Friday, December 27, 2024
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अध्याय – 14 मौर्य-कालीन भारत

मौर्य-कालीन समाज एवं संस्कृति को जानने के तीन प्रमुख साधन हैं- (1) मेगस्थनीज का भारतीय विवरण, (2) कौटिल्य का अर्थशास्त्र तथा (3) अशोक के अभिलेख।

मौर्य कालीन समाज

वर्ण-व्यवस्था: मौर्य-कालीन समाज में वर्ण-व्यवस्था तथा वर्णाश्रम-धर्म दोनों ही सुदृढ़़ रूप से स्थापित थे। कौटिल्य के अर्थशास्त्र से हमें चार जातियों- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र का पता लगता है। ब्राह्मण सर्वाधिक आदरणीय थे। अशोक के अभिलेखों से ज्ञात होता है कि वह ब्राह्मणों तथा श्रमणों को दान देता था और उनका बड़ा सम्मान करता था। भारतीय वर्ण व्यवस्था की समझ न होने से मेगस्थनीज ने सात जातियों- दार्शनिक, किसान, ग्वाले, कारीगर, सैनिक, निरीक्षक तथा अमात्य का वर्णन किया है। मेगस्थनीज के विवरण से ज्ञात होता है कि अन्तर्जातीय विवाह तथा खान-पान का निषेध था, परन्तु अर्थशास्त्र से ज्ञात होता है कि मौर्य कालीन समाज में ये दोनों ही प्रथाएं प्रचलित थीं। मौर्य-काल में शूद्रों की दशा अच्छी नहीं थी, वे नीची दृष्टि से देखे जाते थे।

वैवाहिक परम्पराएँ: विवाह के समय कन्या की न्यूनतम आयु बारह वर्ष और वर की सोलह वर्ष होनी आवश्यक थी। कौटिल्य ने अपने अर्थशास्त्र में आठ प्रकार के विवाहों का उल्लेख किया है- ब्राह्म, शौल्क, प्रजापत्य, दैव, गान्धर्व, आसुर, राक्षस तथा पैशाच। मेगस्थनीज ने भारतीयों के लिये विवाह के तीन लक्ष्य बताये हैं- जीवन-संगिनी प्राप्त करना, भोग करना तथा कई सन्तानें प्राप्त करना। इस युग में बहु-विवाह की प्रथा प्रचलित थी। अशोक की कई रानियां थीं। स्त्रियों को भी, पति के मर जाने अथवा घर छोड़कर चले जाने और बहुत दिनों तक वापस नहीं आने पर पुनर्विवाह की आज्ञा थी। पति के दुराचारी, हत्यारा, नपुंसक आदि होने पर विवाह-विच्छेद की भी आज्ञा थी। कौटिल्य ने नियोग की भी आज्ञा दी है अर्थात् संतानहीन स्त्री किसी अन्य व्यक्ति के साथ संसर्ग कर संतान उत्पन्न कर सकती थी।

स्त्रियों की दशा: मौर्यकाल में स्त्रियों की दशा बहुत संतोषजनक नहीं थी। वे संतान उत्पन्न करने का साधन-मात्र समझी जाती थीं। स्त्रियों का कार्यक्षेत्र चूल्हा-चक्की समझा जाता था। वे प्रायः घर के भीतर ही रहती थीं। डॉ. भण्डारकर के विचार में इस युग में पर्दे की प्रथा थी। कौटिल्य के मतानुसार स्त्रियों को उच्च-शिक्षा देना उचित ही है। मेगस्थनीज के कथनानुसार स्त्रियों को दार्शनिक ज्ञान देना इस युग में उचित नहीं समझा जाता था। स्त्रियों में अन्धविश्वास व्याप्त था और वे विभिन्न प्रकार के मंगल-अनुष्ठान किया करती थीं। स्त्रियों को सम्पत्ति सम्बन्धी कुछ अधिकार प्राप्त थे। स्त्री अपने पति के अत्याचारों के विरुद्ध न्यायालय में जा सकती थी। स्त्री-हत्या महापाप समझा जाता था। कुछ ऐसे प्रमाण भी मिलते हैं जिनसे ज्ञात होता है कि स्त्रियों का एक ऐसा भी वर्ग था जो अच्छी दशा में था। राज-महिलाएं दान दिया करतीं थीं। स्त्रियां सैनिक तथा गुप्तचर का कार्य करती थीं। चन्द्रगुप्त मौर्य की संरक्षिकाएं स्त्रियां होती थीं। वे धर्मप्रचार का कार्य भी करती थीं। अशोक ने अपनी पुत्री संघमित्रा को धर्मप्रचार के लिए श्रीलंका भेजा था। अनेक स्त्रियां नृत्य, संगीत तथा ललित कलाओं में निष्णात होती थीं। इस काल में वेश्यावृत्ति का भी प्रचलन था।

दास प्रथा: मौर्य-काल में दास प्रथा का भी प्रचलन था। दास अपने स्वामी की विभिन्न प्रकार से सेवा करते थे। दास प्रायः अनार्य हुआ करते थे जिनका पशुओं की भांति क्रय-विक्रय होता था। आर्थिक संकट के कारण कभी-कभी आर्य लोग भी दास बन जाते थे। दासों के साथ अच्छा व्यवहार होता था। उन्हें गाली देना अथवा मारना-पीटना उचित नहीं समझा जाता था। दासों को अपनी माता की सम्पत्ति में पूरा अधिकार रहता था। स्वामी को मूल्य चुका देने पर दासों की दासता समाप्त भी हो जाती थी और वे फिर पूर्ण रूप से स्वतंत्र हो जाते थे।

