पौराणिक धर्म अथवा वैष्णव धर्म के मूल तत्त्व
विष्णु
पुराणों का वैचारिक आधार विष्णु की भक्ति एवं उपासना पर अवलम्बित है। विष्णु को हरि, वासुदेव, नारायण, दामोदर आदि नामों से सम्बोधित किया जाता है। उसी को ईश्वर एवं परम-पिता-परमात्मा आदि रूपों में जाना जाता है। वह ‘अच्युत’ है अर्थात् उसका कभी पतन नहीं होता। वेदों और उपनिषदों में विष्णु की उपासना का उल्लेख कई स्थलों पर हुआ है। ऋग्वेद में विष्णु को सूर्य का रूप माना गया है तथा ‘निरुक्त’ में बताया गया है कि सूर्य का नाम ही विष्णु है।
ऋग्वेद में वर्णित ‘त्रिविक्रम की कथा’ में विष्णु को समस्त विश्व की रक्षा करने वाला माना गया है। विष्णु के इन तीन विस्तीर्ण पदन्यासों ने समस्त लोकों को माप लिया। इनमें से दो चरण ही मनुष्य देख या प्राप्त कर पाते हैं किंतु तृतीय चरण पक्षियों की उड़ान से भी परे है। उसका कोई अतिक्रमण नहीं कर सकता।
विष्णु इन्द्र के सखा हैं तथा उसकी सहायता करते हैं। ऋग्वेद में विष्णु का जगत् के नियामक के रूप में वर्णन है। विष्णु के परमपद में मधु का उत्स है जहाँ देवताओं के इच्छुक मनुष्य आनंद करते हैं। ऋग्वेद में विष्णु को इतना महत्व दिए जाने के उपरांत भी वहाँ विष्णु मध्यम श्रेणी के देवता हैं तथा इन्द्र से निम्न हैं।
ब्राह्मण ग्रंथों के रचना काल में विष्णु की स्थिति ऋग्वेद काल की अपेक्षा अधिक महत्वपूर्ण दिखाई देती है। विष्णु इस युग में भी यज्ञ से ही सम्बद्ध हैं, भक्ति से नहीं। वरुण के साथ मिलकर विष्णु यज्ञ की रक्षा किया करते हैं किंतु ब्राह्मण युग में विष्णु के तृतीय चरण अथवा परम पद के प्रति सम्मान भावना ने विष्णु के महत्वोत्कर्ष में सर्वाधिक योगदान दिया।
ऐतरेय ब्राह्मण में विष्णु का उल्लेख सर्वोच्च देवता के रूप में प्राप्त होता है। शतपथ ब्राह्मण में एक कथा प्राप्त होती है जिसमें देवताओं ने तेज, ऐश्वर्य एवं अन्न प्राप्ति के लिए किए गए यज्ञ में यह प्रस्ताव किया कि देवों में जो अपने कर्म से यज्ञ के अंत को सर्वप्रथम प्राप्त कर ले, वह सर्वोच्च पद प्राप्त करे। विष्णु ने यज्ञ का अंत सर्वप्रथम प्राप्त कर लिया। अतः विष्णु को देवों में श्रेष्ठ माना गया। शतपथ ब्राह्मण से ही वामन विष्णु की कथा भी प्राप्त होती है जिसमें विष्णु को अद्भुत शक्तियों से सम्पन्न कर दिया गया है।
आरण्यक तथा उपनिषद् काल में विष्णु का महत्व ब्राह्मण ग्रंथों के रचना काल की अपेक्षा बढ़ गया। ‘तैत्तिरीय आरण्यक’ में यज्ञान्त प्राप्त करने के कारण श्रेष्ठता प्राप्त विष्णु की कथा शतपथ ब्राह्मण की ही भांति प्राप्त होती है। ‘मैत्री उपनिषद’ में अन्न को जगत के धारक विष्णु का स्वरूप कहा गया है।
कठोपनिषद में स्पष्ट उल्लिखित है कि विवेकयुक्त बुद्धि सारथि से युक्त तथा मन पर नियंत्रण रखने वाला व्यक्ति संसार मार्ग से पार होकर विष्णु के परमपद को प्राप्त होता है। महाकाव्यों एवं पुराणों के समय तक आते-आते विष्णु परमात्मा के पद पर प्रतिष्ठित हो गए। महाकाव्य काल में इन्द्र केवल देवराज रह गए जिनका सिंहासन विष्णु की कृपा से ही सुरक्षित रहता था।
