Sunday, December 22, 2024
spot_img

अध्याय – 4 – भारत की पाषाण सभ्यताएँ एवं संस्कृतियाँ (अ)

उस समय न तो मृत्यु थी, न अमरत्व था। रात और दिन का पार्थक्य भी नहीं हुआ था। उस समय केवल एक ही था जो वायु के बिना भी अपने सामर्थ्य से साँस ले रहा था। उससे अतिरिक्त और कोई वस्तु थी ही नहीं।

– ऋग्वेद, 10.129

आधुनिक विज्ञान के अनुसार आज से लगभग 454 करोड़ वर्ष पहले, आग के गोले के रूप में धरती का जन्म हुआ जो धीरे-धीरे ठण्डी होती हुई आज से लगभग 380 करोड़ साल पहले इतनी ठण्डी हो गई कि धरती पर एक-कोषीय जीव का पनपना संभव हो गया।

आज से लगभग 2.80 करोड़ वर्ष पहले धरती पर बंदरों का उद्भव हुआ। माना जाता है कि इन्हीं बंदरों में से कुछ बुद्धिमान बंदर अपने मस्तिष्क के आयतन, हाथ-पैरों के आकार, रीढ़ की हड्डी एवं स्वर-रज्जु (वोकल कॉड) की लम्बाई में सुधार करते हुए और विकास की विभिन्न अवस्थाओं से गुजरते हुए, आदि-मानवों में बदल गए। विकास की विभिन्न अवस्थाओं से गुजरते हुए इन्हीं आदि मानवों ने पाषाण सभ्यताओं को जन्म दिया। ये पाषाण सभ्यताएं भी अनेक चरणों से होकर गुजरीं।

पाषाण-कालीन मानव संस्कृति का विकास

आस्ट्रेलोपिथेकस

धरती पर मानव का आगमन हिमयुग अथवा अभिनूतन युग (प्लीस्टोसीन) में हुआ जो एक भूवैज्ञानिक युग है। कहा नहीं जा सकता कि अभिनूतन युग का आरम्भ ठीक किस समय हुआ। पूर्वी अफ्रीका के क्षेत्रों में पत्थर के औजारों के साथ लगभग 35 लाख वर्ष पुराने मानव अवशेष मिले हैं। इस युग के मानव को आस्ट्रेलोपिथेकस कहते हैं। इस आदिम मानव के मस्तिष्क का आकार 400 मिलीलीटर था। यह दो पैरों पर खड़ा होकर चलता था किंतु यह सीधा तन कर खड़ा नहीं हो सकता था और शब्दों का उच्चारण करने में असमर्थ था, इसलिए इसे आदमी एवं बंदर के बीच की प्रजाति कहा जाता है।

यह पहला प्राणी था जिसने धरती पर पत्थर का उपयोग हथियार के रूप में किया। उसके द्वारा उपयोग में लाये गए पत्थरों की पहचान करना संभव नहीं है। क्योंकि उसने प्रकृति में मिलने वाले पत्थर को ज्यों का त्यों उपयोग किया था, उसके आकार या रूप में कोई परिवर्तन नहीं किया था।

होमो इरेक्टस

होमो इरैक्टस का अर्थ होता है- ‘सीधे खड़े होने में दक्ष।’ इस मानव के 10 लाख वर्ष पुराने जीवाश्म इण्डोनेशिया के ‘जावा’ द्वीप से प्राप्त किए गए हैं। होमो इरैक्टस के मस्तिष्क का आयतन 1,000 मिलीलीटर था। इस आकार के मस्तिष्क वाला प्राणी बोलने में सक्षम होता है।

इनके जीवाश्मों के पास बहुत बड़ी संख्या में दुधारी, अश्रु बूंद आकृति की हाथ की कुल्हाड़ियां और तेज धारवाले काटने के औजार तथा कच्चे कोयले के अवशेष मिले हैं। अनुमान है कि यह प्राणी कच्चा मांस खाने के स्थान पर पका हुआ मांस खाता था। उसने पशु-पालन सीख लिया था तथा वह अपने पशुओं के लिए नए चारागाहों की खोज में अधिक दूरी तक यात्राएं करता था।

