जैन-धर्म के सिद्धान्त
निवृत्ति मार्ग
जैन धर्म, आर्यों के प्रवृत्तिमूलक धर्म के विरुद्ध निवृत्तिमार्गी था। वह आर्यों की भाँति इस संसार के समस्त सुखों की कामना नहीं करता। उसके लिए संसार के समस्त सुख, दुःखमूलक तथा व्याधि रूप हैं। क्योंकि संसार के सुखों को भोगने से कामनाएँ शान्त नहीं होतीं, अपितु बढ़ती हैं।
मनुष्य जन्म-मृत्यु के चक्र से पीड़ित है। गृहस्थ जीवन में भी सुख-शान्ति नहीं है। जैन-धर्म के अनुसार सारा संसार दुःखमय है। इस दुःख का कारण कभी तृप्त न होने वाली तृष्णा है जिससे मनुष्य आजीवन घिरा रहता है। बौद्ध धर्म की भाँति जैन-धर्म की मुख्य समस्या भी दुःख और दुःख-विरोध हैं। जैन-धर्म के अनुसार मनुष्य का सुख सांसारिक सुखों को भोगने में नहीं है अपितु इस संसार को त्यागने में है।
मनुष्य को सब कुछ त्यागकर, कभी अन्त न होने वाले दुःखों को त्यागकर, संसार से कोई सम्बन्ध न रखकर तथा भिक्षु बनकर जीवन व्यतीत करना चाहिए। इस प्रकार जैन-धर्म वस्तुतः भिक्षु धर्म है। यह निवृत्ति मार्ग है जो आर्यों की प्रवृत्तिमूलक विचारधारा के विपरीत था।
जीव और अजीव
महावीर के अनुसार सम्पूर्ण दृश्य जगत् ‘जीव’ और ‘अजीव’ नामक दो तत्त्वों में विभक्त है। ये दोनों ही तत्त्व शाश्वत हैं, अनादि और अनन्त हैं। इनसे ही मिलकर यह जगत् बनता है। इसलिए जगत भी अनादि और अनन्त है। जीव तथा अजीव का कर्त्ता कोई नहीं है। जीव चैतन्य द्रव्य है और अजीव चैतन्य रहित है। जैन-धर्म में आत्मा के अस्तित्त्व को विश्वास सहित और ज्ञानपूर्वक माना गया है।
जीव ही आत्मा है तथा यह सृष्टि के कण-कण में विद्यमान है। जीव का विस्तार शरीर के अनुसार होता है। इसका कार्य अनुभूति है अर्थात् जीव को सुख दुःख सन्देह, ज्ञान आदि का अनुभव होता है। जीव, अजीव के ढाँचे (शरीर) में रहता है। अजीव अवस्था अर्थात् जड़ पदार्थ को पुद्गल कहते हैं। पुद्गल उस वस्तु को कहते हैं जिसे जोड़कर बड़ा किया जा सके अथवा तोड़कर छोटा किया जा सके।
इसके सबसे लघुत्तम भाग अर्थात् परमाणुओं के आपस में मिलने से भौतिक संसार के विभिन्न रूप बनते हैं, जिनके पाँच गुण हैं– स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण और शब्द। इस प्रकार, जीव और अजीव के मिलने से जगत् की रचना होती है। जीव और अजीव के सम्बन्ध का माध्यम कर्म है। पुद्गल ही कर्म है जो जीव को घेरे रहता है जैसे खान के भीतर धातु मिट्टी में मिली रहती है, इसी प्रकार जीव इस कर्म नामक बारीक ‘मैटर’ से सना रहता है।
वह हर समय जीवन से चिपटा रहता है। कर्म, जीव पर रूप, रंग, रस और गन्ध की विशिष्ट छाप लगाते हैं जिसे ‘लेश्या’ कहते हैं। इनसे पृथक होना अर्थात् पुद्गल से अलग होना, कर्म के बन्धन को तोड़ना है। कर्म के बन्धन को तोड़ने का अर्थ है- जन्म-मरण और पुनर्जन्म के चक्र से मुक्त होना। इसी का नाम मोक्ष है।