वेद में विष्णु का सूर्य से जो सम्बन्ध था वह परवर्ती युग में भी बना रहा। विभिन्न पुराणों में आदित्यों के नाम की अलग-अलग सूचियां मिलती हैं किंतु विष्णु नाम सब सूचियों में है। वैष्णव चक्र भी विष्णु का सूर्य से ही सम्बन्ध सूचित करता है। ऐसे परम पद प्राप्त विष्णु से वासुदेव का तादात्म्य हुआ।
महाभारत वासुदेव कृष्ण तथा विष्णु के एकत्व का प्रतिपादन करता है। भीष्म पर्व के 65 एवं 66 वें अध्याय में परमात्मा को नारायण एवं विष्या तथा वासुदेव कहा गया है। शांति पर्व के 43वें अध्याय में युधिष्ठिर कृष्ण की स्तुति करते हुए उन्हें विष्णु कहते हैं। भगवद्गीता में कृष्ण अपना विराट रूप दिखाते हैं। आश्वमेधिक पर्व के 53 से 55 वें अध्याय में उत्तंक ऋषि की प्रार्थना पर कृष्ण उन्हें अध्यात्म ज्ञान की शिक्षा देते हुए पुनः अपने विराट् स्वरूप का दर्शन करवाते हैं किंतु यहाँ उन्हें विष्णु रूप कहा गया है।
नारायण
पौराणिक धर्म में नारायण-विष्णु तथा उनके विशिष्ट अवतारों की उपासना एवं भक्ति प्रमुख है। महाकाव्य एवं पुराण गंथों में नारायण तथा विष्णु में कोई भेद नहीं है किंतु पुराण-धर्म के आदि स्वरूप में विष्णु की अपेक्षा नारायण की प्रमुखता थी। महाभारत में भी उपास्य देव को प्रायः नारायण नाम से पुकारा गया है।
विष्णु नाम अपेक्षाकृत बहुत कम है। विष्णु एवं नारायण के तादात्म्य का प्रारम्भिक संकेत बोधायन धर्मसूत्र से प्राप्त होता है। मनुस्मृति के अनुसार ‘नाराः’ का अर्थ है जल और परमात्मा का प्रथम निवास जल है। इस कारण ‘परमात्मा’ नारायण कहे जाते हैं। नारायण नाम का सर्वप्रथम उल्लेख शतपथ ब्राह्मण में हुआ है।
इसके अनुसार नारायण ने क्रमशः प्रातः मध्याह्न तथा सायंकाल के समय आहुतियों के द्वारा वसुओं, रुद्रों तथा आदित्यों को यज्ञस्थल से हटा दिया। प्रजापति ने उनसे पुनः यज्ञ करने को कहा। इस प्रकार नारायण ने यज्ञ के द्वारा समस्त लोकों, समस्त देवों, समस्त वेदों तथा सभी प्राणों में स्वयं को प्रतिष्ठित किया और उन सभी को स्वयं में प्रतिष्ठित कर लिया।
शतपथ ब्राह्मण के ही द्वितीय उल्लेख के अनुसार पुरुष नारायण के द्वारा पांचरात्र सत्र किया गया जिस सत्र के कर लेने से पुरुष नारायण को समस्त भूतों पर सर्वश्रेष्ठता प्राप्त हो गई और वह समस्त भूत बन गया। तैत्तिरीय आरण्यक में नारायण का वर्णन परमात्मा के उन समस्त विशेषणों के द्वारा किया गया जो सामान्यतः उपनिषदों में मिलते हैं। महाभारत में अनेक कथाओं में नारायण का वर्णन है तथा उनका तादात्म्य वासुदेव के साथ किया गया है।
नारायणीय के प्रथम अध्याय में भीष्म युधिष्ठिर से कहते हैं- ‘भगवान् नारायण सम्पूर्ण जगत् के आत्मा, चतुर्मूर्ति और सनातन देव हैं। वे ही धर्म के पुत्र रूप में प्रगट हुए थे। स्वायंभू मन्वन्तर के सत्य युग में उनके चार स्वयंभू अवतार हुए थे जिनके नाम हैं- ‘नर, नारायण, हरि एवं कृष्ण। इनमें से अविनाशी नर और नारायण ने बदरिकाश्रम में घोर तपस्या की।’ पुराणों में सृष्टि रचना के प्रसंग में नारायण का वर्णन परमेश्वर के रूप में हुआ है।