मांस भक्षण: मौर्य-काल में मांस भक्षण का प्रचलन था। सम्राट अशोक के भोजनालय में अनेक प्रकार के पशु-पक्षियों का मांस बनता था। बाजार में कच्चा तथा पकाया हुआ दोनों प्रकार का मांस बिकता था। अशोक के बौद्ध धर्म ग्रहण कर लेने के उपरान्त मांस-भक्षण बहुत कम हो गया था। इस काल में मदिरापान का भी प्रचलन था। अर्थशास्त्र में अनेक प्रकार की मदिराओं का वर्णन है। मदिरापान केवल मदिरालय में ही होता था। बाहर केवल वही लोग मदिरा ले जा सकते थे जो बड़े ही विश्वसनीय तथा चरित्रवान होते थे। मदिरापान समाज में बुरा समझा जाता था इसलिये इसका प्रयोग सीमित था। मदिरापान प्रायः अनुष्ठानों के अवसर पर होता था।

आमोद-प्रमोद: अशोक के अभिलेखों से पता लगता है कि मौर्य कालीन समाज में ‘विहार-यात्राएं’ आमोद-प्रमोद की प्रधान साधन थीं। इन यात्राओं में पशु-पक्षियों का शिकार किया जाता था। ‘समाज’ भी आमोद-प्रमोद के प्रधान साधन थे। इन समाजों में मनुष्य तथा पशुओं के द्वन्द्व युद्ध होते थे। अशोक ने अहिंसा-धर्म स्वीकार करने के उपरान्त विहार-यात्राओं तथा समाज के आयोजन बन्द करवा दिये थे। रथ-दौड़, खेल-कूद तथा नाच गाने, आमोद-प्रमोद के अन्य साधन थे।

नैतिक आचरण: मेगस्थनीज के अनुसार मौर्य-काल में भारतीयों का नैतिक स्तर बड़ा ऊँचा था। लोगों का जीवन सरल था और उनमें फिजूल-खर्ची नहीं थी। इससे उनका जीवन सुखी था। चोरी का नामोनिशान नहीं था। लोग प्रायः अपने घरों को अरक्षित छोड़कर चले जाते थे। लोग सामाजिक नियमों का पालन करते थे जिससे न्यायालय की शरण में जाने की बहुत कम आवश्यकता पड़ती थी। समाज में योग्यता का बड़ा आदर होता था। वृद्ध तभी आदरणीय समझे जाते थे जब उनमें ज्ञान तथा योग्यता होती थी। सत्य तथा गुण का बड़ा आदर होता था। अतिथि-सत्कार पर बल दिया जाता था। अशोक के शासन-काल में समाज का नैतिक स्तर बहुत ऊँचा उठ गया था क्योंकि अशोक ने गुरुजनों का आदर करना, माता-पिता की सेवा करना, मित्रों, परिचितों तथा सम्बन्धियों के साथ उदारता बरतना तथा ब्राह्मणों एवं श्रमणों के दर्शन करना तथा दान देना आदि उपदेशों पर बल दिया था।

मौर्य कालीन धार्मिक दशा

धर्म के प्रति शासकों का दृष्टिकोण: मौर्य-कालीन शासकों का धार्मिक दृष्टिकोण बड़ा ही उदार तथा व्यापक था। यद्यपि उनमें से कुछ ने जैन-धर्म तथा कुछ शासकों ने बौद्ध-धर्म को अपनाया तथा राजकीय आश्रय प्रदान किया परन्तु अन्य धर्मों के साथ उन्होंने किसी प्रकार का अत्याचार नहीं किया। समस्त धर्म उनकी सहानुभूति एवं सम्मान के पात्र बने रहे, उनसे सहायता पाते रहे और अपनी उन्नति में लगे रहे।

ब्राह्मण-धर्म: कौटिल्य तथा मेगस्थनीज दोनों के विवरणों से ज्ञात होता है कि उस काल में नये-नये धर्मों का प्रचार हो जाने पर भी ब्राह्मण-धर्म सर्वाधिक प्रबल था। वैदिक कर्मकाण्डों अर्थात् यज्ञ तथा बलि का बड़ा जोर था। यज्ञ के अवसर पर मद्यपान किया जाता था। स्त्रियाँ अनेक प्रकार के मंगल कार्य करती थीं। ब्राह्मणों का बड़ा आदर सत्कार होता था। मेगस्थनीज के विवरण से ज्ञात होता है कि ब्राह्मण, आत्मा तथा परमात्मा के चिन्तन में संलग्न रहते थे। ब्राह्मण-धर्म में अनेक देवी-देवताओं की पूजा होती थी। कौटिल्य ने वर्णाश्रम-धर्म के पालन पर जोर दिया है। स्वर्ग की प्राप्ति अब भी जीवन का अन्तिम लक्ष्य समझा जाता था।

भागवत धर्म: मौर्य कालीन समाज में, ब्राह्मण-धर्म से निःसृत शैव सम्प्रदाय तथा भागवत धर्म भी प्रचलन में थे। मेगस्थनीज ने शिव तथा कृष्ण की पूजा का उल्लेख किया है। वासुदेव की पूजा का उल्लेख अनेक स्थलों पर मिलता है। स्पष्ट है कि उस काल में भक्ति-प्रधान भागवत-धर्म का प्रचलन था।