इस प्रकार जीव के दो रूप होते हैं- मुक्त जीव और बद्ध जीव। जो जीव त्रिरत्न तथा पंचव्रतों के पालन के कारण जन्म-मरण के बंधन से मुक्त हो गए, वे मुक्त जीव हैं किंतु जो जीव जन्म-मरण के बंधने में बंधे होते हैं, वे बद्ध जीव हैं। बद्ध जीव भी दो प्रकार के होते हैं- स्थावर एवं जंगम। जल, पृथ्वी, वायु और वनस्पति स्थावर जीव हैं जिनमें एक ही इन्द्रिय होती है। मुष्य, पशु और पक्षी जंगम जीव हैं जिनमें पांच इंद्रियां होती हैं। अजीव अचेतन तत्त्व हैं इसके अंतर्गत पांच पदार्थ आते हैं- धर्म, अधर्म, काल, आकाश तथा पुद्गल। यह समस्त संसार जीव एवं अजीव के घात-प्रतिघात से संचालित होता है।
बन्ध और मुक्ति
बन्ध के दो मुख्य कारण हैं- राग और द्वेष। इनसे ही चार कषायों- क्रोध, मान, माया और लोभ का उदय एवं विकास होता है। राग और द्वेष जीव में आसक्ति या कामना उत्पन्न करते हैं। इससे जीव अपना विवेक खो बैठता है और संसार में भटकता रहता है। वह राग और द्वेष से उत्पन्न कषायों- हिंसा, झूठ, चोरी, लोभ आदि का आश्रय लेता है।
जैन आगम में कर्म, ‘क्रिया’ को नहीं कहते अपितु ‘पुद्गल-परमाणुओं’ को कहते हैं। पुद्गल-परमाणुओं का बहना या बनना ‘आश्रव’ कहलाता है। यही आश्रव व्यक्ति के कर्मबन्ध का कारण होता है। वह हिंसा आदि को सत्य और पाने योग्य समझकर आचरण करता है तथा कर्मों के बन्धनों में बंध जाता है। इसी को बन्ध कहते हैं। आश्रव और बन्ध पुनर्जन्म के मुख्य कारण हैं।
राग और द्वेष दुःख ही पैदा नहीं करते, सुख भी पैदा करते हैं। जो कर्म दुःख के कारण होते हैं उन्हे पाप कहा जाता है और सुख के कारण होते है उन्हें पुण्य कहा जाता है। पाप और पुण्य दोनों का जन्म आसक्ति के कारण होता है। ‘पुण्य-बन्ध’ से जीव का जो शरीर बनता है वह ‘पाप-बन्ध’ से बनने वाले शरीर से भिन्न किस्म का होता है।
‘पाप बन्ध’ की अवस्था में जीव पूर्ण रूप से ‘कषाय-ग्रस्त’ हो जाता है परन्तु ‘पुण्य-बन्ध’ की अवस्था में ‘कषाय’ जीव की विवेक शक्ति को पूरी तरह से नहीं दबा पाते। ‘पुण्य-बन्ध’ की अवस्था में जीव में यह विवेक बना रहता है कि क्या चीज ग्रहण करने योग्य है और क्या त्याज्य है? इस प्रकार की जिज्ञासा का उदय ही राग-द्वेष पर रोक लगाता है।
इस रोक को ‘संवर’ कहते हैं। संवर के परिणामस्वरूप धीरे-धीरे संचित कर्म कटते हैं या नष्ट हो जाते हैं। कर्म-नाश की इस प्रकिया को ‘निर्जरा’ कहते हैं। पूर्ण निर्जरा की स्थिति का ही दूसरा नाम ‘मुक्ति’ है।
मोक्ष अथवा निर्वाण
राग-द्वेष या आसक्ति के बन्धन से मुक्ति ही ‘मोक्ष’ है। मोक्ष का ही दूसरा नाम ‘निर्वाण’ है। निर्वाण, जैन-धर्म का चरम लक्ष्य है। इसके लिए कर्म-फल से मुक्ति पाना आवश्यक है। निर्वाण की अवस्था में मनुष्य समस्त प्रकार की कामनाओं से मुक्त होकर अन्नत शान्ति को प्राप्त करता है।
निर्वाण का अर्थ अस्तित्त्व की समाप्ति नहीं है। इसका अभिप्राय जीव के भौतिक अंश अर्थात् पुद्गल के विनाश से है। जीव का आत्मिक तत्त्व कभी समाप्त नहीं होता। निर्वाण का अर्थ शून्यता, अकर्मण्यता अथवा निष्क्रियता भी नहीं है। निर्वाण प्राप्त व्यक्ति विशुद्ध रूप में देख-सुन सकता है।
त्रिरत्न