वासुदेव
पुराण-धर्म में वासुदेव नाम अत्यंत महत्वपूर्ण है। सात्वत गोत्रीय ‘कृष्ण’ वसुदेव के पुत्र होने के कारण वासुदेव कृष्ण कहलाए। ईस्वी सन् से पूर्व की अनेक रचनाओं- घट जातक, महाभाष्य तथा कतिपय शिलालेखों में इन्हीं वासुदेव कृष्ण का परम देव के रूप में वर्णन किया गया है जो संकर्षण बलराम के भाई थे किंतु अनेक इतिहास लेखकों ने वसुदेव के पुत्र वासुदेव (कृष्ण) से पूर्ववर्ती एक और वासुदेव की सत्ता स्वीकार की है।
वासुदेव कृष्ण से पूर्व एक और दिव्य वासुदेव अवश्य हुए हैं। यह नाम किसी देवता का भी हो सकता है। विष्णु-पुराण ने देवता वासुदेव तथा देवकी पुत्र वासुदेव कृष्ण को भिन्न-भिन्न प्रतिपादित किया है कि भगवान् वासुदेव का एक अंश दो भागों में विभक्त होकर कृष्ण और बलराम में स्थापित हुआ। महाभारत के वनपर्व में पौण्ड्रक शाल्व नरेश की कथा है जो स्वयं को वास्तविक वासुदेव घोषित करता है।
इस शाल्व राजा को कृष्ण ने युद्ध में मार डाला था। यह कथा स्पष्ट संकेत करती है कि कृष्ण से पूर्व भी वासुदेव की पूजा प्रचलित थी किंतु बाद में ये दोनों वासुदेव एक हो गए।
कृष्ण
वसुदेव-देवकी के पुत्र कृष्ण का व्यक्तित्व ऐतिहासिक है किंतु कृष्ण के समय का सही-सही निर्धारण कर पाना कठिन है। कृष्ण के जीवनचरित को जानने के लिए छान्दोग्य उपनिषद्, पतंजलि का महाभाष्य, बौद्ध एवं जैन आख्यान, महाभारत तथा विभिन्न पुराणों का सहारा लिया जाता है। ये सभी स्रोत अलग-अलग समय के हैं तथा इनमें शताब्दियों का अंतराल मौजूद है।
इसलिए इनमें दिए गए कृष्ण सम्बन्धी वृत्तांतों में पर्याप्त अंतर है। ऋग्वेद के एक उल्लेख के अनुसार इन्द्र ने अंशुमती नदी के तट पर कृष्ण नामक एक अनार्य प्रमुख का संहार किया था। पुरात्तवविदों के अनुसार यह अंशुमती कोई और नदी नहीं अपितु यमुना ही है।
छांदोग्य उपनिषद में कृष्ण को देवकी का पुत्र बताया गया है जिसने घोर अंगरिस से शिक्षा ग्रहण की थी। दूसरे स्रोतों से अनुमान होता है कि गीता का उपदेश इसी कृष्ण ने किया था। पतंजलि के महाभाष्य में कृष्ण देवता के रूप में उल्लिखित हैं।
बौद्ध ग्रंथ ‘घट-जातक’ से वासुदेव-कृष्ण के जन्म की कथा उपलब्ध होती है। उसके अनुसार वासुदेव-कृष्ण तथा उसके भाई बलदेव, ‘कंसभगिनी देवगब्भा’ तथा उसके पति ‘उपसागर’ के पुत्र थे। उन्हें पालन-पोषण के लिए ‘अंधकवेण्हु’ नामक पुरुष और ‘नंदगोपा’ नामक उसकी पत्नी को सौंप दिया गया था जो कि देवगब्भा की दासी थी।
जैनियों के ‘उत्तराध्ययन सूत्र’ में वासुदेव को ‘केशव’ कहा गया है। जैनों के बाइसवें तीर्थंकर अरिष्टनेमि अथवा नेमिनाथ के समकालीन रूप में उनके तिरेसठ शलाका पुरुषों में केशव (वासुदेव) भी वर्णित हैं। केशव के माता-पिता वसुदेव एवं देवकी थे। वर्तमान काल में कृष्ण का प्रचलित चरित महाभारत, हरिवंश, श्रीमद्भागवत् तथा अन्य पुराणों के आधार पर विकसित एक मिश्रित रूप है।
