वैदिक धर्म की मान्यताओं के सम्बन्ध में बुद्ध के विचार
वेदों की प्रामाणिकता का खण्डन
महात्मा बुद्ध श्रद्धा की बजाए तर्क पर बल देते थे। वेदों में कही गई बातों को वे अन्तिम सत्य के रूप में स्वीकार करने को तैयार नहीं थे। उनका मानना था कि इस प्रकार के अन्धविश्वास से मानव बुद्धि कुण्ठित हो जाएगी। वेदों की प्रामाणिकता में विश्वास नहीं रखने के कारण बौद्ध धर्म ईश्वर को इस सृष्टि का निर्माता नहीं मानता है।
महात्मा बुद्ध के इस प्रकार के विचारों के कारण कुछ लोगों ने उन्हें ‘नास्तिक’ कहा। बुद्ध का कहना था कि मनुष्य की बुद्धि परीक्षात्मक होनी चाहिए। उसे किसी के कहे पर पूरा विश्वास न करके अपने आप बात और चीज को परखना चाहिए। स्वयं अपने विषय में उन्होंने कहा- ‘जो लोग मुझे सर्वज्ञ मानते हैं, वे मेरी निन्दा करते है।’
आत्मा के सम्बन्ध में मौन
वेदों में ‘आत्मा’ के सम्बन्ध में गहन विचार किया गया है किंतु महात्मा बुद्ध जीवन भर इस विषय पर मौन रहे। उन्होंने न तो यह कहा कि आत्मा है और न यह कहा कि आत्मा नहीं है। उन्होंने आत्मा सम्बन्धी विषय पर विवाद करने से ही मना कर दिया। क्योंकि यदि वे यह कहते कि आत्मा है तो मनुष्य को स्वयं से आसक्ति हो जाती और उनकी दृष्टि में आसक्ति ही दुःख का मूल कारण थी। यदि वे यह कहते कि आत्मा नहीं है तो मनुष्य यह सोचकर दुःखी हो जाता कि मृत्यु के बाद मेरा कुछ भी शेष नहीं रहेगा। अतः उन्होंने इस विवाद में पड़ना उचित नहीं समझा।
कर्म-फल के सिद्धांत में विश्वास
महात्मा बुद्ध कर्म-फल के सिद्धांत में विश्वास रखते थे। उनका कहना था कि मनुष्य जैसा कर्म करता है उसे वैसा ही फल भोगना पड़ता है। मनुष्य का यह लोक और परलोक उसके कर्म पर निर्भर हैं परन्तु बुद्ध के कर्म का अर्थ वैदिक कर्मकाण्ड से नहीं था। वे मनुष्यों की समस्त कायिक, वाचिक और मानसिक चेष्टाओं को कर्म मानते थे।
हमारे ये कर्म ही सुख-दुःख के दाता हैं। उनका कहना था कि मनुष्य की जाति मत पूछिए। निम्न जाति का व्यक्ति भी अच्छे कर्मों से ज्ञानवान और पापरहित मुनि हो सकता है और आचरणहीन ब्राह्मण, शूद्र हो सकता है। अतः महात्मा बुद्ध ने अन्तःशुद्धि और सम्यक् कर्मों पर जोर देकर समाज में नैतिक आदर्शवाद स्थापित करने पर जोर दिया।
पुनर्जन्म में विश्वास
वेदों में मनुष्य के पुनर्जन्म में विश्वास किया गया है। बुद्ध कर्मवादी थे तथा उनकी मान्यता थी कि कर्मों के अनुसार ही मनुष्य अच्छा या बुरा जन्म पाता है किंतु बुद्ध ने आत्मा के अस्तित्त्व के विषय में कुछ नहीं कहा। अतः यह प्रश्न उठना स्वाभाविक ही है कि फिर कर्मों का फल कौन भोगता है? पुनर्जन्म किसका होता है? महात्मा बुद्ध के अनुसार यह पुनर्जन्म आत्मा का नहीं अपितु अहंकार का होता है। जब मनुष्य की तृष्णाएँ एवं वासनाएँ नष्ट हो जाती हैं तो वह पुनर्जन्म के चक्र से मुक्त हो जाता है।