आजीवक धर्म: अशोक के शिलालेखों में आजीवकों का उल्लेख मिलता है। जैन-ग्रन्थों से ज्ञात होता है कि आजीवक-सम्प्रदाय ब्राह्मण सम्प्रदाय से भिन्न था किंतु डॉ. भण्डारकर के विचार में आजीवक सम्प्रदाय ब्राह्मणों से भिन्न कोई अन्य संप्रदाय नहीं था। आजीवक लोग नंगे संन्यासियों की भाँति जीवन व्यतीत करते थे। उनका विश्वास था कि समस्त बातें तथा घटनाएँ एक नियति अर्थात् नियम के अनुसार घटती हैं और मनुष्य उनमें कोई परिवर्तन नही कर सकता। अनुश्रुतियों से ज्ञात होता है कि बिन्दुसार ने आजीवकों को अपना संरक्षण प्रदान किया था। अशोक ने भी आजीवक संन्यासियों को बरार की गुफाएं दान में दी थीं। मौर्य सम्राट दशरथ भी आजीवकों का आश्रयदाता था।

जैन धर्म: मौर्य-काल में जैन धर्म भी उन्नत दशा में था। जैन-ग्रन्थों से ज्ञात होता है कि चन्द्रगुप्त मौर्य जैन-धर्म का अनुयायी तथा आश्रयदाता था। अशोक के पौत्र सम्प्रति ने भी जैन-धर्म को संरक्षण प्रदान किया और स्वयं उसका अनुयायी बन गया। अशोक के अभिलेखों में जैनियों को निर्ग्रन्थ कहा गया है।

बौद्ध धर्म: बौद्ध धर्म की इस काल में समस्त धर्मों से अधिक उन्नति हुई। चूंकि अशोक इस धर्म का अनुयायी हो गया था और उसने बौद्ध धर्म को राजधर्म बनाकर उसका तन, मन, धन से प्रचार किया इसलिये न केवल सम्पूर्ण भारत में वरन् विदेशों में भी इसका प्रचार हो गया। अशोक का धार्मिक दृष्टिकोण उदार तथा व्यापक था। वह कट्टरपन्थी बिल्कुल नहीं था। बौद्ध-धर्म के अतिरिक्त अन्य धर्म-वालों को भी वह दान देता था और उन्हें आदर की दृष्टि से देखता था। वह ब्राह्मणों तथा श्रमणों के दर्शन करता था और उन्हें दान देता था। वास्तव में अशोक का धर्म एक सार्वभौम धर्म था जिसमें समस्त धर्मों की अच्छी बातें विद्यमान थी।

मूर्ति पूजा: कौटिल्य ने अपने अर्थशास्त्र में मूर्तियों तथा मन्दिरों का उल्लेख किया है जिससे ज्ञात होता है कि इस काल में मूर्ति-पूजा का प्रचलन था। मूर्ति बनाने वाले लोग ‘देवता कारू’ कहलाते थे। महर्षि पंतजलि ने भी शिव, विशाख आदि की मूर्तियों का उल्लेख किया है। बौद्ध लोग बुद्ध तथा बोधिसत्वों की मूर्तियों की पूजा करते थे।

नदियों की पूजा: मौर्यकालीन समाज में नदियों को पवित्र माना जाता था। मेगस्थनीज ने गंगा को अत्यन्त पवित्र नदी बताया है। इस काल में तीर्थ-यात्रा का भी प्रचलन था। लोग पवित्र पर्वों के अवसरों पर तीर्थ-स्थानों में दर्शन तथा स्नान के लिए जाते थे। अशोक के समय से राज्य ने तीर्थों से तीर्थ कर लेना बन्द कर दिया था।

मौर्य कालीन आर्थिक दशा

कृषि

मौर्य-कालीन समाज में कृषि प्रधान व्यवसाय था। मेस्थनीज ने लिखा है कि दूसरी जाति कृषकों की है जो संख्या में सबसे अधिक है। किसानों को समाज के लिये अत्यंत महत्त्वपूर्ण समझा जाता था और उनकी सुरक्षा का पूरा ध्यान रखा जाता था। युद्ध के समय भी कृषि को किसी प्रकार की हानि नहीं पहुँचाई जाती थी। मेस्थनीज के अनुसार भूमि उर्वर थी तथा सिंचाई की व्यवस्था उत्तम थी। खेती परम्परागत विधि से की जाती थी। कृषक लोहे के उपकरण काम में लेते थे। वे विभिन्न प्रकार की मिट्टियों की प्रकृति तथा गुणों से परिचित थे।

प्रमुख फसलें: मेस्थनीज के अनुसार भारत में एक साल में दो बार वर्षा होती है- एक बार जाड़े में जबकि गेहूँ, बोया जाता है और दूसरी बार गर्मी में जबकि तिल, ज्वार आदि बोया जाता है। इसके साथ-साथ फल एवं मूल भी उत्पन्न होते हैं जो मनुष्यों को प्रचुर खाद्य सामग्री प्रदान करते हैं। मगध के कई क्षेत्रों में धान, गेहूँ तथा जौ की खेती होती थी। बौद्ध ग्रं्रथों में धान की भरपूर फसलों के कई उल्लेख मिलते हैं। पतंजलि ने भी धान का उल्लेख मगध में उगायी जाने वाली प्रमुख फसल के रूप में किया है। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में गेहूँ, जौ, चना, चावल, सहजन, तरबूज, खरबूज, आम, जामुन, अनार, अंगूर, फालसा, नींबू आदि फसलों एवं फलों का उल्लेख किया गया है। पुरातात्विक खुदाइयों में भी मौर्य काल में गेहूं तथा जौ की बड़े स्तर पर खेती होने के प्रमाण मिले हैं।