भिन्न-भिन्न पुराणों में भिन्न-भिन्न युगों में कृष्ण के साथ गोपिकाओं, राधा, असुर संहार आदि की कथाएं जुड़ती चली गईं। विष्णु-नारायण-वासुदेव के साथ कृष्ण की एकरूपता सिद्ध होने में स्वभावतः ही उन देवों के गुणों तथा विशेषताओं को आरोपित कर दिया गया। वेद में विष्णु के साथ गायों का सम्बन्ध था।
विष्णु के परम पद में ‘भूरिशृंगा गावः’ स्थिति थी। कृष्ण के साथ भी गायों का घनिष्ट सम्बन्ध पौराणिक परम्परा में स्थापित हुआ। कृष्ण का परम लोक ‘गोलोक’ कहलाता है। बोधायन धर्मसूत्र में आए हुए गोविन्द तथा दामोदर नाम कृष्ण के साथ जुड़कर भिन्न अर्थ प्रकट करने लगे।
भक्ति
यद्यपि ‘भक्ति’ एक ऐसा तत्त्व है जिसने पुराणों को वेदों से अलग किया तथापि भक्ति का बीजारोपण वेदों में ही होता हुआ दिखाई देता है। वैदिक विष्णु का सम्बन्ध सर्वत्र ‘यज्ञ’ से है किंतु पौराणिक विष्णु का सम्बन्ध ‘भक्ति’ से है। वैदिक युग में राजा बसु द्वारा यज्ञों में पशुबलि का विरोध करने तथा ‘हरि’ की उपासना पर बल देने से भक्ति-प्रधान धर्म का बीजारोपण हो गया। उपनिषदों में भी भक्ति करने तथा ईश्वर के शरणागत होने के भाव का उल्लेख मिलता है।
उपनिषदों में कहा गया है- ‘आत्मा (यहाँ इसका आशय परमात्मा से है) की उपलब्धि किसी बलहीन को नहीं होती और न वह उपनिषदों से, अध्ययन से अथवा यज्ञ से ही सम्भव है। वह जिस किसी को वरण कर लेती है, वही उसे पाने में समर्थ होता है। अतः आत्मा द्वारा वरण किए जाने के पूर्व उसे प्रार्थना या सेवा से प्रसन्न कर लेना आवश्यक है।’
इस प्रकार अनेक विद्वानों ने वेदों, सूक्तों एवं उपनिषदों में भी भक्ति तत्त्व को खोजने के प्रयास किए हैं किंतु भगवद्गीता ही वह ग्रंथ है जिसमें भक्ति की पूर्ण व्याख्या उपलब्ध है जिसके अनुसार परमेश्वर के प्रति शुद्ध अनुराग तथा श्रद्धा ही भक्ति ईश्वर विराट् तथा इन्द्रियातीत हैं किंतु एक लौकिक विग्रह धारी परमात्मा भी है जिसके प्रति भक्त ऐसी अंतरंगता अनुभव करता है जैसा मित्र के प्रति मित्र अथवा पिता के प्रति पुत्र।
इस प्रकार एकमात्र ‘हरि’ में एकाग्र भाव से ‘भक्ति’ करने वाली साधना का ‘एकांतिक धर्म’ के रूप में उदय हुआ। इसकी पूजन विधि ‘सस्वत विधि’ कहलाती थी जिसके प्रधान अंग- भक्ति, आत्मसमर्पण तथा अहिंसा थे। वासुदेव कृष्ण ने भक्ति-मार्ग का प्रचार किया। इस कारण आगे चलकर इसका नाम भी ‘वासुदेव धर्म’ पड़ गया तथा हरि का स्थान स्वयं वासुदेव कृष्ण ने ग्रहण कर लिया। विक्रम संवत् के पूर्व तीसरी शताब्दी तक इसकी विधि ‘पांचरात्र विधि’ में परिणित हो गयी और इसका नाम ‘भागवत धर्म’ के रूप में परिवर्तित हो गया।
भागवत सम्प्रदाय ने यज्ञों और तप की निरर्थकता, यज्ञों में पशुबलि की निन्दा तथा भक्ति तत्त्व की प्रधानता द्वारा वैदिक विश्वासों और परम्पराओं के विरुद्ध क्रान्ति की किंतु ईश्वर की सत्ता को मानने के कारण यह क्रान्ति बौद्ध और जैनों की क्रान्ति की भाँति उग्र तथा नास्तिक नहीं थी।
अहिंसा