कार्य-कारण सम्बन्ध में विश्वास
यद्यपि वैदिक धर्म यह मानता है कि सृष्टि का उद्भव केवल ईश्वर की इच्छा से हुआ है तथा उसका कोई कारण नहीं है और ईश्वर बिना किसी कारण के कृपा करते हैं तथापि वैदिक धर्म कर्म-फल सिद्धांत तथा पुनर्जन्म में विश्वास रखने के कारण कार्य-कारण सम्बन्ध में विशवास रखता है। महात्मा बुद्ध भी संसार की प्रत्येक वस्तु और घटना के पीछे किसी न किसी कारण का होना मानते थे।
उनका कहना था कि प्रत्येक घटना अथवा स्थिति के कारणों को समझकर ही उससे मुक्ति पाने का उपाय किया जा सकता है। महात्मा बुद्ध का कहना था कि जन्म-मरण सकारण हैं। जन्म के कारण जरा एवं मरण है। कार्य-कारण की शृंखला से यह संसार चलता रहता है। संसार को चलाने के लिए किसी सत्ता अथवा ईश्वर की आवश्यकता नहीं पड़ती।
निब्बान (निर्वाण) में विश्वास
वैदिक धर्म मोक्ष में विश्वास रखता है जिसका अर्थ है कि मनुष्य के अच्छे कर्मों तथा ईश्वरीय कृपा से मनुष्य की आत्मा जन्म-मरण के चक्र को काटकर पुनः ईश्वर में विलीन हो जाती है तथा उसे फिर कभी जन्म नहीं लेना पड़ता। बौद्ध धर्म का अन्तिम लक्ष्य भी निर्वाण प्राप्त करना है किंतु यह वैदिक मोक्ष से थोड़ा भिन्न है। निर्वाण शब्द का अर्थ है ‘बुझना’।
बुद्ध का कहना था कि मन में पैदा होने वाली तृष्णा या वासना की अग्नि को बुझा देने पर निर्वाण प्राप्त हो सकता है। यह निर्वाण इसी जन्म में तथा इसी लोक में प्राप्त किया जा सकता है। निर्वाण का अर्थ है- बार-बार होने वाले जन्म-मरण की स्थिति से मुक्ति पाना।
बुद्ध का कहना था- ‘हे भिक्षुओ! यह संसार अनादि है। तृष्णा से संचालित हुए प्राणी इसमें भटकते फिरते हैं। उनके आदि-अन्त का पता नहीं चलता। भव-चक्र में पड़ा हुआ प्राणी अनादि काल से बार-बार जन्म लेता और मरता आया है। इसने संसार में बार-बार जन्म लेकर प्रिय-वियोग और अप्रिय-संयोग के कारण रो-रोकर अपार आँसू बहाए हैं। दीर्घकाल तक तीव्र दुःख का अनुभव किया है। अब तो तुम समस्त संस्कारों से निर्वेद प्राप्त करो, वैराग्य प्राप्त करो, मुक्ति प्राप्त करो।’
आत्मावलम्बन में विश्वास
गौतम बुद्ध ने आत्मावलम्बन को बड़ा महत्त्व दिया है। बौद्ध धर्म का एक प्रमुख तत्त्व करुणा है। करुणा के तीन भेद कहे गए हैं-
(1.) स्वार्थमूलक करुणा: माता-पिता की अपनी संतान के प्रति करुणा स्वार्थमूलक करुणा है।
(2.) सहेतुकी करुणा: किसी भी प्राणी को कष्ट में देखकर हृदय का द्रवित हो जाना सहेतुकी करुणा है।