यह मानव लगभग 10 लाख साल पहले अफ्रीका से बाहर निकला। इसके जीवाश्म चीन, दक्षिण-पूर्व एशिया तथा भारत में नर्मदा नदी की घाटी में भी मिले हैं। वह यूरोप तथा उत्तरी धु्रव में हिम युग होने के कारण उन क्षेत्रों तक नहीं गया। यूरोप में उसने काफी बाद में प्रवेश किया। लगभग 7 लाख साल पहले तक वह 20 या 30 प्रकार के उपकरण बनाता था जो नोकदार, धारदार तथा घुमावदार थे। होमो इरैक्टस प्रजाति से दो उप-पजातियों ने जन्म लिया- (1.) निएण्डरथल और (2.) होमो सेपियन।

निएण्डरथल

आज से लगभग ढाई लाख साल पहले ‘निएण्डरथल’ नामक मानव अस्तित्त्व में आया जो आज से 30 हजार साल पहले तक धरती पर उपस्थित था। ये लम्बी-लम्बी भौंह वाले, ऐसे मंद-बुद्धि पशु थे जिनकी चेष्टाएं पशुओं के जैसी अधिक और मानवों जैसी कम थीं। अर्थात् ये भारी भरकम शरीर वाले ऐसे उपमानव थे जिनमें बुद्धि एवं समझ कम थी। चेहरे-मोहरे से नीएण्डरतल आज के आदमी से अधिक अलग नहीं थे फिर भी वे हमसे काफी तगड़े थे।

उनका मस्तिष्क भी आज के आदमी की तुलना में काफी बड़ा था किंतु उसमें जटिलता कम थी, सलवटें भी कम थीं और उसका मस्तिष्क उसके शरीर के अनुपात में काफी कम था। इस कारण निएण्डरतल अपने बड़े मस्तिष्क का लाभ नहीं उठा पाया। वस्तुतः निएण्डरतल आज की होमोसपियन जाति का ही सदस्य था। इसने भी पत्थरों के औजारों का उपयोग किया। आज से 30 हजार साल पहले यह उप-मानव धरती से पूरी तरह समाप्त हो गया। 

होमो सेपियन

आज से 5 लाख साल पहले ‘होमो इरेक्टस’ काफी-कुछ हमारी तरह दिखाई देने लगा। इसे ‘होमो सेपियन’ अर्थात् ‘हमारी जाति के’ नाम दिया गया। इस मानव के मस्तिष्क का औसत आयतन लगभग 1300 मिलीलीटर था। भारत में मानव का प्रथम निवास, जैसा कि पत्थर के औजारों से ज्ञात होता है, इसी समय आरम्भ हुआ। इस युग में धरती के अत्यंत विस्तृत भाग को हिम-परतों ने ढक लिया था।

होमो सेपियन सेपियन

आज से लगभग 1 लाख 20 हजार साल पहले आधुनिक मानव अस्तित्त्व में आ चुके थे। ये होमो सेपियन जाति का परिष्कृत रूप थे। इन्हें ‘होमो सेपियन सेपियन’ कहा जाता है।

क्रो-मैगनन मैन

आज से लगभग 40 हजार वर्ष पहले ‘होमो सेपियन सेपियन’ जाति के कुछ मनुष्य यूरोप में जा बसे। वे बौद्धिक रूप में अपने समकालीन नीएण्डरतलों से अधिक श्रेष्ठ थे। उनमें नए काम करने की सोच थी। वे अधिक अच्छे हथियार बना सकते थे जिनके फलक अधिक बारीक थे।

वे शरीर को ढकना सीख गए थे। उनके आश्रय स्थल अच्छे थे और उनकी अंगीठियां खाना पकाने में अधिक उपयोगी थीं। वे बोलने की शक्ति रखते थे। इन्हें क्रो-मैगनन मैन कहा जाता है। यह मानव लगभग 10 हजार वर्षों तक नीएण्डरथलों के साथ रहा जब तक कि नीएण्डरथल समाप्त नहीं हो गए। क्रो-मैगनन का शरीर निएण्डरथल के शरीर से बड़ा था। इसके मस्तिष्क का औसत आयतन लगभग 1600 मिलीलीटर था।