वैष्णव धर्म में भक्ति के साथ अहिंसा पर विशेष बल दिया गया जिसका अर्थ होता है- मन, वचन एवं कर्म से किसी को भी कष्ट नहीं पहुँचाना। भगवद्गीता में अहिंसा का उल्लेख तीन बार हुआ है। एक स्थल पर अहिंसा का उल्लेख ‘ज्ञान’ के अंतर्गत तथा दूसरे स्थल पर ‘मुक्ति दिलाने वाली दैवी सम्पदा’ के रूप में हुआ है तथा तीसरे स्थल पर ‘शरीर सम्बन्धी तप’ में शौच, आर्जव, ब्रह्मचर्य आदि के साथ हुआ है।
महाभारत के नारायणीय खण्ड में अहिंसा पर विशेष बल दिया गया है। विष्णु-भक्त राजा वसु उपरिचर का आख्यान इस दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है जिसके द्वारा किए गए अश्वमेध यज्ञ में पशुबलि नहीं दी गई अपितु आरण्यकों के पदों के अनुसार जौ से आहुतियाँ दी गईं।
इसी नारायणीय खण्ड में भगवान् ने वैष्णव धर्म के सिद्धांत बताते हुए ब्रह्मादिक देवों को उसी देश में रहने का उपदेश दिया जिसमें वेद, यज्ञ, तप, सत्य आदि अहिंसा से संयुक्त होकर प्रचलित हों। विष्णु-पुराण तथा विष्णु धर्मोत्तर पुराण में अहिंसा का महत्त्व प्रतिपादित करने वाले अनेक कथाएं हैं।
अवतारवाद
अवतारवाद की परिकल्पना भी पौराणिक धर्म का मूल तत्त्व है। यह सिद्धांत भागवत् वासुदेव नारायण के साथ वासुदेव कृष्ण का तादात्म्य कर दिए जाने से प्रचारित हुआ। जब भी कोई देवता अवतार ग्रहण करता है तो उसका कोई न कोई विशिट प्रयोजन होता है। महाभारत के नारायणीय खण्ड में नारायण या विष्णु के अवतारों की दो सूचियां उपलब्ध होती हैं।
पहली सूची में चार अवतारों का एवं दूसरी सूची में छः अवतारों का उल्लेख है। अनेक पुराणों में भी विष्णु के अवतारों को गिनाया गया है जिनमें यह संख्या चार से लेकर चौबीस तक प्राप्त होती है किंतु सामान्यतः इनकी संख्या दस है। इन अवतारों के नामों में भी भिन्नता है किंतु वासुदेव कृष्ण का नाम सर्वत्र ग्रहण किया गया है।
वाल्मीकि रामायण के मध्यवर्ती पांच काण्डों में ईक्ष्वाकुवंशीय ‘राम’ एक महापुरुष हैं किंतु प्रथम एवं अंतिम काण्ड में ‘राम’, विष्णु के अवतार हैं। राम अपने मानव रूप से उठकर नारायण विष्णु के अवतार किस समय माने जाने लगे, उस काल का निर्धारण नहीं किया जा सकता किंतु इतना निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि ईसा की प्रारम्भिक शताब्दियों में राम के विष्णु अवतार होने का विश्वास विद्यमान था। रामोपासना और कृष्णोपासना, दोनों को वैष्णव धर्म में समान रूप से स्वीकार कर लिया गया।
पुराणों की मूल सामग्री
पुराणों में वेदों के ज्ञान की भक्तिपरक व्याख्या की गई है। इनमें प्राचीन क्षत्रिय राजाओं की वंशावलियां भी दी गई हैं। अश्वमेघ तथा राजसूय आदि यज्ञों में जो आख्यान सुनाये जाते थे, उनमें से अधिकांश आख्यानों ने विकसित एवं परिमार्जित होकर पुराणों का रूप ग्रहण किया। इसीलिए यह उक्ति कही जाती है- ‘यज्ञ से पुराण का जन्म हुआ।’
प्रारम्भ में पुराणों के पाँच विषय थे-
(1.) सर्ग- सृष्टि की कथा,
(2.) प्रतिसर्ग- प्रलय के बाद सृष्टि का पुनर्भाव,
(3.) वंश- देवताओं, राक्षसों, ऋषियों और राजाओं की वंशावलियां,