जीव के लिए कैवल्य अथवा मोक्ष की प्राप्ति सरल नहीं है। महावीर ने कैवल्य प्राप्ति के लिए तीन साधन बताए जो जैन-धर्म में ‘त्रिरत्न’ के नाम से प्रसिद्ध हैं- सम्यक दर्शन, सम्यक ज्ञान और सम्यक चरित्र। जैन-धर्म के अनुसार पूर्व जन्म के कर्म-फल को नष्ट करने तथा इस जन्म के कर्म-फल से बचने के लिए ‘त्रिरत्नों’ का पालन करना आवश्यक है। इसी से मनुष्य निर्वाण की ओर अग्रसर हो सकता है।
(1.) सम्यक ज्ञान: सम्यक ज्ञान का अर्थ है सही विचार अर्थात् सत् और असत् का भेद समझ लेना। जैन-धर्म के अनुसार तीर्थंकरों की शिक्षाओं के ध्यानपूर्वक अध्ययन से सत् और असत् का भेद ग्रहण हो जाता है। यह सत्य और पूर्ण ज्ञान ही सम्यक् ज्ञान है।
ज्ञान पाँच प्रकार का होता है- 1. मति ज्ञान- जो इन्द्रियों द्वारा प्राप्त होता है, जैसे नाक के द्वारा गन्ध का ज्ञान होना। 2. श्रुति ज्ञान- वह ज्ञान जो सुनकर अथवा वर्णन के द्वारा प्राप्त होता है। इसे शास्त्र ज्ञान भी कहते हैं। 3. अवधि ज्ञान- अर्थात् दूर देश और काल का ज्ञान। 4. मन पर्याय- अन्य व्यक्तियों के भावों और विचारों को जान लेने वाला ज्ञान और 5. केवल्य ज्ञान- देश-काल की सीमाओं से परे का सम्पूर्ण ज्ञान। यह पूर्ण ज्ञान है, जो निग्रन्थों को प्राप्त होता है।
जीव में पूर्ण ज्ञान रहता है परन्तु भौतिक आवरण के कारण वह छिप जाता है। भौतिक तत्त्व का नाश होते ही जीव को पूर्ण ज्ञान प्राप्त हो जाता है और वह निग्रन्थ हो जाता है।
(2.) सम्यक् दर्शन: सम्यक् दर्शन का अर्थ है- यथार्थ ज्ञान के प्रति श्रद्धा। तीर्थंकरों और जैन शास्त्रों में निहित ज्ञान के प्रति संशय रहित पूर्ण आस्था एवं श्रद्धा ही सम्यक् दर्शन है। इसके आठ अंग हैं- (1.) सन्देह अथवा संशय को दूर करना, (2.) सांसारिक सुखों की इच्छा को दूर करना, (3.) आसक्ति-विरक्ति को दूर करना, (4.) गलत रास्ते से दूर रहना, (5.) मिथ्या धारणाओं से दूर रहना, (6.) सही विश्वास पर जमे रहना, (7.) समस्त प्राणियों से समान प्रेम रखना और (8.) जैन-धर्म के सिद्धान्तों में पूर्ण आस्था रखना।
इन आठ अंगों का पालन करने के लिए तीन प्रकार की गलतियों से बचना आवश्य है- (1.) अन्ध-विश्वास से बचना (2.) देवी-देवताओं के पूजन से पुण्य प्राप्ति की आशा से बचना और (3.) कपटी साधु सन्तों के कपटजाल से बचना।
(3.) सम्यक चरित्र: तीर्थंकरों द्वारा प्रदर्शित मार्ग पर चलकर नैतिक एवं सदाचार पूर्ण जीवन-यापन करना ही सम्यक चरित्र है। इन्द्रियाँ जीव के बाह्य उपकरण हैं और इनकी सहायता से वह बाह्य जगत की जानकारी प्राप्त करता है।
उदाहरण के लिए आँख का काम है देखना। प्रत्येक जीव सुन्दर दृश्य को देखना पसन्द करेगा और असुन्दर दृश्य से आँखें हटा लेगा अर्थात् सुन्दर दृश्य में उसकी आसक्ति है परन्तु जो जीव सुन्दर-असुन्दर के भेद के प्रति उदासीन होकर अनासक्त हो जाता है, उसके लिए समस्त दृश्य एक समान हो जाते हैं। इसी को सम्यक-आचरण कहते हैं।
बाह्य जगत के विषयों के प्रति सम-दुःख-सुख-भाव ही सम्यक आचरण है और इसी को सम्यक-चरित्र कहते हैं। सम्यक् चरित्र के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए पंच अणुव्रतों का पालन किया जाना चाहिए। पंचव्रत के पालन में महावीर ने गृहस्थों और यतियों में भेद किया है। क्योंकि ये दोनों एक जैसे नियम नहीं पाल सकते। सामान्य श्रावक के लिए ये पंच-अणुव्रत रूप में और मुनियों के लिए पंच-महाव्रत के रूप में हैं।