सिंचाई: मौर्य काल में राज्य की ओर से सिंचाई का प्रबन्ध किया जाता था और कुएं, तालाब, झील आदि खुदवाये जाते थे। इस सुविधा के बदले में राज्य किसानों से सिंचाई-कर लेता था। सौराष्ट्र से प्राप्त दूसरी शतब्दी ई.पू. के जूनागढ़ अभिलेख से प्रकट होता है कि चंद्रगुप्त मौर्य के प्रांतपति पुष्यगुप्त ने सुदर्शन झील का निर्माण करवाया तथा उससे सिंचाई के लिये नहरें निकालीं। मेगस्थनीज ने भी मौर्य साम्राज्य में प्रयुक्त सिंचाई पद्धतियों का उल्लेख किया है। उसने नहरों एवं खेतों को पानी के संभरण का निरीक्षण करने के लिये नियुक्त अधिकारियों का भी उल्लेख किया है। कौटिल्य ने सिंचाई के कई साधनों का उल्लेख किया है- 1. नदी, सर, तड़ाग् और कूप द्वारा सिंचाई, 2. ढोल या चरस द्वारा कुएँ से पानी निकालकर सिंचाई, 3. बैलों द्वारा खींचे जानेे वाले रहट या चरस द्वारा कुएँ से सिंचाई, 4. बांध बनाकर नहरों द्वारा सिंचाई, 5. वायु द्वारा संचालित चक्की द्वारा सिंचाई।

खाद: मौर्य काल में भूमि की उर्वरता को बनाये रखने के लिए खादों का प्रयोग किया जाता था। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में विभिन्न प्रकार की खादों का वर्णन मिलता है। अर्थशास्त्र में घी, शहद, चर्बी, मछलियों का चूर्ण, गोबर, राख, आदि का खाद के रूप में उपयोग होने का उल्लेख है। किसान विभिन्न प्रकार के अन्न, फल तथा तरकारियों की कृषि करते थे।

पशुपालन

भारत में पशुपालन का कार्य, मानव के आदिम अवस्था से बाहर निकलते ही आरंभ हो गया थ। मौर्य कालीन समाज में भी व्यापक स्तर पर पशुपालन होता था। मेगस्थनीज ने ग्वालों की जाति का उल्लेख किया है जिससे स्पष्ट है कि दूध के लिए पशुपालन किया जाता था। कौटिल्य के अर्थशास्त्र से ज्ञात होता है कि मौर्य शासन में अलग से पशु विभाग की व्यवस्था की गई थी। इस विभाग का कार्य बंजर भूमि में चारागाहों का विकास करना, रोगी पशुओं की चिकित्सा की व्यवस्था करना, पशुओं के साथ अमानुषिक व्यवहार रोकना, उनका पंजीयन करना होता था। अर्थशास्त्र में गोअध्यक्ष तथा अश्वाध्यक्ष के उल्लेख मिलते हैं। चूंकि कृषि तथा सिंचाई काफी उन्नत दशा में पहुंच चुकी थी इसलिये अनुमान लगाया जा सकता है कि कृषि के लिये खेत जोतने, भार ढोने एवं कुओं से सिंचाई का पानी निकालने के काम में पशुओं की सहायता ली जाती थी। उस काल में खेतों में विभिन्न प्रकार की खादों का उपयोग हो रहा था इसलिये पशुओं के गोबर एवं मींगनी भी काम में ली जाती रही होगी। मांसाहारी लोग बकरी तथा मुर्गा पालते थे। ऊन एवं मांस के लिये भेड़पालन होता था।

उद्योग-धन्धे

मौर्य-काल में विभिन्न प्रकार के उद्योग-धन्धे प्रचलन में थे। इनमें सूती एवं ऊनी वस्त्र निर्माण, धातु निर्माण तथा धातुओं से कृषि उपकरण, बरतन तथा हथियारों का निर्माण, मिट्टी के बर्तनों एवं मूर्तियों का निर्माण, कीमती धातुओं, लकड़ी का काम, चंदन की लकड़ी एवं हाथी दांत के आभूषणों का निर्माण आदि प्रमुख उद्योग धंधे थे। कुछ लोग मदिरा बनाने एवं बेचने का काम करते थे।

वस्त्र निर्माण: कपास की अच्छी खेती होती थी। इसलिये सूती वस्त्र का व्यवसाय बड़ी उन्नत दशा में था। सूती कपड़े के लिये काशी, वत्स, अपरान्त, बंग और मदुरा विशेष रूप से विख्यात थे। सूत कातने के लिये चरखों तथा कपड़ा बुनने के लिये करघों का उपयोग किया जाता था। मेगस्थनीज तथा कौटिल्य दोनों के द्वारा दिये गये विवरण के अनुसार देश में कपास की खेती प्रचुरता में होती थी इसलिये तंतुवाह (जुलाहे) काफी व्यस्त रहते थे। वस्त्र बनाने के लिए सन का भी प्रयोग किया जाता था। मगध तथा काशी सन के वस्त्रों के लिए प्रसिद्ध थे। वृक्षों के पत्तों तथा उनकी छाल के रेशों से भी वस्त्र बनाये जाते थे। अर्थशास्त्र से ज्ञात होता है कि मौर्य-काल में कई प्रकार के ऊनी वस्त्र बनते थे। मेगस्थनीज ने कई प्रकार के बहुमूल्य वस्त्रों का उल्लेख किया है। उसने मलमल के कामदार वस्त्रों की मुक्त-कंठ से प्रशंसा की है। उस काल में बंगाल उच्चकोटि के मलमल वस्त्रों के लिए प्रसिद्ध था।

