शासन काल में गणित तथा ज्योतिष की अत्यधिक उन्नति हुई। आर्यभट्ट तथा ब्रह्मगुप्त इस काल के बड़े गणितज्ञ और वराहमिहिर बहुत बड़े ज्योतिषी तथा खगोल शास्त्री थे। स्मिथ ने लिखा है- ‘गणित और ज्योतिष विज्ञान के क्षेत्र में गुप्तकाल आर्यभट्ट तथा वराहमिहिर के महान् नामों से अलकृंत था।’ आर्यभट्ट ने सूर्य का सिद्धांत नामक ग्रंथ लिखा। वे पहले वैज्ञानिक थे जिन्होंने घोषणा की कि पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती है। उन्होंने दशमलव प्रणाली का विकास किया।

विज्ञान एवं चिकित्सा की उन्नति: गुप्तकाल में विज्ञान तथा चिकित्सा के क्षेत्र में बहुत उन्नति हुई। वाग्भट्ट ने आयुर्वेद के प्रसिद्ध ग्रंथ अष्टांग हृदय की रचना की। चंद्रगुप्त के दरबार में प्रसिद्ध आयुर्वेदाचार्य धन्वंतरि रहते थे। गुप्तकालीन चिकित्सकों को शल्य-शास्त्र के विषय में भी ज्ञान था। इस काल में अणु सिद्धांत का प्रतिपादन हुआ।

बौद्धिक सक्रियता का विस्फोट: गुप्त काल में साहित्य तथा कला के विकास पर टिप्पणी करते हुए डॉ. स्मिथ ने लिखा है- ‘गुप्त वंश के योग्य तथा लम्बे शासन-काल में बौद्धिक सक्रियता का असाधारण विस्फोट हुआ। यह काल सामान्य साहित्यिक उद्रेक से ओतप्रोत था जिसके परिणाम काव्य एवं विधि-ग्रन्थों तथा अनेक अन्य प्रकार के साहित्य में परिलक्षित होते हैं।’

विदेशी शासकों से तुलना: गुप्तकालीन साहित्यिक उन्नति की विवेचना करते हुए डॉ. रमाशंकर त्रिपठी ने लिखा है- ‘गुप्त काल की तुलना प्रायः यूनान के इतिहास में पेरिक्लीज के काल से अथवा इंगलैंड में एलिजाबेथ के युग से की जाती है। इन काल ने भारत को अनेक बुद्धिमान विभूतियों से विभूषित किया, जिनकी देन से भारतीय साहित्य की विभिन्न शाखाएँ अत्यधिक सम्पन्न हो गईं। गुप्त-सम्राटों ने विद्वता को प्रोत्साहित किया। वे स्वयम् भी वे अत्यधिक सुसंस्कृत थे।’

गुप्त कालीन कलाएँ

गुप्त-काल में विभिन्न प्रकार की कलाओं की अत्यधिक उन्नति हुई।

स्थापत्य कला: गुप्त काल में स्थापत्य कला अर्थात् भवन निर्माण कला की बड़ी उन्नति हुई। गुप्त कालीन स्थापत्य कला के सम्बन्ध में स्मिथ ने लिखा है- ‘इस कथन को सिद्ध करने के लिए पर्याप्त जानकारी प्राप्त है कि वास्तु कला का बड़े परिणाम में बड़ी सफलता पूर्वक अभ्यास किया जाता था।’ यद्यपि इस काल के अधिकांश भवन नष्ट हो गये हैं परन्तु कई मन्दिर, विहार तथा चैत्य अब भी विद्यमान हैं जो तत्कालीन कला की उच्चता के प्रमाण हैं। इस युग में ब्राह्मण, बौद्ध तथा जैन तीनों ही धर्म अपने-अपने उपास्य देवों की प्रतिमाओं की देवालयों में उपासना करते थे। इस कारण मंदिरों का बड़ी संख्या में निर्माण हुआ। सारनाथ के स्तूप, अजन्ता तथा एलोरा के गुहा विहार, भीतरगाँव का मन्दिर, देवगढ़ का दशावतार मन्दिर आदि गुप्तकालीन कला सौन्दर्य के प्रमाण हैं। देवगढ़ के दशावतार मंदिर का शिखर आरंभ में 40 फुट ऊँचा था। गुप्तकालीन मंदिरों के मुख्य आकर्षण केन्द्र मूर्तिस्थान का प्रवेश द्वार था। गुप्तकालीन मंदिरों में तिगवा का विष्णु मंदिर, भूमरा का शिव मंदिर, खोह का शिव मंदिर, नचना-कुठार का पार्वती मंदिर, देवगढ़ का दशावतार मंदिर तथा भीतरगांव का लक्ष्मण मंदिर उल्लेखनीय हैं