(3.) अहेतुकी या महाकरुणा: इसमें न तो मनुष्य का स्वार्थ होता है और न वह पवित्रता का ही विचार करता है। वह समस्त प्राणियों पर समान रूप से अपनी करुणा बिखेरता है। महात्मा बुद्ध ने मनुष्य को स्वयं अपना भाग्यविधाता माना है। उनका मानना था कि मनुष्य अपने ही प्रयत्नों से दुःखों से छुटकारा प्राप्त कर सकता है। इसके लिए ईश्वरीय कृपा की आवश्यकता नहीं है।
पाटिच्च समुप्पाद (प्रतीत्य समुत्पाद)
बुद्ध के द्वितीय आर्य सत्य में द्वादश निदान का उल्लेख हुआ है। यह द्वादशनिदान का सिद्धांत ही प्रतीत्यसमुत्पाद कहलाता है। यह बुद्ध के उपदेशों का मुख्य सिद्धांत है। कर्म का सिद्धांत, क्षणिकवाद, नैरात्म्यवाद, संघातवाद और अर्थक्रियाकारित्व आदि शेष समस्त सिद्धांत प्रतीत्यसमुत्पाद पर आधारित हैं।
प्रतीत्यसमुत्पाद का अर्थ है- एक वस्तु के प्राप्त होने पर दूसरी वस्तु की उत्पत्ति अथवा एक कारण के आधार पर एक कार्य की उत्पत्ति। उसका सूत्र है– ‘यह होने पर यह होता है।’ दूसरे शब्दों में, इसे ‘कार्य-कारण नियम’ भी कह सकते हैं।
किसी भी घटना के लिए कोई कारण अवश्य होता है। बिना कारण के कुछ भी नहीं घटित होता। इस सिद्धांत से इस सत्य की स्थापना हुई कि संसार में बारम्बार जन्म और उससे होने वाले दुःखों का सम्बन्ध किसी सृष्टिकर्ता से नहीं है, प्रत्युत उनके कुछ निश्चित कारण एवं प्रत्यय होते हैं। इस कारण बुद्ध को अनीश्वरवादी कहा जाता है।
प्रतीत्यसमुत्पाद को महात्मा बुद्ध ने इतना अधिक महत्त्व दिया कि उन्होंने इसे ‘धम्म’ कहा है। प्रतीत्यसमुत्पाद सापेक्ष भी है और निरपेक्ष भी। सापेक्ष दृष्टि से वह संसार है और निरपेक्ष दृष्टि से निर्वाण। जो प्रतीत्यसमुत्पाद देखता है, वह धर्म देखता है और जो धर्म देखता है वह प्रतीत्यसमुत्पाद देखता है। उसको भूल जाना ही दुःख का कारण है। उसके ज्ञान से दुःखों का अंत हो जाता है।
क्षणिकवाद
प्रतीत्य समुत्पाद के सिद्धान्त से ही क्षणिकवाद अथवा परिवर्तनवाद का जन्म हुआ। बौद्ध दर्शन के अनुसार संसार और जीवन दोनों में से कोई नित्य नहीं है। उनकी स्वतंत्र सत्ता नहीं है। दोनों परिवर्तनशील हैं, इसलिए नाशवान हैं। महात्मा बुद्ध का कहना था कि यह जगत परिवर्तनशील है। इसकी प्रत्येक वस्तु प्रति क्षण बदलती रहती है, यहाँ तक कि आत्मा व जगत भी निरन्तर बदलता रहता है परन्तु संसार का यह परिवर्तन साधारण मनुष्य को दिखाई नहीं पड़ता। ठीक वैसे ही जैसे नदी का प्रवाह प्रति क्षण बदलते रहने पर भी पूर्ववत् ही प्रतीत होता है।
महात्मा बुद्ध के समाजिक विचार
महावीर स्वामी की भाँति महात्मा बुद्ध भी ब्राह्मणवादी जाति-व्यवस्था के विरोधी थे। वे जन्म के आधार पर किसी को छोटा या बड़ा नहीं मानकर कर्म के आधार पर व्यक्ति का मूल्यांकन करने के पक्षधर थे। वे दास-प्रथा के विरोधी थे। उनकी मान्यता थी कि बेकारी एक अभिशाप है और राज्य का कर्त्तव्य है कि वह प्रत्येक व्यक्ति को किसी न किसी काम में लगाए रखे।