धातु उद्योग: मौर्यकाल में विभिन्न प्रकार की धातुओं के निर्माण एवं उन पर आधारित उद्योग उन्नत दशा में थे। सोना, चांदी, ताम्बा और लोहा प्रचुर मात्रा में निकाला एवं गलाया जाता था। जस्ता एवं कुछ अन्य धातुएं भी काम में ली जाती थीं। राज्य की खानों के कार्य का अध्यक्ष आकराध्यक्ष कहलाता था। 

आभूषण निर्माण: पुरुष तथा स्त्री दोनों ही आभूषण पहनते थे। इस काल में हाथी-दाँत के सुन्दर आभूषण बनते थे। मेगस्थनीज से पता लगता है कि समृद्ध लोग बहुमूल्य वस्त्र धारण करते थे। उनके वस्त्रों पर सोने का काम किया जाता था। एरियन का कथन है कि भारत में धनी लोग अपने कानों में हाथीदांत के उच्च कोटि के आभूषण पहनते थे। समुद्रों से मणि, मुक्ता, रत्न, सीप आदि निकालने का काम राजकीय अधिकारियों की देखरेख में होता था। इन सबका प्रयोग आभूषण निर्माण में होता था।

सुरा उद्योग: इस काल में सुरा का निर्माण एवं व्यापार बड़े स्तर पर होता था। अर्थशास्त्र में छः प्रकार की सुराओं- मेदक, प्रसन्न, आसव, अरिष्ट, मैरेय और मधु का उल्लेख है। सुरा के निर्माण एवं प्रयोग पर सुराध्यक्ष का नियंत्रण रहता था।

लकड़ी तथा चमड़े का काम: वनों एवं पशुओं की प्रचुर उपलब्धता के कारण मौर्य काल में इमारती लकड़ी, चंदन की लकड़ी, पशुओं से प्राप्त ऊन और चमड़े पर आधारित उद्योग एवं व्यवसाय भी उन्नत दशा में थे।

व्यापार

मौर्य काल में आन्तरिक तथा विदेशी व्यापार उन्नत दशा में था। व्यापारिक सुरक्षा की पूर्ण व्यवस्था थी। मेगस्थनीज के विवरण से ज्ञात होता है कि विदेशियों की सुरक्षा करने तथा उन्हें हर प्रकार की सुविधा देने के लिए पाटलिपुत्र में पाँच सदस्यों की एक समिति काम करती थी। विभिन्न प्रकार के उद्योग-धन्धे करने वालों को भी सुरक्षा दी जाती थी। यदि कोई व्यक्ति श्रमिकों अथवा कारीगरों का अंग-भंग कर देता था तो उसे मृत्युदंड दिया जाता था। यदि कोई व्यापारी नाप-तौल में बेईमानी करता था अथवा मिलावट करता था तो उसे कठोर दंड दिया जाता था। नावों द्वारा नदियों के मार्ग से भी व्यापार होता था। देश के विभिन्न भाग विभिन्न प्रकार के व्यवसायों तथा व्यापार के लिए प्रसिद्ध थे। विदेशी व्यापार, स्थल तथा सामुद्रिक मार्गों से होता था। चीन तथा मिस्र आदि देशों के साथ भारत का व्यापारिक सम्बन्ध था। अशोक ने जिन देशों में बौद्ध-धर्म का प्रचार किया उनके साथ भारत का व्यापारिक सम्बन्ध स्थापित हो गया। विदेशों के साथ राजदूतों का आदान-प्रदान करके भी मौर्य सम्राटों ने व्यापार में बड़ी उन्नति की।

व्यापारिक मार्ग: मौर्य काल में देश में आन्तरिक व्यापार की सुविधा के लिए बड़े-बड़े राजमार्ग बनवाये गये थे। पाटलिपुत्र से पश्चिमोत्तर को जाने वाला मार्ग 1500 कोस लम्बा था। दूसरा महत्वपूर्ण मार्ग हैमवतपथ था जो हिमालय की ओर जाता था। दक्षिण भारत को भी अनेक मार्ग गये थे। कौटिल्य के अनुसार दक्षिणापथ में भी वह मार्ग सबसे अधिक महत्वपूर्ण है जो खानों से होकर जाता है जिस पर गमनागमन बहुत होता है और जिस पर परिश्रम कम पड़ता है। विभिन्न नगरों तथा प्रमुख मार्गों को एक दूसरे से जोड़ने के लिए कई छोटे-छोटे मार्ग बनवाये गये थे। राज्य की ओर से इन मार्गों की सुरक्षा का प्रबन्ध किया जाता था।

मुद्रा: व्यापार के लिए विभिन्न प्रकार की मुद्राओं का प्रयोग होता था। अर्थशास्त्र में मौर्य काल में प्रचलित अनेक मुद्राओं के नाम दिये गये हैं- सुवर्ण (सोने का), कार्षापण या पण या धरण (चांदी का), माषक (ताम्बे का), काकणी (ताम्बे का)। कौटिल्य ने उस काल की समस्त मुद्राओं को दो भागों में बांटा है- प्रथम कोटि में ‘कीष प्रवेष्य’ मुद्राएं आती थीं। ये लीगल टेण्डर के रूप में थीं। सम्पूर्ण राजकीय कार्य इन्हीं मुद्राओं में होता था। द्वितीय कोटि में व्यावहारिक मुद्राएं आती थीं। ये टोकन मनी के रूप में थीं। जनता का साधारण लेन-देन इन मुद्राओं में हो सकता था किंतु ये मुद्राएं राजकीय कोष में प्रवेश नहीं कर पाती थीं। मुद्र निर्माण राजकीय टकसालों में ही हो सकता था। परंतु यदि कोई व्यक्ति चाहे तो अपनी धातु ले जाकर राजकीय टकसाल से अपने लिये मुद्राएं बनवा सकता था। इस कार्य के लिये उसे एक निश्चित शुल्क देना पड़ता था।