शिल्प कला: गुप्त-काल में शिल्प-कला की भी बड़ी उन्नति हुई। गुप्त कालीन शिल्प कला के सम्बन्ध में डॉ. रमाशंकर त्रिपाठी ने लिखा है- ‘कुल मिला कर गुप्त काल के शिल्पकारों की कृतियों की यह विशेषता है कि उनमें ओज, अंसयम का अभाव तथा शैली का सौष्ठव पाया जाता है।’ गुप्त काल की शिल्पकला तथा चित्रकला के सम्बन्ध में डॉ. नीलकान्त शास्त्री ने लिखा है- ‘शिल्प कला तथा चित्रकला के क्षेत्र में गुप्त कालीन कला भारतीय प्रतिभा में चूड़ान्त विकास की प्रतीक है और इसका प्रभाव सम्पूर्ण एशिया पर दीप्तिमान है।’ डॉ. रमेशचन्द्र मजूमदार ने गुप्त कालीन शिल्प की विशेषता पर प्रकाश डालते हुए लिखा है- ‘सामान्यतः उच्चकोटि का आदर्श और माधुर्य तथा सौन्दर्य की उच्चकोटि की विकसित भावना गुप्त काल की शिल्प कला की विशेषता है।’

मूर्तिकला: गुप्त काल में मूर्ति पूजा का प्रचलन बहुत बढ़ गया था। इसलिये देवी-देवताओं की मूर्तियाँ बड़ी संख्या में बनाई जाने लगीं। इससे इस काल में मूर्ति निर्माण कला की बड़ी उन्नति हुई। इस काल की मूर्तियाँ बड़ी सुन्दर है। उनकी पहली विशेषता यह है कि वे विदेशी प्रभाव से मुक्त हैं और विशुद्ध भारतीय बन गई हैं। इनकी दूसरी विशेषता यह है कि इनमें नैतिकता पर विशेष रूप से ध्यान दिया गया। इस काल में नग्न मूर्तियों का निर्माण बन्द हो गया और उन्हें झीने वस्त्र पहनाये गये। इनकी तीसरी विशेषता यह है कि ये बड़ी ही सरल हैं। इन्हें अत्यधिक अलंकृत करने का प्रयत्न नहीं किया गया है। इस काल की सारनाथ की बौद्ध प्रतिमा बड़ी सुन्दर तथा सजीव है। मथुरा से प्राप्त भगवान विष्णु की मूर्ति गुप्तकाल की कला का श्रेष्ठ उदाहरण है। गुप्तकाल में बनारस, पाटलिपुत्र एवं मथुरा मूर्तिकला के प्रसिद्ध केन्द्र थे।