पंच अणुव्रत
(1.) अहिंसा अणुव्रत: निरपराध को दण्डित या पीड़ित नहीं करना।
(2.) सत्य अणुव्रत: प्रेम, द्वेष एवं उद्वेग आदि वृत्तियों को संयमित करके सच बोलना।
(3.) अस्तेय अणुव्रत अथवा अचौर्याणुव्रत: किसी की वस्तु न चुराना और कोई पड़ी हुई वस्तु न उठाना।
(4.) ब्रह्मचर्य अणुव्रत: अपने दाम्पत्य में संतुष्ट रहना तथा मन-वचन-कर्म से पर-स्त्री या पर-पुरुष से सम्पर्क न रखना।
(5.) अपरिग्रह अणुव्रत अथवा परिग्रह परमाणु व्रत: आवश्यकता से अधिक धन तथा धान्य का संग्रह नहीं करना।
जैन यतियों एवं साधुओं के लिए निर्धारित पंचव्रत, पंच महाव्रत कहलाते हैं।
पंच महाव्रत
(1.) अहिंसा: मन, वचन और कर्म से किसी का अहित नहीं करना ही अहिंसा है। अहिंसा का उपदेश ही महावीर स्वामी की शिक्षाओं और जैन-धर्म के सिद्धान्तों का मूल मन्त्र है। अहिंसा का व्यापक अर्थ प्राणी-मात्र के प्रति दया, समानता और उपकार की भावना रखने से है। गृहस्थों के लिए पूर्ण अहिंसाव्रत धारण करना कठिन है, इसलिए उनके लिए स्थूल अहिंसा का विधान किया गया है जिसका अर्थ है- निरपराधियों की हिंसा नहीं करना।
(2.) सत्य: महावीर स्वामी ने सत्य वचन पर अत्यधिक जोर दिया, क्योंकि बिना सत्य भाषण के अहिंसा का पालन सम्भव नहीं है। महावीर स्वामी का उपदेश था कि मनुष्य को प्रत्येक परिस्थिति में सत्य बोलना चाहिए।
(3.) अस्तेय: अस्तेय का अर्थ है- ‘जो वस्तु अपनी नहीं है, उसे ग्रहण नहीं करना।’ महावीर स्वामी ने चोरी को महान् अनैतिक कार्य बताया तथा इससे दूर रहने को कहा। उन्होंने गृहपति की अनुमति के बिना किसी के घर में नहीं जाने तथा भिक्षा में प्राप्त अन्न को गुरु की इच्छा के बिना ग्रहण न करने को भी अस्तेय में सम्मिलित किया।
(4.) अपरिग्रह: अपरिग्रह का अर्थ है– ‘संग्रह न करना’ और इसका व्यापक अर्थ है- ‘किसी भी वस्तु में ममत्व नहीं रखना।’ महावीर के अनुसार जो व्यक्ति सांसारिक वस्तुओं का संग्रह नहीं रखता, वह संसार के मायाजाल से दूर रहता है।
(5.) ब्रह्मचर्य: पार्श्वनाथ ने उपरोक्त चार महाव्रत ही बताए थे, महावीर स्वामी ने चार व्रतों में पाँचवाँ व्रत जोड़कर इन्हें त्रिरत्नों की प्राप्ति का साधन बताया। ब्रह्मचर्य का अर्थ विपरीत लिंगी शरीर से दूर रहना होता है।
सात शील व्रत
महावीर के धर्म में पाँच व्रतों के साथ-साथ सात शील व्रतों के पालन का भी निर्देशन किया गया-
(1.) दिग्व्रत: अपनी क्रिया को कुछ विशिष्ट दिशाओं में सीमित करना।
(2.) देशव्रत: अपना कार्य कुछ विशिष्ट देशों तक सीमित रखना।
(3.) अनर्थ दण्डव्रत: बिना कारण अपराध का भागी न बनाना।
(4.) सामयिक: अपने ऊपर विचार करने के लिए समय का कुछ भाग निश्चित करना।
(5.) प्रोषधोपवास: प्रत्येक मास के दोनों पक्षों की अष्टमियों और चतुर्दशियों को उपवास करना।
(6.) उपभोग-प्रतिभोग परिणाम: दैनिक उपभोग की वस्तुओं और पदार्थों को नियमित करना।