मौर्य कालीन साहित्य तथा शिक्षा

भाषा: मौर्य-काल में दो प्रकार की भाषाओं का प्रचलन था। पहली भाषा संस्कृत थी तथा दूसरी पाली। संस्कृत विद्वानों की और पाली जन-साधारण की भाषा थी। संस्कृत साहित्यिक भाषा थी। इसमें ग्रन्थ लिखना गौरवपूर्ण समझा जाता था। बौद्ध-धर्म के प्रचार के साथ, पाली में भी ग्रन्थ रचना आरम्भ हो गयी। प्रारम्भिक बौद्ध-ग्रन्थ पाली भाषा में लिखे गये हैं। अशोक के अभिलेख पाली भाषा में खुदे हैं।

लिपि: मौर्य-काल में दो प्रकार की लिपियों का प्रयोग होता था- ब्राह्मी लिपि तथा खरोष्ठी लिपि। अशोक के अधिकांश अभिलेख ब्राह्मी लिपि में हैं। अशोक ने खरोष्ठी लिपि का प्रयोग पश्चिमोत्तर प्रदेशों के अभिलेखों में किया। सम्भवतः उस प्रदेश में इस लिपि का प्रयोग होता था। यह लिपि दाहिनी ओर से बाईं ओर को लिखी जाती थी। शेष भारत में ब्राह्मी लिपि का प्रयोग होता था। आज भी कुछ प्रान्तीय भाषाओं में ब्राह्मी लिपि का प्रयोग होता है।

साहित्य: मौर्य-काल में रचित संस्कृत का सबसे प्रसिद्ध एवं ऐतिहासिक ग्रन्थ कौटिल्य का ‘अर्थशास्त्र’ है। इसी काल में वात्सायन ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ ‘कामसूत्र’ की रचना की। कुछ विद्वान कौटिल्य, वात्सायन, विष्णुगुप्त तथा चाणक्य एक ही व्यक्ति के चार नाम होना बताते हैं। इसी काल में कात्यायन ने पाणिनी की अष्टाध्यायी पर अपने वार्तिक लिखे। इस काल में कुछ सूत्र ग्रन्थों तथा धर्म-शास्त्रों की भी रचना हुई। संभवतः रामायण तथा महाभारत का परिवर्द्धन भी इसी काल में हुआ। बौद्ध-धर्म के त्रिपिटक ग्रन्थों तथा अनेक जैन ग्रन्थों का संकलन इसी युग में हुआ था। अनेक ग्रंथों में सुबंधु नामक एक ब्राह्मण विद्वान का उल्लेख आता है जो बिंदुसार का मंत्री था। उसने वासवदत्ता नाट्यधारा नामक नाटक की रचना की। संस्कृत का परम विद्वान वररुचि इसी काल में हुआ। बृहत्कथा कोष के अनुसार इस काल में कवि नामक एक अन्य विद्वान भी हुआ। जैन-धर्म का प्रसिद्ध आचार्य भद्रबाहु इसी काल की विभूति था। जैन धर्म के आचारांग सूत्र, भगवती सूत्र, समवायांग सूत्र आदि की रचना इसी काल में हुई।

शिक्षा: मौर्य-कालीन सम्राटों ने शिक्षा की बड़ी सुन्दर व्यवस्था की थी। स्मिथ के विचार में ब्रिटिश-काल में भी उतनी विस्तृत शिक्षा की योजना न थी जितनी मौर्य-काल में थी। तक्षशिला उच्च-शिक्षा का सबसे बड़ा केन्द्र था जहाँ धनी तथा निर्धन दोनों ही शिक्षा प्राप्त करते थे। धनी परिवारों के बच्चे शुल्क देकर दिन में अध्ययन करते थे। निर्धनों के बच्चे दिन में गुरु की सेवा करते थे तथा रात में अध्ययन करते थे। गुरुकुलों, मठों तथा विहारों में भी शिक्षा दी जाती थी। इन संस्थाओं को राज्य की ओर से सहायता दी जाती थी।

मौर्य कालीन कला

मौर्य काल की कला उच्चकोटि की थी। उस काल में कलात्मक अभिव्यक्ति के लिये काष्ठ, हाथीदांत, मिट्टी, कच्ची ईंटें तथा धातुएं काम में ली गई थीं। इस काल में शिल्पकला के क्षेत्र में अभूतपूर्व प्रगति हुई। इस कारण मौर्य-काल पाषाण मूर्तियों एवं भवनों के लिये अधिक प्रसिद्ध है। इस काल की शिल्प कला को दो भागों में विभक्त किया जा सकता है- (1) स्थापत्य कला तथा (2) मूर्ति कला।