आज से 30 हजार साल पहले जब नीएण्डरथल समाप्त हो गए तब पूरी धरती पर केवल क्रो-मैगनन मानव जाति का ही बोलबाला हो गया जो आज तक चल रहा है। वस्तुतः क्रो-मैगनन मानव ही प्रथम वास्तविक मानव है जो आज से लगभग 40 हजार साल पहले अस्तित्त्व में आया। इस समय धरती पर उत्तरवर्ती हिमयुग आरम्भ हो रहा था तथा लगभग पूरा यूरोप हिम की चपेट में था।

गर्म युग

आज से 12 हजार वर्ष पहले धरती पर ‘होलोसीन पीरियड’ आरंभ हुआ जो आज तक चल रहा है। यह गर्म युग है तथा वर्तमान हिमयुग के बीच में स्थित ‘अंतर्हिम काल’ है। इस गर्म युग में ही आदमी ने तेजी से अपना मानसिक विकास किया और उसने कृषि, पशु-पालन तथा समाज को व्यवस्थित किया। आज तक धरती पर वही गर्म युग चल रहा है और मानव निरंतर प्रगति करता हुआ आगे बढ़ रहा है।

आज से लगभग 10 हजार साल पहले आदमी ने कृषि और पशु-पालन आरंभ किया। यह इस गर्म युग की सबसे बड़ी देन है। पश्चिम एशिया से मिले प्रमाणों के अनुसार आज से लगभग 8000 साल पहले अर्थात् 6000 ई.पू. में आदमी ने हाथों से मिट्टी के बर्तन बनाना और उन्हें आग में पकाना आरंभ कर दिया था।

भारत की आदिम जातियाँ

भारत में छः नृवंश जातियों के कंकाल एवं खोपड़ियाँ पाई गई हैं। इन्हें भारत की आदिम जातियाँ माना जाता है-

(1.) नीग्रेटो: यह भारत की प्राचीनतम जाति थी जो अफ्रीका से भारत में आई थी। यह नितांत असभ्य एवं बर्बर जाति थी। ये लोग जंगली पशुओं का मांस, मछली, कंद-मूल एवं फल खाकर पेट भरते थे और कृषि-कर्म एवं पशुपालन से अपरिचित थे। यद्यपि अब यह जाति भारत की मुख्य भूमि से विलुप्त हो चुकी है तथापि अण्डमान द्वीपों में इस जाति के कुछ लोग निवास करते हैं। असम की नागा जातियों तथा त्रावणकोर-कोचीन आदि कुछ क्षेत्रों की आदिम जातियों में भी इस जाति की कुछ विशेषताएं दृष्टिगत होती हैं।

(2.) प्रोटो ऑस्ट्रेलॉयड: ये संभवतः फिलीस्तीन से भारत आए थे। भारत की कोल और मुण्डा जातियों में प्रोटो ऑस्ट्रेलॉयड जाति के गुण पाए जाते हैं। जब आर्य भारत में आए तब यह जाति पंजाब एवं उसके आसपास रहती थी। आर्यों ने इन्हें ‘अनास’, ‘कृष्णवर्ण’ और ‘निषाद’ कहकर पुकारा। यह एक विकसित जाति थी। उन्हें कृषि, पशुपालन एवं वस्त्र निर्माण का ज्ञान था।

माना जाता है कि अण्डे से सृष्टि की कल्पना इन्हीं प्रोटो ऑस्ट्रेलॉयड लोगों की देन है। ये लोग पुनर्जन्म के सिद्धांत में विश्वास करते थे। ‘अमंगल निवारण’ के लिए ‘न्यौछावर करने’ की प्रथा भी इन्हीं की दी हुई है। हिन्दू-धर्म के पशु-देवता-  नाग, मकर, गणेश आदि भी इन्हीं की देन है। यह जाति आर्यों के आगमन के बाद उन्हीं में घुल-मिलकर एकाकार हो गई।

(3.) मंगोलायड: इस प्रजाति का निवास केवल एशिया महाद्वीप में पाया जाता है। इससे सम्बन्धित लोगो की त्वचा का रंग पीला, शरीर पर बालों की कमी और माथा चौड़ा होता है। इस प्रजाति की सबसे प्रमुख विशेषता इसकी अधखुली आंखें हैं। कतिपय प्रादेशिक विभिन्नताओं के साथ यह जाति सिक्किम, आसाम और भारत-बर्मा की सीमा पर निवास करती है।