बुद्ध राजतन्त्र के पक्ष में थे तथा राजा को समस्त भूमि का स्वामी मानते थे। उनके अनुसार आदर्श राजा वह है जो शस्त्रबल तथा दण्ड के बिना केवल नीति और धर्म के माध्यम से अच्छा शासन चला सके। उन्होंने सामाजिक उन्नति के लिए कई बातों पर बल दिया था। वे हिंसा, निर्दयता, स्त्रियों पर अत्याचार, दुराचारण, चुगलखोरी, कटु भाषा तथा प्रलाप के विरुद्ध थे।
उनकी मान्यता थी कि प्रत्येक गृहस्थ को अपने माता-पिता, अचार्य, पत्नी, मित्र, सेवक और साधु-सन्यासियों की सेवा करनी चाहिए। बैर से बैर नहीं मिट सकता अतः प्र्रेम का सहारा लेना चाहिए। अक्रोध से क्रोध को जीतना चाहिए। दूसरे के दोषों को देखने की आदत नहीं रखनी चाहिए। मनुष्य को अपने मन, वचन एवं कर्म को संतुलित रखकर जीवनयापन करना चाहिए।
बौद्ध-भिक्षु और संघ
बुद्ध जानते थे कि सब मनुष्य एक जैसे कठोर नियमों का पालन नहीं कर सकते। इसलिए उन्होंने अपने अनुयाइयों को ‘भिक्षु’ तथा ‘उपासक’ नामक दो श्रेणियों में विभाजित कर दिया। भिक्षु उन्हें कहते थे जो गृहस्थ जीवन छोड़कर बुद्ध के समस्त उपदेशों का पूर्ण पालन करते हुए बौद्ध धर्म के प्रचार प्रसार में जीवन व्यतीत करते थे। बुद्ध ने स्त्रियों को भी भिक्षुणी बनने का अधिकार दिया। उन्हें भी पुरुष-भिक्षुओं की भाँति कठोर नियमों का पालन करना पड़ता था। गृहस्थ स्त्री-पुरुषों को उपासक एवं उपासिका कहा जाता था। वे गृहस्थ जीवन में रहकर, बुद्ध द्वारा बताए गए नियमों का पालन करते थे।
भिक्षु-वर्ग को संगठित एवं संयमी बनाए रखने के लिए बुद्ध ने बौद्ध-संघ की स्थापना की। संघ में भिक्षुओं को निर्धारित दिनचर्या और कार्यक्रम के अनुसार जीवन बिताना पड़ता था। संघ में जाति-पाँति का भेद नहीं था और न ही इसका कोई अधिपति होता था। संघ का मुख्य काम बौद्ध धर्म का प्रचार करना था। संघों में रहने वाले भिक्षु-भिक्षुणियों के लिए अलग-अलग मठ बने होते थे जहाँ वे त्यागमय एवं सादा जीवन बिताते थे। वर्ष के आठ माह तक भिक्षुगण घूम-घूमकर बौद्ध धर्म का प्रचार करते थे और चार माह मठ में रहते हुए आत्मचिन्तन एवं साधना करते थे। इनमें से बहुत से मठ शिक्षा के महत्त्वपूर्ण केन्द्र बन गए।
बौद्ध संघ गणतन्त्रात्मक प्रणाली के आधार पर संगठित किया गया था। संघ सम्बन्धी कार्यों में प्रत्येक भिक्षु के अधिकार समान थे। संघ की बैठकों में उपस्थित रहना अनिवार्य था। अनुपस्थित व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति के माध्यम से भी अपना मत प्रकट करवा सकता था। प्रत्येक सदस्य स्वतन्त्रतापूर्वक अपना मत दे सकता था। बहुमत के द्वारा निर्णय लिए जाते थे। प्रत्येक प्रस्ताव को तीन बार प्रस्तुत और स्वीकृत किया जाता था। तभी वह ‘नियम’ बनता था।