स्थापत्य कला

मौर्य कालीन स्थापत्य कला के स्मारक चार स्वरूपों में प्राप्त होते हैं-

(1) आवासीय भवन (2) राजप्रासाद (3) गुहा-गृह (4) स्तम्भ तथा (5) स्तूप।

(1) आवासीय भवनों का निर्माण: अशोक के पूर्व जो आवासीय भवन बने थे, वे ईटों तथा लकड़ी से निर्मित हुए। अशोक के शासन-काल में भवन निर्माण में लकड़ी तथा ईटों के स्थान पर पाषाण का प्रयोग आरम्भ हो गया। जो काम लकड़ी तथा ईटों पर किया जाता था, इस काल में वह पत्थर पर किया जाने लगा। अशोक बहुत बड़ा भवन निर्माता था। काश्मीर में श्रीनगर तथा नेपाल में ललितपाटन नामक नगरों की स्थापना उसी के शासन-काल में हुई थी।

 (2) राजप्रासाद का निर्माण: मेगस्थनीज ने पाटलिपुत्र में बने सुंदर राजप्रासाद का वर्णन किया है। यह राजप्रासाद इतना सुन्दर था कि इसके निर्माण के सात सौ वर्ष बाद जब फाह्यान ने इसे देखा तो वह आश्चर्य चकित रह गया। उसने लिखा है कि अशोक के महल एवं भवनों को देखकर लगता है कि इस लोक के मनुष्य इन्हें नहीं बना सकते। ये तो देवताओं द्वारा बनवाये गये होंगे। पटना से इस मौर्यकालीन विशाल राजप्रासाद के अवशेष प्राप्त हुए हैं। एरियन के अनुसार यह राजप्रासाद कारीगरी का एक आश्चर्यजनक नमूना है। राजप्रसाद के अवशेषों में चंद्रगुप्त मौर्य की राजसभा भी मिली है। पतंजलि ने इस राजसभा का वर्णन किया है। यह सभा एक बहुत ही विशाल मण्डप के रूप में है। मण्डप के मुख्य भाग में, पूर्व से पश्चिम की ओर 10-10 स्तम्भों की 8 पंक्तियां हैं। डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल के अनुसार यह ऐतिहासिक युग का प्रथम विशाल अवशेष है जिसके दिव्य स्वरूप को देखकर दर्शक मंत्रमुग्ध रह जाता है। उसके विभ्राट स्वरूप की स्थायी छाप मन पर पड़े बिना नहीं रह सकती।

(3) गुहा स्थापत्य: बिहार में गया के पास बराबर एवं नागार्जुनी की पहाड़ियों में मौर्यकालीन सात गुहा-गृह प्राप्त हुए हैं। बराबर पर्वत समूह से चार गुफाएं मिली हैं- कर्ण चोपड़ गुफा, सुदामा गुफा, लोमस ऋषि गुफा तथा विश्व झौंपड़ी गुफा। नागार्जुनी पहाड़ियों से तीन गुफाएं मिली हैं- गोपी गुफा, वहियका गुफा तथा वडथिका गुफा। इन गुहा-गृहों का निर्माण अशोक तथा दशरथ के शासन काल में किया गया था। ये गुहा-गृह शासकों की ओर से आजीवकों को दान में दिये गये थे। इन गुहा-गृहों की दीवारें आज भी शीशे की भाँति चमकती हैं।

(4) स्तम्भ: सांची तथा सारनाथ में अशोक के काल में बने तीस से चालीस स्तम्भ आज भी विद्यमान हैं। इनका निर्माण चुनार के बलुआ पत्थरों से किया गया है। इन स्तम्भों पर की गई पॉलिश शीशे की तरह चमकती है। ये स्तम्भ चालीस से पचास फीट लम्बे हैं तथा एक ही पत्थर से निर्मित हैं। इनका निर्माण शुण्डाकार में किया गया है। ये स्तम्भ नीचे से मोटे तथा ऊपर से पतले हैं। इन स्तम्भों के शीर्ष पर अंकित पशुओं की आकृतियाँ सुंदर एवं सजीव हैं। शीर्ष भाग की पशु आकृतियों के नीचे महात्मा बुद्ध के धर्म-चक्र प्रवर्तन का आकृति चिह्न उत्कीर्ण है। इन स्तम्भों के शीर्ष पर अत्यंत सुंदर, चिकनी एवं चमकदार पॉलिश की गई है जो मौर्य काल की विशिष्ट उपलब्धि है। लौरिया नंदन स्तम्भ के शीर्ष पर एक सिंह खड़ा है। संकिसा स्तम्भ के शीर्ष पर एक विशाल हाथी है तथा रामपुरवा के स्तम्भ शीर्ष पर एक वृषभ है। अशोक के स्तम्भों में सबसे सुंदर एवं सर्वोत्कृष्ट सारनाथ के स्तम्भ का शीर्षक है। सारनाथ स्तम्भ के शीर्ष पर चार सिंह एक दूसरे की ओर पीठ किये बैठे हैं। मार्शल के अनुसार ईस्वी शती पूर्व के संसार में इसके जैसी श्रेष्ठ कलाकृति कहीं नहीं मिलती। ऊपर की ओर बने सिंहों में जैसी शक्ति का प्रदर्शन है, उनकी फूली हुई नसों में जैसी प्राकृतिकता है, और उनकी मांसपेशियों में जो तनाव है और उनके नीचे उकेरी गई आकृतियों में जो प्राणवंत वास्तविकता है, उसमें कहीं भी आरम्भिक कला की छाया नहीं है।