(4.) भूमध्यसागरीय द्रविड़: दुनिया भर में इस जाति की कई शाखाएं हैं। भारत में इस जाति को द्रविड़ कहा जाता है। इनका सिर बड़ा, कद नाटा, नाक छोटी और रंग काला होता है। आर्यों के भारत आगमन के समय द्रविड़ जाति ईरान से लेकर अफगानिस्तान तथा बलोचिस्तान से लेकर पंजाब, सिंध, मालवा एवं महाराष्ट्र तक विस्तृत क्षेत्र में रहती थी।

आर्यों के भारत में आगमन से पूर्व यह जाति नीग्रेटो एवं प्रोटोऑस्ट्रेलॉयड जातियों के साथ मिलकर रह रही थी। पाकिस्तान के बलोचिस्तान प्रांत में आज भी ब्राहुई भाषा का प्रयोग होता है, यह भाषा भूमध्यसागरीय द्रविड़ों की ही देन है। दक्षिण भारत की अनेक भाषाओं की जननी द्रविड़ भाषा माना जाती है।

ऋग्वेद में प्रयुक्त ‘दस्यु’ और ‘दास’ शब्दों का प्रयोग द्रविड़ों के लिए किया गया है। ईरानी भाषा में भी दस्यु शब्द मिलता है। कैस्पियन सागर के दक्षिण-पूर्व में ‘दहइ’ जाति रहती थी। माना जाता है कि वही दहई जाति भारत में ‘द्रविड़’ कहलाई। भारत की संस्कृति पर पर द्रविड़ जाति का विशेष प्रभाव पड़ा जिसे आज भी देखा जा सकता है। इस जाति की सभ्यता एवं संस्कृति का अध्ययन हम ‘सैन्धव सभ्यता, धर्म एवं समाज’ नामक अध्याय में करेंगे।

(5.) पश्चिमी ब्रेचीसेफल्स: इस जाति के लोग बहुत छोटे समुदाय में भारत में रहते होंगे। भारत की सभ्यता एवं संस्कृति पर इन लोगों का विशेष प्रभाव नहीं पड़ा।

(6.) नॉर्डिक: यह भी एक छोटा आदिम समुदाय था जिसका भारतीय संस्कृति पर कोई प्रभाव दिखाई नहीं दिया है।

पाषाण कालीन सभ्यताएं एवं संस्कृतियाँ

पाषाण-काल मानव सभ्यता की उस अवस्था को कहते हैं जब मनुष्य अपने दिन प्रतिदिन के कामों में पत्थर से बने औजारों एवं हथियारों का प्रयोग करता था तथा धातु का प्रयोग करना नहीं जानता था। मनुष्य ने ज  प्रथम बार पृथ्वी पर आखें खोलीं तो पत्थर को अपना हथियार बनाया। उस काल का मनुष्य, नितांत अविकसित अवस्था में था और जंगली जीवन व्यतीत करता था। जैसे-जैसे उसके मस्तिष्क का विकास होता गया, वह पत्थरों के हथियारों तथा औजारों को विकसित करता चला गया। इसी के साथ वह सभ्य जीवन की ओर बढ़ा। मानव की इस अवस्था के बारे में इतिहासकार डॉ. इश्वरी प्रसाद ने लिखा है- ‘मनुष्य औजार प्रयुक्त करने वाला पशु है।’

निःसंदेह संस्कृति की समस्त उन्नति, जीवन को सुखी एवं आरामदायक बनाने के लिए प्रकृति के साथ चल रहे युद्ध में, औजारों तथा उपकरणों के बढ़ते हुए उपयोग के कारण हुई है। मनुष्य का भौतिक इतिहास, मनुष्य के औजार विहीन अवस्था से निकलकर वर्तमान में पूर्ण मशीनी अवस्था में पहुँचने तक का लेखा-जोखा है। 

अध्ययन की दृष्टि से पाषाण युग को तीन भागों में विभक्त किया जा सकता है-

(1.) पूर्व-पाषाण काल (Palaeolithic Period)

(2.) मध्य-पाषाण काल (Mesolithic Period)

(3.) नव-पाषाण काल (Neolithic Period)

संस्कृति के ये तीनों काल एक के बाद एक करके अस्तित्त्व में आए किंतु ऐसे स्थल बहुत कम मिले हैं जहाँ तीनों अवस्थाओं के अवशेष देखने को मिलते हैं। विंध्य के उत्तरी भागों तथा बेलन घाटी में पूर्व-पाषाण-काल, मध्य-पाषाण-काल और नव-पाषाण-काल की तीनों अवस्थाएं क्रमानुसार देखने को मिलती हैं।

