Friday, November 22, 2024
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29. श्रीराम ने इन्द्र के पुत्र जयंत की आंख फोड़कर उसे जीवित छोड़ दिया।

राजकुमार भरत द्वारा अयोध्यावासियों को अपने साथ लेकर अयोध्या लौट जाने के बाद भी राम, लक्ष्मण एवं सीता कुछ दिनों तक चित्रकूट में निवास करते रहे। वाल्मीकि रामायण, अध्यात्म रामायण, नरसिंह पुराण, पद्म पुराण तथा गोस्वामी तुलसीदास कृत रामचरित मानस में श्रीराम के चित्रकूट प्रवास के दौरान घटित इंद्र के पुत्र जयंत की कथा का उल्लेख किया गया है।

इस कथा के अनुसार एक दिन इन्द्र का पुत्र जयंत चित्रकूट आया। उसने सुना था कि राम कोई साधारण पुरुष नहीं हैं, वे तीनों लोकों के स्वामी स्वयं श्री हरि भगवान विष्णु हैं और वे राक्षसों का संहार करने के लिए अरण्य वन में प्रवेश करने वाले हैं। इसलिए जयंत ने श्रीराम के बल को देखने का निश्चय किया।

गोस्वामी तुलसीदासजी ने लिखा है कि इन्द्रपुत्र जयंत ने अपने अहंकार के कारण ऐसा प्रयास किया मानो कोई मंदबुद्धि चींटी समुद्र की थाह पाना चाहती हो। जयंत ने कौए का रूप धरकर माता सीता के चरण पर चौंच मारकर उन्हें घायल कर दिया। जब सीताजी के चरण से रक्त बहने लगा तो श्रीराम ने एक सरकण्डा उठकार अपने धनुष पर तीर की भांति चढ़ाया और उसे जयंत पर छोड़ दिया। मंत्र से प्रेरित वह ब्रह्मबाण जयंत की ओर दौड़ा। जयन्त ने जब भगवान के तीर को अपनी ओर आते हुए देखा तो जयंत अपने प्राण बचाने के लिए भागने लगा।

जयंत अपना वास्तविक रूप धरकर अपने पिता इन्द्र के पास गया। इन्द्र ने उसे श्रीराम का विरोधी जानकर उसे अपने पास नहीं रखा। इससे जयंत के हृदय में अत्यधिक भय उत्पन्न हो गया। वह ब्रह्मलोक एवं शिवलोक में भी गया किंतु वहां भी उसे अभय नहीं मिला। श्रीराम विमुख होने के कारण समस्त देव उसके विरुद्ध हो गए।

जयंत शोक से व्याकुल होकर ब्रह्माण्ड भर में भागता फिरा किंतु कहीं से अभयदान नहीं मिला। जब देवर्षि नारद ने जयन्त को व्याकुल देखा तो उन्हें दया आई। उन्होंने जयंत को समझाया कि तू श्रीराम की शरण में जा, वही तुझे इस कष्ट से उबार सकते हैं।

पूरे आलेख के लिए देखिए यह वी-ब्लॉग-

इस पर जयंत पुनः चित्रकूट पहुंचा और श्रीराम के चरण पकड़कर अत्यंत आर्त स्वर में कहने लगा- ‘हे शरणागत हितकारी, मेरी रक्षा कीजिए। आपके अतुलित बल और आपकी अतुलित प्रभुता को मैं मन्दबुद्धि जान नहीं पाया था। अपने कर्म से उत्पन्न हुआ फल मैंने पा लिया। हे प्रभु! मेरी रक्षा कीजिए। मैं आपकी शरण में आया हूँ।’

जयंत की आर्तपुकार सुनकर श्रीराम ने जयंत को एक आंख से काना करके छोड़ दिया। हमने यह कथा रामचरित मानस में आए वर्णन के अनुसार दी है। रामचरित मानस में यह प्रसंग अरण्यकांड में लिखा गया है जबकि वाल्मीकि रामायण एवं अध्यात्म रामायण में जयंत का प्रसंग सुन्दरकांड में वर्णित है।