(4.) मन्वन्तर- युग चक्रों का आवर्तन
(5.) वंशानुचरित- राजाओं एवं राजवंशों के वृत्तान्त।
प्रथम शताब्दी ईस्वी के प्रारम्भ में विभिन्न रूपों में प्रचलित भागवत् धर्मों ने पुराणों को अपने प्रचार का माध्यम बनाया। अतः अधिकतर पुराणों और उप-पुराणों का विस्तार इन धर्मों के आधार पर हुआ। महाभारत-युद्ध के बाद महर्षि वेदव्यास ने प्राचीन वंश-वृत्तों का संग्रह करके अनेक पुराणों की रचना की।
इनमें समय-समय पर नई घटनाएँ जुड़ती गईं। गुप्तकाल में धर्म और संस्कृति के विभिन्न सूत्रों को संकलित करने का प्रयास हुआ जिसने उस काल के साहित्य की काया ही पलट दी और पुराणों को नया रूप दिया गया। फलस्वरूप पुराणों में भागवत धर्म के साथ-साथ बौद्ध एवं जैन-धर्म की प्रमुख बातों का समन्वय कर दिया गया। इस प्रकार पुराणों में वैदिक ज्ञान और लौकिक-साहित्य का समन्वय हो गया।
पुराण साहित्य को दो भागों में बाँटा जा सकता है-
(1.) अठारह महापुराण- वायु पुराण, ब्रह्माण्ड, मार्कण्डेय, विष्णु, मत्स्य, भागवत, कूर्म, वामन, लिंग, वाराह, पद्म, नारद, अग्नि, गरुड़, ब्रह्म, स्कन्द, ब्रह्मवैवर्त और भविष्य महापुराण है।
(2.) अठारह उप-पुराण- उप-पुराणों की सूचियां अलग-अलग मिलती हैं। बृहद्धर्म पुराण के अनुसार इनकी सूची इस प्रकार है- आदि, आदित्य, बृहन्नारदीय, नन्दीश्वर, बृहन्नन्दीश्वर, साम्ब, क्रियायोगसार, कालिका, धर्म, विष्णुधर्मोत्तर, शिवधर्म, विष्णु धर्म, वामन, वारुण, नारसिंह, भार्गव और बृहद्धर्म।
महापुराणों में वायु पुराण, ब्रह्माण्ड पुराण, मार्कण्डेय पुराण, विष्णु-पुराण, मत्स्य पुराण और भागवत पुराण सबसे पुराने हैं और इनमें उस काल तक की ऐतिहासिक जानकारी है जब गुप्त सम्राटों का राज्य मगध से लेकर अयोध्या और प्रयाग तक विस्तृत था। आरम्भ में ‘वायु पुराण’ और ‘ब्रह्माण्ड पुराण’ एक थे और मूल वायु पुराण की रचना ई.200 के लगभग हुई किन्तु ई.400 के लगभग ‘ब्रह्माण्ड पुराण’ इससे अलग हो गया। ‘वायु पुराण’ पाशुपत धर्म का ग्रन्थ रह गया और ‘ब्रह्माण्ड पुराण’ वैष्णव धर्म का ग्रंथ हो गया। इन दोनों पुराणों में बाद में तांत्रिक और शाक्त सामग्री भी जोड़ दी गई।
‘मार्कण्डेय पुराण’ ई.300 के लगभग की रचना है, इसमें देवी महात्म्य बाद में सम्मिलित किया गया। ‘कूर्म पुराण’ और ‘वामन पुराण’ ई.500-600 के लगभग पांचरात्र पुराण थे, किंतु ई.800-900 के आसपास इन्हें शैव रूप दिया गया। ‘अग्नि पुराण’ और ‘गरुड़ पुराण’ ई.900-1000 के लगभग लिखे गए हैं तथा विश्वकोश प्रकार के ग्रन्थ हैं। ‘भविष्य पुराण’ बहुत पुराना है, किंतु इसमें अधिक स्वतन्त्रता से वृद्धि की गई और अब इसमें ब्रिटिश शासन तक का उल्लेख मिलता है।
कई उप-पुराण भी बहुत पुराने हैं। ‘विष्णु धर्म पुराण’ तीसरी शताब्दी ईस्वी का और ‘शिव पुराण’ ई.200 से 500 के बीच का है किन्तु अधिकतर उप-पुराण ई.650 से 800 की अवधि में लिखे गए थे। उप-पुराणों में ‘विष्णुधर्मोत्तर पुराण’ को ज्ञान और विद्या का विश्वकोश कहा जा सकता है।