पूर्व-पाषाण कालीन सभ्यताएं (पेलियोलीथिक पीरियड)

मानव-सभ्यता के प्रारम्भिक काल को पूर्व-पाषाण-काल के नाम से पुकारा गया है। इसे पुरा पाषाण काल तथा उच्च पुरापाषाण युग भी कहते हैं। मानव की ‘होमो सेपियन’ प्रजाति इस संस्कृति की निर्माता थी।

काल निर्धारण

भारत में इस काल का आरम्भ आज से लगभग पाँच लाख वर्ष पहले हुआ। भारत में मानव आज से लगभग दस हजार साल पहले तक संस्कृति की इसी अवस्था में रहा। आज से लगभग दस हजार वर्ष पहले अर्थात् ई.पू. 8000 में, पूर्व-पाषाण-कालीन संस्कृति का अन्त हुआ।

पूर्व-पाषाण-कालीन स्थल

पूर्व-पाषाण-कालीन स्थल कश्मीर, पंजाब की सोहन नदी घाटी (अब पाकिस्तान), मध्यभारत, पूर्वी भारत तथा दक्षिणी भारत में पाए गए हैं। इस संस्कृति के औजार छोटा नागपुर के पठार में भी मिले हैं। ये ई.पू. 1 लाख तक पुराने हो सकते हैं। बिहार के सिंहभूमि जिले में लगभग 40 स्थानों पर पूर्व पाषाण कालीन स्थल मिले हैं। बंगाल के मिदनापुर, पुरुलिया, बांकुरा, वीरभूम, उड़ीसा के मयूरभंज, केऊँझर, सुंदरगढ़ तथा असम के कुछ स्थानों से भी इस काल के पाषाण-औजार प्राप्त हुए हैं।

आन्ध्र प्रदेश के कुर्नूल नगर से लगभग 55 किलोमीटर दूर ऐसे औजार मिले हैं जिनका समय ई.पू.25 हजार से ई.पू.10 हजार के बीच का है। इनके साथ हड्डी के उपकरण और जानवरों के अवशेष भी मिले हैं। आंध्रप्रदेश के चित्तूर जिले से, कर्नाटक के शिमोगा जिले तथा मालप्रभा नदी के बेसिन से भी इस युग के औजार मिले हैं। नागार्जुन कोंडा से भी पत्थर के फाल एवं अन्य उपकरण मिले हैं।

लिखित उल्लेख

पुराणों में पूर्व पाषाण कालीन मानवों के उल्लेख मिलते हैं जो कंद-मूल खाकर गुजारा करते थे। ऐसी पुरानी पद्धति से जीविका चलाने वाले लोग पहाड़ी क्षेत्रों में और गुफाओं में आधुनिक काल तक मौजूद रहे हैं।

शैल चित्र

भारत के अनेक स्थानों पर उपलब्ध पहाड़ियों में शैलचित्रों की प्राप्ति हेाती है जिनसे आदिमकालीन संस्कृति का ज्ञान होता है। विंध्याचल की पहाड़ियों में भीमबेटका नामक स्थान पर  200 से अधिक गुफाएं पाई गई हैं जिनमें पूर्व-पाषाण कालीन मानव द्वारा बनाए गए के शैल चित्र प्राप्त हुए हैं। इन चित्रों की संख्या कई हजार है। इनका काल एक लाख वर्ष पूर्व माना जाता है। इन गुफाओं में वे औजार भी मिले हैं जिनसे ये गुफाएं बनाई गई होंगी तथा इन चित्रों को उकेरा गया होगा। इन गुफाओं से 5,000 से भी अधिक वस्तुएं मिली हैं जिनमें से लगभग 1,500 औजार हैं।

जीवाश्म

कुर्नूल जिले की गुफाओं से बारहसिंघे, हिरन, लंगूर तथा गेंडे के जीवाश्म भी मिले हैं। ये जीवाश्म पूर्व-पाषाण युग के हैं। इन जीवाश्मों के क्षेत्र से पूर्व-पाषाण कालीन औजार मिले हैं।