संघ की सभाओं में सदस्यों के बैठने की व्यवस्था करने वाले को ‘आसन-प्रज्ञापक’ कहते थे। बैठक में प्रस्ताव रखने वाले को प्रस्ताव की सूचना पहले से देनी होती थी। इस कार्यवाही को ‘ज्ञाप्ति’ कहा जाता था। प्रस्ताव को ‘नति’ कहा जाता था। प्रस्ताव प्रस्तुत करने को ‘अनुस्सावन’ अथवा ‘कम्मवाचा’ कहा जाता था।
विचार-विमर्श के बाद प्रस्ताव पर मतदान होता था। कभी-कभी शलाकाओं द्वारा मतदान की व्यवस्था की जाती थी। संघीय-सभा करने के लिए 30 सदस्यों की उपस्थिति आवश्यक थी। कोरम के अभाव में सभा की कार्यवाही अवैध समझी जाती थी। इस प्रकार, संघ गणतान्त्रिक पद्धति के अनुसार कार्य करता था।
बौद्ध धर्म की शाखाएं
गौतम के तीन शिष्यों- उपाली, आनंद तथा महाकश्यप ने बुद्ध के उपदेशों को याद रखा और अपने शिष्यों को बताया। ई.पू.247 में सम्राट अशोक के समय पाटलिपुत्र में तीसरी बौद्ध सभा में गौतम बुद्ध के उपदेश एकत्रित किए गए। बुद्ध के शिष्यों ने उनके उपदेशों को तीन भागों में विभक्त किया जो कि ‘विनय पिटक’, ‘सुत्त पिटक’ और ‘अभिधम्म पिटक’ कहलाते हैं। ये ही बौद्ध साहित्य के मूल ग्रंथ हैं।
बुद्ध द्वारा स्थापित संघ के भिक्षु, अपनी-अपनी रुचि के अनुसार उनके वचनों का भिन्न-भिन्न अर्थ लगाकर मतों का प्रतिपादन करने लगे। इससे बौद्ध संघ दो मतों में बंट गया- ‘महासांघिक’ तथा ‘स्थविरवादी’। महासांघिक मत क्रमशः अनेक वर्गों में विभाजित हो गया।
स्थविरवादी भी पहली शताब्दी ईस्वी के आरम्भ में ‘महायान’ और ‘हीननयान’ नामक दो सम्प्रदायों में विभक्त हो गए। महायान सम्प्रदाय में भी कुछ और शाखाएं विकसित हो गईं जिनमें ‘विज्ञानवाद’ अथवा ‘योगाचार’ और ‘माध्यमिक’ अथवा ‘शून्यवाद’ अधिक प्रसिद्ध हुए। इसी प्रकार हीनयान में उत्पन्न हुई शाखाओं में ‘वैभाषिक’ तथा ‘सौतांत्रिक’ प्रसिद्ध दार्शनिक सम्प्रदाय हुए।
वैदिक धर्म से उत्पन्न भागवत् धर्म का बौद्ध धर्म पर प्रभाव
बौद्ध धर्म एवं जैन-धर्म के आविर्भाव के बाद भारत की पश्चिमी सीमा से यवन, शक, कुषाण, पह्लव आदि जातियों के आक्रमण हुए। अहिंसा में विश्वास रखने वाले जैन एवं बौद्ध धर्म इन आक्रांताओं का सामना नहीं कर सकते थे। अतः देश को एक ऐसे धर्म की आवश्यकता थी जो हाथ में तलवार लेकर शत्रुओं का संहार कर सके।
समाज की इस आवश्यकता की पूर्ति के लिए एक बार पुनः वैदिक धर्म सामने आया और उसके भीतर ‘भागवत् धर्म’ का उदय हुआ जिसके परम उपास्य ‘वासुदेव’ हैं जिन्हें संकर्षण एवं विष्णु भी कहा गया है। इस धर्म को सात्वत धर्म, पांचरात्र धर्म तथा नारायणीय आदि नामों से भी जाना जाता है। भागवत् धर्म आगे चलकर वैष्णव धर्म के रूप में प्रकट हुआ।