(5) स्तूप: मौर्य कालीन स्थापत्य कला में स्तूपों का स्थान भी महत्वपूर्ण है। स्तूप निर्माण की परम्परा लौह कालीन तथा महापाषाणकालीन बस्तियों के समय से आरंभ हो चुकी थी किंतु अशोक के काल में इस परम्परा को विशेष प्रोत्साहन मिला। स्तूप ईंटों तथा पत्थरों के ऊँचे टीले तथा गुम्बदाकार स्मारक हैं। कुछ स्तूपों के चारों ओर पत्थर, ईंटें अथवा ईंटों की जालीदार बाड़ लगाई गई है। इन स्तूपों का निर्माण बुद्ध अथवा बोधिसत्व (सत्य-ज्ञान प्राप्त बौद्ध मतावलम्बी) के अवशेष रखने के लिये किया जाता था। बौद्ध साहित्य के अनुसार अशोक ने लगभग चौरासी हजार स्तूपों का निर्माण करवाया था। इनमें से कुछ स्तूपों की ऊँचाई 300 फुट तक थी। चीनी यात्री ह्वेनसांग ने भारत तथा अफगानिस्तान के विभिन्न भागों में इन स्तूपों को खड़े देखा था। वर्तमान में कुछ स्तूप ही देखने को मिलते हैं। इनमें मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल के निकट स्थित सांची का स्तूप प्रसिद्ध है। इसकी ऊँचाई 77.5 फुट, व्यास 121.5 फुट तथा इसके चारों ओर लगी बाड़ की ऊँचाई 11 फुट है। इस स्तूप का निर्माण अशोक के काल में हुआ तथा इसका विस्तार अशोक के बाद के कालों में भी करवाया गया। इस स्तूप की बाड़ और तोरणद्वार कला की दृष्टि से आकर्षक एवं सजीव हैं।

मूर्ति कला

प्रस्तर मूर्तियां: पाटलिपुत्र, मथुरा, विदिशा तथा अन्य कई क्षेत्रों से मौर्यकालीन पत्थर की मूर्तियां मिली हैं। इन पर मौर्य काल की विशिष्ट चमकदार पॉलिश मिलती है। इन मूर्तियों में यक्ष-यक्षिणियों की मूर्तियां सर्वाधिक सजीव एवं सुंदर हैं। इन्हें मौर्यकालीन लोक कला का प्रतीक माना जाता है। इनमें सबसे प्रसिद्ध दीदारगंज, पटना से प्राप्त चामरग्राहिणी यक्षी की मूर्ति है जो 6 फुट 9 इंच ऊँची है। यक्षी का मुखमण्डल अत्यंत सुंदर है। अंग-प्रत्यंग में समुचित भराव रेखा और कला की सूक्ष्म छटा है। मथुरा के परखम गांव से प्राप्त यक्ष की मूर्ति भी 8 फुट 8 इंच की है। इसके कटाव में सादगी है तथा अलंकरण कम है। बेसनगर की स्त्री मूर्ति भी इस काल की मूर्तियों में विशिष्ट स्थान रखती है। अशोक के स्तम्भ शीर्षों पर बनी हुई पशुओं की मूर्तियां उस युग के संसार में सर्वश्रेष्ठ मानी जाती हैं।

मृण्मूर्तियाँ: पटना, अहच्छत्र, मथुरा, कौशाम्बी आदि में मिले भग्नावशेषों से बड़ी संख्या में मृण्मूर्तियां भी प्राप्त की गई हैं। ये कला की दृष्टि से सुंदर हैं तथा उस युग के परिधान, वेशभूषा तथा आभूषणों की जानकारी देती हैं। मौर्य काल की, बुलंदीबाग (पटना) से प्राप्त एक नर्तकी की मृण्मूर्ति विशेष रूप से उल्लेखनीय है।

चित्रकला

मौर्य काल में चित्रकला के क्षेत्र में भी उल्लेखनीय प्रगति हुई। बौद्ध शैली के चित्रों की रचना इस काल में प्रारम्भ हो गई थी। अभाग्यवश उस काल की चित्रकला के पर्याप्त नमूने उपलब्ध नहीं हो सके हैं।

मौर्यकाल की कला पर विदेशी प्रभाव

स्पूनर, मार्शल तथा निहार रंजन रे आदि अनेक विद्वानों ने मौर्यकाल की कला को भारतीय नहीं माना है। इन विद्वानों ने मौर्य काल की कला पर ईरानी कला का प्रभाव माना है। स्पूनर ने लिखा है कि पाटलिपुत्र का राजभवन फारस के राजमहल का प्रतिरूप था। स्मिथ ने लिखा है कि मौर्यों की कला ईरान तथा यवनों से प्रभावित हुई है। सिकंदर के आक्रमण के समय विदेशी सैनिक तथा शिल्पी भारत में बस गये थे, उन्हीं के द्वारा अशोक ने स्तम्भों का निर्माण करवाया। स्मिथ की मान्यता है कि अशोक से पहले, भारत में भवन निर्माण में पत्थरों का प्रयोग नहीं किया जाता था। विदेशी कलाकारों द्वारा इसे संभव किया गया। इन विद्वानों की धारणा को नकारते हुए अरुण सेन ने लिखा है कि मौर्य कला तथा फारसी कला में पर्याप्त अंतर है। फारसी स्तम्भों में नीचे की ओर आधार बनाया जाता था जबकि अशोक के स्तम्भों में कोई आधार नहीं बनाया गया है। मौर्य स्तम्भ का लम्बा भाग गोलाकार है एवं चमकदार पॉलिश से युक्त है जबकि फरसी स्तम्भों में चमकदार पॉलिश का अभाव है। अतः मौर्य कला पर फारसी प्रभाव होने की बात को स्वीकार नहीं किया जा सकता। मौर्य कला अपने आप में पूर्णतः भारत में विकसित होने वाली कला है।

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