ईक्ष्वाकु वंशी राजा सौदास का उल्लेख अनेक हिन्दू पौराणिक ग्रंथों एवं महाभारत में हुआ है। विष्णु पुराण के अनुसार राजा सौदास इक्ष्वाकु वंश में उत्पन्न राजा ऋतुपर्ण का प्रपौत्र, राजा सर्वकाम का पौत्र तथा राजा सुदास का पुत्र था। सुदास का पुत्र होने के कारण इसे सौदास कहा जाता था।
कुल पुरोहित वसिष्ठ के आशीर्वाद से राजा सुदास और सौदास ने अपने शत्रुओं पर विजय प्राप्त की। एक बार राजा सौदास ने महर्षि वसिष्ठ को नमस्कार करके पूछा कि हे पूज्यवर! इस संसार में अत्यंत पूज्यवान वस्तु क्या है?
इस पर महिर्ष वसिष्ठ ने कहा कि गाय।
राजा के अनुरोध पर महर्षि वसिष्ठ ने राजा सुदास को गाय की महत्ता बताने के लिए एक उपदेश दिया जिसे ‘गवोपतिषत्’ कहते हैं। इस उपदेश के अनुसार प्रतिदिन गौ-पूजन करना, उसे भक्ति के साथ प्रणाम करना और गाय से प्राप्त दूध, दही एवं घी आदि को उपयोग में लाना अत्यंत लाभकारी बताया गया है।
एक बार राजा सुदास अरण्य में आखेट खेलने गया। वहाँ राजा सौदास ने दो भयंकर राक्षसों को देखा। उनमें से एक राक्षस को राजा सौदास ने मार दिया किंतु दूसरा राक्षस भयभीत होकर अदृश्य हो गया तथा उसने राजा सौदास को फिर कभी मारने का निश्चय किया। राजा सुदास भी अरण्य से अपनी राजधानी अयोध्या लौट आया।
कुछ सयम पश्चात् कुलगुरु महर्षि वसिष्ठ की आज्ञा से राजा सौदास ने एक यज्ञ आरम्भ किया। यज्ञ पूर्ण होने के बाद राजा एवं रानी ने गुरु वसिष्ठ सहित समस्त ब्राह्मणों को भोजन करवाया। जिस मायावी राक्षस ने राजा सुदास को फिर कभी मारने का निश्चय किया था। उसे इस यज्ञ के बारे में ज्ञात हो गया और वह अपने साथी दैत्य की मृत्यु का बदला लेने के लिए वेश बदल कर राजा सौदास के महल में आया।
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उस दैत्य ने अवसर पाकर महर्षि वसिष्ठ के भोजन में नरमांस मिला दिया। रानी दमयंती ने अत्यंत श्रद्धा से वह भोजन कुलगुरु महर्षि वसिष्ठ को परोसा।
जब महर्षि वसिष्ठ ने अपने सामने नरमांस परोसा हुआ देखा तो उन्होंने राजा को श्राप दिया- ‘हे सौदास! तूने मुझे खाने के लिए नरमांस दिया है, इसलिए तू राक्षस हो जा और यही भोजन कर।’
इस पर राजा सौदास कुलगुरु वसिष्ठ पर क्रुद्ध हुआ और बोला- ‘आपने बिना सोचे-समझे हमें निरपराधी होते हुए भी इतना भयानक श्राप दिया है, अतः मैं भी आपको श्राप दूंगा।’
राजा ने कुलगुरु को श्राप देने के लिए अपने हाथ में जल लिया तो रानी मदयंती राजा के पैरों में गिर पड़ी और प्रार्थना करने लगी- ‘कुलगुरु को श्राप देना उचित नहीं है।’
इस पर राजा सौदास ने अपने हाथ का जल अपने पैरों पर गिरा दिया। इस जल के स्पर्श से राजा सौदास के पैर काले हो गए तथा तभी से राजा को कल्मषपाद कहा जाने लगा। शाप के प्रभाव से राजा उसी क्षण राक्षस बन गया। उसी समय वसिष्ठजी को राक्षस द्वारा भोजन में नरमांस मिलाए जाने की बात ज्ञात हुई और उन्होंने कल्मषपाद राक्षस बने राजा सौदास से कहा- ‘मेरे शाप का प्रभाव बारह वर्ष तक रहेगा। जब आप श्राप के प्रभाव से मुक्त हो जाएंगे, तब आपको श्रापकाल की घटनाएं स्मरण नहीं रहेंगी।’
राक्षस कल्पषपाद अपनी राजधानी छोड़कर जंगलों में चला गया और प्राणियों को मार कर खाने लगा। एक बार कल्पषपाद अरण्य में एक संकरे पथ पर जा रहा था। उसी संकरे पथ पर सामने से महर्षि वसिष्ठ का पुत्र शक्ति आ रहा था। इस बात पर दोनों में बहस छिड़ गई कि कौन किसके लिए मार्ग छोड़ेगा! महर्षि वसिष्ठ का पुत्र शक्ति ऋषि वेश में था, इसलिए वह चाहता था कि राजा अपने गुरुपुत्र के सम्मान में मार्ग छोड़े। जबकि राजा चाहता था कि ऋषिपुत्र एक चक्रवर्ती सम्राट के लिए मार्ग छोड़े। जब गुरुपुत्र ने राजा के लिए मार्ग नहीं छोड़ा तो कल्मषपाद गुरुपुत्र को रस्सी से मारने लगा।