वासुदेव धर्म अथवा वैष्ण्व धर्म का प्रथम उल्लेख ई.पू. पांचवीं शताब्दी में पाणिनी के ग्रंथ ‘अष्टाध्यायी’ में हुआ है। ई.पू. चौथी शताब्दी में यूनानी राजदूत मेगस्थिनीज ने चन्द्रगुप्त मौर्य की सभा में ‘सौरसेनाई’ नामक भारतीय जाति का उल्लेख किया है जो ‘हेरेक्लीज’ की पूजा करती थी। इतिहासकारों ने हेरेक्लीज को वासुदेव कृष्ण माना है। ई.पू.113 के भिलसा अभिलेख में कहा गया है- ‘भागवत् हेलिओडोरेस ने देवाधिदेव वासुदेव की प्रतिष्ठा में गरुड़-स्तम्भ का निर्माण करवाया।’
यह हेलियोडोरस तक्षशिला का निवासी था तथा मालवा नरेश भागभद्र के दरबार में इंडो-बैक्ट्रियन यवन राजा एण्टियालकिडस का राजदूत था। स्पष्ट है कि ई.पू. द्वितीय शती तक भागवत् धर्म का पर्याप्त प्रचार हो चुका था।
पद्यतंत्र के अनुसार- ‘भागवत् धर्म के सम्मुख अन्य पांच मत- योग, सांख्य, बौद्ध, जैन तथा पाशुपत, रात्रि के समान मलिन हो जाते हैं, इसलिए इसे ‘पांचरात्र’ धर्म भी कहा जाता है।’ इस उक्ति से सहज ही अनुमान किया जा सकता है कि भागवत् धर्म के उदय से जैन-धर्म एवं बौद्ध धर्म को बहुत बड़ा धक्का लगा।
भागवत् धर्म के आधार वासुदेव थे जिसका अर्थ होता है- ‘एक ऐसा सर्वव्यापक देवता जो सर्वत्र वास करता है।’ वासुदेव अथवा नारायण अथवा विष्णु का ‘चक्रधारी स्वरूप’ एवं उनके अवतार ‘राम’ तथा ‘कृष्ण’ के ‘शत्रुहन्ता’ स्वरूप उस काल के क्षत्रियों को अधिक अनुकूल जान पड़े जो हाथों में अस्त्र-शस्त्र धारण करके अपने शत्रुओं एवं दुष्टों का संहार करते हैं।
भागवत् धर्म ने न केवल अपना शत्रुहंता स्वरूप ही प्रकट किया अपितु वैदिक धर्म की जटिलताओं को दूर करके जनसामान्य को तेजी से अपनी ओर आकर्षित किया। भागवत् धर्म ने जन-सामान्य के लिए वेदवर्णित कर्मकाण्डों एवं खर्चीले यज्ञों के स्थान पर सर्वशक्तिमान ‘भगवान’ की भक्ति पर जोर दिया।
भगवान के ‘संकट-मोचन’ एवं ‘भक्तवत्सल’ स्वरूप के कारण भागवत् धर्म को अपार लोकप्रियता प्राप्त हुई। उस काल में एक ओर जैन-धर्म अपने तात्विक विवेचन की जटिलता के कारण एवं उच्च जातियों की बहुलता के कारण जनसामान्य से दूर हो रहा था तो दूसरी ओर बौद्ध धर्म में गृहस्थों के लिए निर्वाण की व्यवस्था नहीं होने के कारण वह भी लोकप्रियता खोता जा रहा था।
इन कारणों से बौद्ध धर्म ने भी अपने भीतर कई तरह के परिवर्तनों की आवश्यकता अनुभव की। कुछ बौद्धों ने इन परिवर्तनों को मानने से इन्कार कर दिया। इस कारण ईसा की पहली शताब्दी के आसपास बौद्ध धर्म दो भागों में बंट गया। जो लोग पुराने नियमों पर चलते रहे उन्हें ‘हीनयान’ अर्थात् ‘छोटी गाड़ी’ वाले कहा गया। जिन लोगों ने नए नियमों एवं परिवर्तनों को स्वीकार कर लिया, उन्हें ‘महायान’ अर्थात् ‘बड़ी गाड़ी वाला‘ कहा गया।
हीनयान सम्प्रदाय