पूर्व-पाषाण-कालीन संस्कृति की विशेषताएं

इस काल का मानव पूर्णतः आखेटक अवस्था में था। वह पशु-पालन, कृषि, संग्रहण आदि मानवीय कार्यकलापों से अपरिचित था। इस काल के मानव की संस्कृति की विशेषताएं इस प्रकार से हैं-

निवासी: इतिहासकारों, पुरातत्त्ववेत्ताओं एवं समाजशास्त्रियों की धारणा है कि पूर्व-पाषाण-कालीन संस्कृति के लोग ‘हब्शी’ जाति के थे। इन लोगों का रंग काला और कद छोटा था। इनके बाल ऊनी थे और नाक चिपटी थी। ऐसे मानव आज भी अण्डमान एवं निकोबार द्वीपों में पाए जाते हैं।

औजार: पूर्व-पाषाण-कालीन संस्कृति का मानव, पत्थर के अनगढ़ और अपरिष्कृत औजार बनाता था। वह कठोर चट्टानों से पत्थर प्राप्त करता था तथा उनसे हथौड़े एवं रुखानी आदि बनाता था जिनसे वह ठोकता, पीटता तथा छेद करता था। ये औजार अनगढ़ एवं भद्दे आकार के होते थे। पत्थर के औजारों से वह पशुओं का शिकार करता था। इन औजारों में लकड़ी तथा हड्डियों के हत्थे लगे रहते थे, लकड़ी तथा हड्डियों के भी औजार होंगे परन्तु अब वे नष्ट हो गए हैं।

आवास: पूर्व-पाषाण-कालीन संस्कृति का मानव किसी एक स्थान पर स्थिर नहीं रहता था वरन् जहाँ कहीं उसे शिकार, कन्द, मूल, फल आदि पाने की आशा होती थी वहीं पर चला जाता था। प्राकृतिक विषमताओं एवं जंगली जानवरों से बचने के लिए वह नदियों के किनारे स्थित जंगलों में ऊँचे वृक्षों एवं पर्वतीय गुफाओं का आश्रय लेता था। समझ विकसित होने पर इस युग के मानव ने वृक्षों की डालियों तथा पत्तियों की झोपड़ियां बनानी आरम्भ कीं।

आहार: पूर्व-पाषाण-कालीन संस्कृति के लोग अपनी जीविका के लिए पूर्ण रूप से प्रकृति पर निर्भर थे। भोजन प्राप्त करने के लिए जंगली पशुओं का शिकार करते थे और नदियों से मछलियाँ पकड़ते थे। वनों में मिलने वाले कन्द-मूल एवं फल भी उनके मुख्य आहार थे।

कृषि: पूर्व-पाषाण-कालीन संस्कृति का मानव कृषि करना नहीं जानता था।

पशु-पालन: उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर जिले की बेलन घाटी में मिले घरेलू पशुओं के अवशेषों से अनुमान होता है कि ई.पू.25 हजार के आसपास बकरी, भेड़ और गाय-भैंस आदि पाले जाते थे किंतु सामान्यतः इस युग का आदमी पशुपालन नहीं करता था।

वस्त्र: पूर्व-पाषाण-कालीन संस्कृति के मानव पूर्णतः नंगे रहते थे। प्राकृतिक विषमताओं से बचने के लिए उन्होंने वृक्षों की पत्तियों, छाल तथा पशुचर्म से अपने शरीर को ढंकना प्रारम्भ किया होगा।

सामाजिक संगठन: पूर्व-पाषाण-कालीन संस्कृति के मानव टोलियां बनाकर रहते थे। प्रत्येक टोली का एक प्रधान होता होगा जिसके नेतृत्व में ये टोलियाँ आहार तथा आखेट की खोज में एक स्थान से दूसरे स्थान को जाया करती होंगी।

शव-विसर्जन: अनुमान है कि पूर्व-पाषाण-कालीन संस्कृति के आरंभिक काल में शवों को जंगल में वैसे ही छोड़़ दिया जाता था जिन्हें पशु-पक्षी खा जाते थे। बाद में शवों के प्रति दायित्व की भावना विकसित होने पर वे शवों को लाल रंग से रंगकर धरती में गाड़ देते थे।

Related Articles

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Stay Connected

21,585FansLike
2,651FollowersFollow
0SubscribersSubscribe
- Advertisement -spot_img

Latest Articles

// disable viewing page source