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वाल्मीकि रामायण में जयंत रूपी कौआ सीता माता के शरीर के उपरी भाग में अर्थात् छाती में चोंच मारता है जबकि वेदव्यासजी रचित अध्यात्म रामायण, तुलसीदासजी द्वारा रचित रामचरित मानस एवं अज्ञात लेखक द्वारा लिखित आनंद रामायण में कौआ सीता माता के पैर के अंगूठे में चौंच मारता है। इन चारों ही ग्रंथों में यह घटना चित्रकूट में ही दर्शाई गई है। आनन्द रामायण में भी यह प्रसंग दिया गया है और यह रामचरित मानस से मेल खाते हुए भी थोड़ी सी भिन्नता लिए हुए है। रामचति मानस में कौआ सीता माता के चरण पर एक बार प्रहार करता है किंतु आनंद रामायण में कौआ कई बार चोंच मारता है।

वाल्मीकि रामायण में यह कथा थोड़े अंतर के साथ मिलती है। वाल्मीकि रामायण में वर्णित जयंत कथा को पढ़ने से लगता है कि यह एक भक्त ने नहीं लिखी है, अपितु किसी सामान्य साहित्यकार ने लिखी है जो कथा में रोमांच पैदा करने के लिए उसे अनावश्यक रूप से कामुक एवं शृंगारिक बनाता है। वाल्मीकि रामायण में आई जयंत की कथा में सीता माता के कपड़ों को अत्यंत अस्त-व्यस्त दिखाया गया है एवं उनके भय का वर्णन भी एक साधारण नारी के भय के समान किया गया है।

वाल्मीकि का कौआ सीता माता की छाती में चोंच से प्रहार करके उन्हें बुरी तरह घायल कर देता है।

कुछ ग्रंथों ने इस कथा को और भी चमत्कारिक बनाने का प्रयास किया है तथा इस कथा को श्रीराम की बाल-लीला से आरम्भ किया है जिसके अनुसार एक दिन श्रीराम बाल लीला करते हुए लक्ष्मणजी एवं हनुमानजी के साथ पतंग उड़ा रहे थे। जब यह पतंग उड़ते-उड़ते इंद्रलोक में पहुची तो इंद्र-पुत्र जयंत की पत्नी ने वह अद्भुत पतंग पकड़ ली।

श्रीराम ने हनुमानजी से कहा- ‘देखो पतंग किसने पकड़ी?’

पतंग को ढूंढते हुए हनुमानजी इंद्रलोक पहुंच गए। उन्होंने जयंत की पत्नी से कहा- ‘पतंग छोड़ दीजिए।’

जयंत की पत्नी बोली- ‘मैं उस बालक के दर्शन करूंगी जिसकी पतंग इतनी सुन्दर है। तभी पतंग छोड़ूंगी।’

हनुमानजी ने यह बात धरती पर लौटकर श्रीराम को बताई। श्रीराम ने हनुमानजी से कहा- ‘आप जयंत की पत्नी से जाकर कहें कि उसे मेरे दर्शन चित्रकूट में होंगे।’

हनुमानजी ने जयंत की पत्नी से यह बात कही तो उसने पतंग छोड़ दी। जब श्रीराम वनवास की अवधि में चित्रकूट में निवास कर रहे थे तब उन्होंने एक बार पूर्णिमा की रात में एक स्फटिक शिला पर बैठकर सीता माता का शृंगार किया। उसी समय जयंत की पत्नी अपनी सखियों के साथ रघुनाथजी के दर्शन करने आई। वह श्रीराम का रूप देखकर प्रसन्न हुई। उसने श्रीराम की स्तुति की और इच्छित वर मांगकर देवलोक को चली गई।

जब इंद्र के पुत्र जयंत को इस घटना की जानकारी मिली तो उसने प्रतिज्ञा की कि मैं इस श्रीराम से बदला लूंगा क्योंकि उसने मेरी पत्नी को मोहित किया है। इस प्रतिज्ञा की पूर्ति लिए ही जयंत ने कौआ बनकर सीता माता के चरणों पर चोंच से प्रहार किया था। इन कथाओं के अनुसार श्रीराम ने इन्द्र के पुत्र जयंत की एक आंख इसलिए फोड़ दी थी क्योंकि उसने सीता माता को बुरे भाव से देखा थाा। इन कथाओं में यह मान्यता भी प्रतिपादित की जाती है कि तभी से कौए की एक ही आंख होती है।

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