संयोगवश महर्षि विश्वामित्र भी वहाँ आ निकले। उन्होंने एक वृक्ष के पीछे खड़े होकर यह समस्त दृश्य देखा। उन्होंने अपने प्रतिद्वंद्वी महर्षि वसिष्ठ के पुत्र शक्ति को संत्रास देने के लिए किंकर नामक एक राक्षस की सृष्टि की तथा उसे राजा कल्पषपाद के शरीर में प्रवेश करा दिया। इस कारण कल्मषपाद ने और भी भयंकर रूप धारण कर लिया। शक्ति भयभीत होकर वहाँ से चला गया।
एक बार राक्षस कल्मषपाद ने एक ब्राह्मण युगल को रति के क्षणों में देखा। कल्मषपाद ने ब्राह्मण को मार दिया। इस पर ब्राह्मण-पत्नी ने दुःखी होकर कहा- ‘तू जब भी अपनी पत्नी के पास जाएगा, तू भी इसी तरह मर जाएगा, जिस तरह तूने आज मेरे पति को मारा है।’
एक बार राक्षस कल्मषपाद अरण्य में घूमता हुआ ऋषि वसिष्ठ के आश्रम में जा पहुंचा। वहाँ उसने वसिष्ठ के पुत्रों को यज्ञ करते हुए देखा तो कल्मषपाद वसिष्ठ के पुत्रों को खा गया। महर्षि वसिष्ठ ने अपने पुत्रों के शोक में अपने शरीर का अंत करने का निश्चय किया तथा उन्होंने पर्वत से गिरकर, समुद्र में डूबकर, अग्नि में जलकर देहत्याग करने का निश्चय किया किंतु देवताओं ने उन्हें मरने नहीं दिया। इस पर महर्षि वसिष्ठ अपना शरीर लताओं से बांधकर एक तेज प्रवाहयुक्त नदी में कूद गए। यहाँ भी देवताओं ने उन्हें लताओं के पाश से मुक्त कर दिया। ऋषि बच गए तथा उसी दिन से उस नदी का नाम ‘विपाशा’ हो गया जिसे अब हम ‘व्यास’ नदी कहते हैं।
जब महर्षि विपाशा में जीवित बच बए तो उन्होंने एक अन्य नदी में कूदकर प्राण त्यागने का निश्चय किया। जैसे ही ऋषि वसिष्ठ ने नदी में प्रवेश किया, नदी सौ धाराओं में बंट गई और महर्षि स्वतः उससे बाहर निकल गए। उस दिन से उस नदी का नाम ‘शतुद्रि’ हो गया जिसे अब हम ‘सतलुज’ के नाम से जानते हैं।
एक बार महर्षि वसिष्ठ अपनी पुत्रवधु अदृश्यंति के साथ अरण्य में काष्ठ एकत्रित कर रहे थे। तब महर्षि को क्षीण स्वर में वेदमंत्र सुनाई दिए। इस पर महर्षि ने अपनी पुत्रवधु से पूछा- ‘ये वेदमंत्र कौन बोल रहा है।’
इस पर अदृश्यंति ने कहा- ‘विगत 12 वर्षों से मेरे गर्भ में आपके पुत्र शक्ति का पुत्र वेदघोष कर रहा है।’
जब महर्षि को ज्ञात हुआ कि मेरे कुल का सम्पूर्ण विनाश नहीं हुआ है तो महर्षि ने देह-त्याग करने का निश्चय छोड़ दिया। कुछ समय पश्चात् अदृश्यंति के गर्भ से पराशर ऋषि ने जन्म लिया। पराशर का शब्दिक अर्थ होता है- ‘प्राण बचाने वाला।’ चूंकि उन्होंने अपने पितामह वसिष्ठ के प्राण बचाए थे, इसलिए वे पराशर कहलाए।
इस तरह लगभग 12 वर्ष होने को आए। एक दिन राक्षस कल्मषपाद ने महर्षि वसिष्ठ को अरण्य में संचरण करते हुए देखा। वह महर्षि को खा जाने के लिए उन पर झपटा। महर्षि ने दया करके उसे शाप-मुक्त कर दिया। राजा शापमुक्त होकर अपने स्वरूप में स्थित हुआ तथा पुनः अपनी राजधानी अयोध्या में लौट आया। जब राजा सौदास को राज्य करते हुए बहुत दिन बीत गए तो उसे चिंता हुई कि उसका कोई पुत्र नहीं है। ब्राह्मणी के शाप के कारण राजा अपनी रानी से पुत्र उत्पन्न नहीं कर सकता था। श्रीमद्भागवत महापुराण के अनुसार जब लम्बे समय तक राजा सौदास को पुत्र की प्राप्ति नहीं हुई तो महर्षि वसिष्ठ ने राजा सौदास के अनुराध पर रानी मदयंती को मंत्रों के बल पर गर्भाधान कराया। इससे रानी मदयंती गर्भवती हो गई किंतु सात वर्ष तक बालक गर्भ से बाहर नहीं आया। इस पर वसिष्ठ ने रानी के गर्भ पर ‘अश्म’ अर्थात् पत्थर से प्रहार किया जिससे रानी ने एक पुत्र को जन्म दिया। उस बालक का नाम ‘अश्मक’ हुआ। उसे वीरसह अथवा मित्रसह भी कहते थे। राजा सौदास के बाद यही अश्मक अयोध्या का राजा हुआ।