(7.) अतिथि संविभाग: घर आए साधु या उपासक को भोजन कराने के बाद भोजन करना।
पाँच समिति
जैन-धर्म के अनुसार मनुष्य को अपने दैनिक जीवन में पाँच बातों की सतर्कता बरतनी चाहिए-
(1.) ईर्या समिति: चलते-फिरते समय सावधानी रखना ताकि किसी जीव को कष्ट न पहुंचे।
(2.) भाषा समिति: बोलते समय सावधानी रखना ताकि किसी मानव को ठेस न पहुँचे।
(3.) एषणा समिति: खाना खाते समय सावधानी बरतना ताकि कोई जीव न मरे।
(4.) आदान निक्षेप समिति: वस्तुओं को उठाते, रखते और प्रयोग करते समय सावधानी रखना जिससे दूसरे को कष्ट न हो।
(5.) उत्सर्ग समिति: मल-मूत्र त्याग में सावधानी रखना तथा गन्दगी न फैलाना।
अनेकान्तवाद अथवा स्याद्वाद
जैन दर्शन के अनुसार वस्तु के अनन्त स्वरूप हैं। ज्ञानी अथवा अर्हत् या जीवनमुक्त व्यक्ति ही उन वस्तुओं की अनन्त्ता को जान सकते हैं। सामान्य जन वस्तु के कुछ स्वरूपों को ही जानते हैं। ज्ञान की यह विभिन्नता सात प्रकार की हो सकती है-
(1.) है,
(2.) नहीं है,
(3.) है और नहीं है,
(4.) कहा नहीं जा सकता,
(5.) है, किन्तु कहा नहीं जा सकता,
(6.) नहीं है और कहा नहीं जा सकता,
(7.) है और नहीं है, किन्तु कहा नहीं जा सकता।
जैन-धर्म में इसे अनेकान्तवाद, स्याद्वाद अथवा सप्त-भंगी का सिद्धान्त कहते हैं। यह भी हो सकता है कि एक व्यक्ति किसी एक स्वरूप को जाने हुए हो और दूसरा किसी और स्वरूप को।यह भी सम्भव है कि वक्ता जाने हुए स्वरूप को भी आवश्यकतानुसार अंशमात्र ही कहे। भिन्न-भिन्न व्यक्तियों के इस प्रकार के कथन परस्पर-विरोधी प्रतीत हो सकते हैं।
जबकि वे अपनी-अपनी दृष्टि से ठीक हैं। यदि मनुष्य तटस्थ भाव से उसी वस्तु का दर्शन करता है और जैसी वह उसे दिखाई देती है, वह वैसी ही उसे बताता है तो वह बताना सत्य ही कहा जाएगा, असत्य नहीं। समझ और विवेक के परिणाम की भिन्नता के कारण स्वरूप को समझने में कल्पना की अधिकता रहेगी ही।
अनेकान्तावाद अथवा स्यादवाद इसी दृष्टि को जगाता है। वस्तु के अनेक स्वरूपों को जानने के लिए ‘आविष्ट बुद्धि’ नहीं अपितु ‘निर्मल बुद्धि’ चाहिए। यदि बुद्धि निर्मल है तो विविधता चाहे भाव की हो या विचार या कर्म की हो, वह विचित्र न लग कर स्वाभाविक लगेगी। स्याद्वादी वही हो सकता है जो निर्मल अन्तःकरण वाला है, प्रशान्त है और जिसकी संवेदना सूक्ष्म को ग्रहण करती है।
तपस्या और उपवास
महावीर ने आत्मा को वश में करने तथा पाँच आचरणों का पालन करने में तपस्या और उपवास पर सर्वाधिक बल दिया। उन्होंने दो प्रकार की तपस्या बताई- एक बाह्य तथा दूसरी आन्तरकि। बाह्य तपस्या में व्रत, अन्न त्याग, भिक्षाचार्य तथा कष्ट सहन करना मुख्य हैं। आन्तरिक तपस्या में नम्रता, सेवा, स्वाध्याय, ध्यान तथा शरीर त्याग सम्मिलित है।
बाह्य तपस्या करने से व्यक्ति में आन्तरिक तपस्या करने की क्षमता आती है और उससे आदमी में अच्छे विचारों का विकास होता है। महावीर स्वामी ने तपस्या का सबसे सरल उपाय उपवास बताया है। इससे शरीर एवं आत्मा शुद्ध होते हैं और मनुष्य मोक्ष प्राप्त करता है।