राजा दिलीप ने सिंह से कहा कि वह गौ के स्थान पर मुझे खा ले!
पिछली कड़ी में हमने राजा खट्वांग की कथा कही थी। राजा खट्वांग से दीर्घबाहु नामक पुत्र हुआ। कुछ पुराणों में राजा खट्वांग को दिलीप कहा गया है तो कुछ पुराणों में खट्वांग के पुत्र दीर्घबाहु को दिलीप कहा गया है।
राजा दिलीप सूर्य वंश के बहुत बड़े प्रतापी राजा हुए। वे महाराज रामचंद्र के पूर्वज थे। दुर्भाग्यवश उन्हें कोई संतान नहीं थी इसलिए राजा बहुत चिंत्ति थे। इसी चिंता में वे रानी सुदक्षिणा को लेकर गुरु वसिष्ठ के आश्रम में गये। राजा दिलीप ने गुरु वसिष्ठ से अपनी व्यथा कही और गुरु से अपनी संतानहीनता का कारण और उसके निवारण का उपाय पूछा।
महर्षि वसिष्ठ ने महाराज दिलीप को बताया कि आपने स्वर्ग लोक में कामधेनु गाय का अपमान किया है। इसी दोष से आपकी संतान की कामना फलवती नहीं होती।
इस पर राजा दिलीप ने गुरु से कहा कि मेरी स्मृति में ऐसी कोई घटना नहीं है जब मैंने मैंने कामधेनु का अपराध किया हो! कृपया मेरा अपराध समझाने का कष्ट करें।
गुरु ने कहा कि एक बार आप देवराज इंद्र के निमंत्रण पर स्वर्गलोक में गये थे। तब आप स्वर्ग के ऐश्वर्य को देखने में इतने खो गये कि आपने कल्पतरु के नीचे विश्राम कर रही कामधेनु गाय को नमस्कार नहीं किया जिससे आपको कामधेनु के अपमान का दोष लग गया। समस्त कामनाओं को पूर्ण करने वाली कामधेनु के रुष्ट होने के कारण आप संतान-सुख से वंचित हैं।
पूरे आलेख के लिए देखिए यह वी-ब्लॉग-
महाराजा दिलीप ने गुरु से इस दोष के निवारण का उपाय पूछा। गुरु ने कहा- ‘राजन्! इस दोष से मुक्त होने का उपाय यह है कि आप कामधेनु की सेवा करके उसे प्रसन्न करें किंतु कामधेनु को धरती पर नहीं लाया जा सकता। अतः आप कामधेनु की पुत्री नंदनी की सेवा कर सकते हैं।’
नंदिनी उन दिनों महर्षि वसिष्ठ के आश्रम में थी। राजा एवं रानी ने नंदिनी से अपने साथ चलने की प्रार्थना की। नंदिनी ने ऋषि की आज्ञा से राजा दिलीप एवं रानी सुदक्षिणा के साथ चलना स्वीकार कर लिया। राजा ने अपने सेवकों को अयोध्या भेज दिया और स्वयं रानी सहित महर्षि के तपोवन में गौ-सेवा करने लगे। वे प्रतिदिन गाय की पूजा करते और गाय को चरने के लिए अरण्य में छोड़ देते।
नंदिनी जिधर जाना चाहती, राजा उसके पीछे-पीछे छाया की तरह चलते। नंदिनी के जल पीने के पश्चात ही राजा एवं रानी जल पीते थे। संध्या काल में रानी आश्रम के द्वार पर खड़ी उनकी प्रतीक्षा करती तथा गाय को तिलक लगाकर उसका दूध दुहती। जब गाय सो जाती तो राजा एवं रानी भी शयन करते। प्रातःकाल में राजा एवं रानी गौशाला की सफाई करते। इस प्रकार सेवा करते हुए इक्कीस दिन बीत गए। बाईसवें दिन जब राजा गौ चरा रहे थे तब अचानक एक सिंह गाय पर टूट पड़ा। राजा ने तुरंत धनुष पर बाण चढ़ाकर सिंह को खदेड़ने का प्रयास किया किंतु राजा दिलीप की अंगुलियाँ बाण पर चिपक गईं। उनके आश्चर्य की कोई सीमा नहीं रही।
सिंह ने मनुष्यवाणी में कहा- ‘राजन्! तुम्हारा बाण मुझ पर नहीं चल सकता है। मैं भगवान शंकर का सेवक कुम्भोदर हूँ। इस तपोवन के देवदार वृक्षों की सेवा के लिए भगवान शिव ने मुझे यहाँ नियुक्त किया है और कहा है कि जो जीव इन वृक्षों को क्षति पहुंचाएगा वही तुम्हारा आहार होगा। आज मुझे यह आहार मिला है, अतः तुम लौट जाओ।’