चित्रकला: इस युग में मूर्तिकला के साथ-साथ चित्रकला की भी बड़ी उन्नति हुई। अजन्ता तथा एलोरा की गुफाओं की दीवारों में इस काल की चित्रकारी के सुन्दर उदाहरण विद्यमान हैं। इन चित्रों कोे वज्रलेप से बनाया गया है। लताओं, फूलों, पशुओं तथा मनुष्यों के जो चित्र इस युग में बने हैं, वे बड़े ही स्वाभाविक, सजीव तथा चित्ताकर्षक हैं। अजन्ता की चित्रकारी के विषय में श्रीमति ग्राबोस्का ने लिखा है- ‘अजन्ता की कला भारत की प्राचीन कला है। चित्रकारियों का सौन्दर्य आश्चर्यजनक है और वह भारतीय चित्रकारी की चरमोन्नति का प्रतीक है।’

संगीत कला: गुप्त-सम्राटों ने संगीत कला को राज्याश्रय प्रदान किया। इस कारण इस काल में संगीत-कला की बड़ी उन्नति हुई। समुद्रगुप्त को संगीत से बड़ा प्रेम था। वह इस कला में प्रवीण था। अपनी मुद्राओं में वह वीणा बजाता हुआ प्रदर्शित किया गया है। कहा जाता है कि संगीत-कला में उसने नारद तथा तुम्बुरू को भी लज्जित कर दिया था।

नाट्य कला: गुप्त-काल में नाट्य कला की भी उन्नति हुई। इस काल में बहुत से नाटक-ग्रन्थ लिखे गये जिनसे स्पष्ट है कि इन नाटकों को रंगमंच पर खेला जाता रहा होगा।

मुद्रा कला: गुप्त-काल में मुद्रा कला की भी उन्नति हुई। प्रारम्भ में तो गुप्त कालीन सम्राटों ने विदेशी मुद्राओं का अनुसरण किया परन्तु बाद में विशुद्ध भारतीय मुद्राएँ चलाईं। गुप्त-सम्राटों की अधिकांश मुद्राएँ स्वर्ण निर्मित हैं परन्तु बाद में उन्होंने चाँदी की मुद्राएँ भी चलाईं। ये मुद्राएँ बड़ी सुन्दर तथा चिताकर्षक हैं। इनका आकार तथा इन पर अंकित मूर्तियाँ बड़ी सुन्दर हैं। इन मुद्राओं पर गुप्त-सम्राटों का यशोगान किया गया है तथा अश्वमेध यज्ञ आदि सूचनाएं दी गई हैं।

विदेशी प्रभाव से मुक्त

गुप्त साम्राज्य की स्थापना के पूर्व भारत में यूनानी, शक, कुषाण, सीथियन आदि जातियाँ प्रवेश कर गई थीं और भारत के विभिन्न भागों में शासन कर रही थीं। इस कारण भारतीय कला पर विदेशी कला, विशेषकर गान्धार-शैली का बहुत प्रभाव हो गया था। गुप्त-कालीन कला ने विदेशी प्रभाव को उखाड़ फेंका और वह विशुद्ध भारतीय स्वरूप में विकसित हुई।

निष्कर्ष

उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि गुप्तकाल भारत के सर्वतोमुखी विकास का काल था। इस काल में भारत में नवजीवन तथा नवोल्लास का संचार हुआ जो जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में प्रस्फुटित हुआ। महर्षि अरविन्द ने लिखा है- ‘भारत ने अपने इतिहास में कभी भी जीवन की शक्ति का इतना बहुमुखी विकास नहीं देखा।’ हैवेल ने भी गुप्त काल की प्रशंसा करते हुए लिखा है- ‘भारतवर्ष उन दिनों शिष्यता की स्थिति में न था वरन् वह सम्पूर्ण एशिया का शिक्षक था और पाश्चात्य सुझावों को लेकर उसने उन्हें सुधारणा के अनुकूल बना लिया।’

भारत के इतिहास में गुप्तों का स्थान

इतिहासकार बर्नेट ने लिखा है- भारतीय इतिहास में गुप्तकाल का वही स्थान है, जो यूनानी इतिहास में परीक्लीज का है और रोमन इतिहास में आगस्टस सीजर का।

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