हीनयान सम्प्रदाय बौद्ध धर्म के प्राचीन स्वरूप को मानता है। यह सम्प्रदाय महात्मा बुद्ध को ‘धर्म-प्रवर्तक’ तथा ‘निर्वाण प्राप्त व्यक्ति’ मानता है न कि ईश्वर का अवतार। हीनयान सम्प्रदाय कर्मवाद एवं पुनर्जन्म में विश्वास रखता है तथा ईश्वर की सत्ता में विश्वास नहीं रखकर स्वयं पर विश्वास रखता है। इस सम्प्रदाय का मानना है कि बुद्ध द्वारा बताए गए मार्ग का अनुसरण करने से निर्वाण की प्राप्ति हो सकती है और निर्वाण प्राप्ति के लिए यही सही मार्ग है।
इस सम्प्रदाय का कथन है कि अपने लिए स्वयं प्रकाश बनो किंतु, स्वयं के प्रकाश को पहचान सकना प्रत्येक के वश में नहीं होता। शुभ और अशुभ दोनों तरह की वासनाएँ हेय हैं। ये लोग निवृत्ति पर अधिक बल देते हैं। इस सम्प्रदाय को इसलिए ‘हीन-सम्प्रदाय’ अर्थात् छोटी गाड़ी कहते थे क्योंकि इस सम्प्रदाय के कठोर सिद्धांतों पर चलकर बहुत कम व्यक्ति निर्वाण का प्राप्त कर सकते थे।
महायान सम्प्रदाय
महायान सम्प्रदाय की मान्यता है कि बुद्ध के पूर्व भी बौद्ध धर्म के अनेक प्रवर्तक हुए जिन्हें वे ‘बोधिसत्व’ कहते हैं। प्रत्येक ‘कुल पुत्र’ ‘बोधिचर्चा’ से अर्थात् करुणा, मुदिता, मैत्री और अपेक्षा के आचरण द्वारा या दान, शील, क्षमा, वीर्य, ध्यान और प्रज्ञा नामक छः पारमिताओं की साधना द्वारा बुद्धत्व के मार्ग पर चल सकता है किन्तु उसे बुद्ध बनने में रुचि नहीं है। वह अकेले बुद्धत्व को प्राप्त करना उचित नहीं समझता जबकि उसके अन्य साथी दुःख और कष्टों के बन्धन में जकड़े हुए हैं।
वह ऐसे लोगों की सेवा करने को बुद्धत्व से भी ज्यादा महत्त्वपूर्ण मानते हैं। उसके लिए प्राणी मात्र की भलाई और सेवा करना ही जीवन का चरम लक्ष्य है और वह इसी को निर्वाण मानता है। ऐसे लोगों को महाज्ञानी ‘बोधिसत्व’ कहते हैं। ‘बोधिसत्वचर्या’ का एक अंग करुणा है और दूसरा प्रज्ञा। करुणा से लोक-सेवा और परोपकार की भावना विकसित होती है। प्रज्ञा से संसार का वास्तविक स्वरूप और आतंरिक मर्म से साक्षात्कार होता है।
भागवत् धर्म और विदेशी आक्रांताओं के संयुक्त प्रभाव से महायान सम्प्रदाय में बुद्ध की मूर्ति-पूजा का चलन हुआ। बुद्ध तो स्वयं को सर्वज्ञ कहलाने के भी विरुद्ध थे किन्तु उनके अनुयाई उन्हें ‘ईश्वर’ एवं ‘ईश्वर का अवतार’ मानने लगे। गान्धार और मथुरा में स्थानीय शैलियों में बुद्ध की प्रतिमाएं बड़ी संख्या में बनने लगीं और ‘बुद्ध’ तथा ‘बोधिसत्वों’ की पूजा होने लगी। जिस प्रकार वैष्णव मत की मान्यता थी कि भक्ति के द्वारा ईश्वर तथा मोक्ष को प्राप्त किया जा सकता है, उसी प्रकार, महायान मत की भी मान्यता थी कि ईश्वर के अवतार बुद्ध तथा बोधिसत्वों की भक्ति के द्वारा निर्वाण प्राप्त किया जा सकता है।
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