सिंह के मुख से इस प्रकार के वचन सुनकर राजा दिलीप क्रोधित हो गए और अपने धनुष पर बाण चढ़ाकर बोले- ‘जब तक सूर्यवंशीयों के शरीर में प्राण हैं, तब तक तुम इस गाय को हानि नहीं पहुंचा सकते।’
इस पर सिंह ने कहा- ‘हे राजन्! तुम बीच में न आओ! यह मेरे और इस गौ के बीच का विवाद है। मैं भगवान शिव द्वारा नियुक्त इस उपवन का रक्षक हूँ और इस उपवन को क्षति पहुंचाने वाले को दंड देना मेरा कर्त्तव्य है।’
राजा दिलीप ने कहा- ‘यदि आप भगवान शिव के सेवक हैं तो हमारे लिए भी आदरणीय हैं, मैं आप पर शस्त्र नहीं उठा सकता किंतु यह गाय मेरे द्वारा रक्षित है इसलिए आप गाय के बदले मुझे खा लें। क्योंकि आपके वन में इस गाय का प्रवेश करना मेरी गलती है।’
सिंह ने राजा दिलीप से कहा- ‘हे राजन्! तुम इस देश के धर्मात्मा राजा हो। तुम्हारे मरने से इस देश को बहुत हानि होगी। इसलिए तुम यहाँ से चले जाओ तथा मुझे इस गाय को मारकर खा जाने दो।’
इस प्रकार सिंह ने राजा को बहुत समझाया किंतु राजा दिलीप अपने प्रण पर अडिग रहे और अपनी आँखें मूंदकर सिंह के सामने बैठ गए ताकि सिंह उन्हें अपना आहार बना सके। राजा सिंह के आक्रमण की प्रतीक्षा करते रहे किंतु सिंह ने उन पर आक्रमण नहीं किया। इस पर राजा ने आंखें खोल लीं। उन्होंने देखा कि वहाँ कोई सिंह नहीं है। राजा ने विस्मित होकर नंदिनी की ओर देखा।
नंदिनी ने कहा- ‘उठो राजन्! यह सब मेरी माया थी। मैं तुम्हारे संकल्प और सत्यनिष्ठा को परख रही थी। मैं तुम्हारे द्वारा की गई सेवा से प्रसन्न हूँ। मेरी कृपा से तुम्हें तेजस्वी पुत्र की प्राप्ति होगी।’
नंदिनी के आशीर्वाद से राजा दिलीप को कुछ समय पश्चात् एक पुत्र की प्राप्ति हुई जिसका नाम ‘रघु’ रखा गया। महाराज रघु सूर्यवंश के बड़े प्रतापी राजा हुए और उनके नाम पर इक्ष्वाकुओं को रघुवंशी कहा जाने लगा।
संस्कृत के महाकवि कालिदास ने अपने सुप्रसिद्ध ग्रंथ ‘रघुवंशम्’ में राजा दिलीप से लेकर अग्निवर्ण तक कुल 29 राजाओं का वर्णन किया है। रघुवंशम् की कथा राजा दिलीप और उनकी रानी सुदक्षिणा के ऋषि वसिष्ठ के आश्रम में प्रवेश करने से प्रारम्भ होती है।
राजा दिलीप धनवान, गुणवान, बुद्धिमान और बलवान हैं, साथ ही धर्मपरायण भी। वे हर प्रकार से सम्पन्न हैं परन्तु उनके संतान नहीं है। वे संतान प्राप्ति का आशीर्वाद पाने के लिए गौमाता नंदिनी की सेवा करने का संकल्प लेते हैं। एक दिन जब नंदिनी जंगल में विचरण कर रही होती है तब एक सिंह नंदिनी को अपना आहार बनाना चाहता है।
राजा दिलीप स्वयं को सिंह के समक्ष अर्पित करके सिंह से प्रार्थना करते हैं कि उन्हें वह अपना आहार बनाये। सिंह प्रार्थना स्वीकार कर लेता है और उन्हें मारने के लिए झपटता है। इस छलांग के साथ ही सिंह ओझल हो जाता है। तब नन्दिनी बताती है कि उसी ने महाराज दिलीप की परीक्षा लेने के लिए यह माया रची थी।
नंदिनी दिलीप की सेवा से प्रसन्न होकर पुत्र प्राप्ति का आशीर्वाद देती है। राजा दिलीप और सुदक्षिणा नंदिनी का दूध ग्रहण करते हैं और उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति होती है। इस गुणवान पुत्र का नाम रघु रखा जाता है जिनकी सत्यनिष्ठा एवं पराक्रम के कारण इस वंश को ‘रघुवंश’ के नाम से जाना जाता है।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता