पिछली कड़ी में हमने चर्चा की थी कि जब राजा भगरीथ गंगाजी को स्वर्ग से उतार कर लाए तो वे गंगाजी को धरती से पाताल लोक में ले गए। मार्ग में गंगाजी ने उन रिक्त समुद्रों को भी जल से भर दिया जो महर्षि अगस्त्य द्वारा पी लिए जाने के कारण खाली पड़े थे।
इस कड़ी में हम महर्षि अगस्त्य द्वारा समुद्र का जल पिए जाने की घटना की चर्चा करेंगे। बहुत से पुराणों में महर्षि अगस्त्य द्वारा समुद्रों को पीकर उन्हें खाली करने का आख्यान मिलता है। महाभारत में भी इस आख्यान का विस्तार से वर्णन किया गया है। इस आख्यान की भूमिका वृत्रासुर के वध से आरम्भ होती है तथा इसकी पूर्णाहुति ईक्ष्वाकु वंश के राजा भगीरथ पर जाकर पूर्ण होती है।
दर्शकों को स्मरण होगा कि हमने हिन्दू धर्म कथाएं की 18वीं कड़ी में वृत्रासुर वध के समय कालेय नामक दैत्यों का उल्लेख किया था। कुछ पुराणों में इन्हें कालकेय दैत्य कहा गया है। महाभारत में भी इन्हें कालकेय कहा गया है। जब देवराज इन्द्र महर्षि दधीचि की अस्थियां प्राप्त करके विश्वकर्मा से छः दांतों वाला भयंकर वज्र बनवाकर वृत्रासुर को मारने के लिए आया तब भगवान विष्णु एवं समस्त देवगण इन्द्र की सहायता के लिए आकाश में स्थित हो गए। उसी समय कालकेय नामक दैत्यों के एक विशाल समूह ने वृत्रासुर के चारों ओर घेरा बना लिया। देखते ही देखते देवों एवं दानवों का भयंकर युद्ध छिड़ गया।
पूरे आलेख के लिए देखिए यह वी-ब्लॉग-
कालकेय दैत्यों के काले शरीर अत्यंत भयंकर थे और उनके आकार बहुत विशाल थे। अंत में भगवान विष्णु के निर्देशन पर देवराज इंद्र ने वृत्रासुर पर वज्र से प्रहार किया जिससे वृत्रासुर भयानक गर्जना करता हुआ धरती पर गिर गया और कालकेय दैत्य समुद्र में जा छुपे।
कालकेय दैत्यों ने सोचा कि समस्त लोकों की रक्षा तप से होती है। अतः सबसे पहले तप का नाश किया जाना चाहिए, इसलिए पृथ्वी पर जितने भी धर्मात्मा, तपस्वी और पुण्यात्मा मनुष्य हैं उनका नाश कर दिया जाए। इससे समस्त लोक स्वतः नष्ट हो जाएंगे।
यह विचार स्थिर करने के बाद कालेय दैत्य दिन में समुद्र के भीतर छिपे रहते एवं रात्रि के समय समुद्र से बाहर आकर आश्रमों और तीर्थ-स्थानों में रहने वाले ऋषि-मुनियों को खा जाते। उनके अत्याचार इतने बढ़ गए कि पृथ्वी पर चारों ओर ऋषि-मुनियों की हड्डियां दिखाई देने लगीं।
ऋषियों एवं मुनियों का संहार होते हुए देखकर देवगण अत्यंत दुःखी हुए और भगवान श्री हरि विष्णु के पास जाकर बोले- ‘भगवन्! इस संसार पर भारी विपत्ति आन पड़ी है, पता नही कौन, रात्रि के समय धर्मात्मा पुरुषों और ऋषि-मुनियों की हत्या करता है! यदि ऐसे ही धर्मात्माओं और ऋषि-मुनियों की हत्या होती रही तो पृथ्वी सहित समस्त लोकों का नाश होना निश्चित है! अतः हे जगदीश्वर! हमें इस विपत्ति से बाहर निकालें।’
प्रार्थना सुनकर भगवान श्री हरि विष्णु बोले- ‘हे देवगण! मैं इस भयंकर उत्पात से भलीभाँति परिचित हूँ। यह कार्य कालकेय नामक दैत्य कर रहे हैं। वे दिन भर तो समुद्र में छिपे रहते हैं और रात के समय समुद्र से बाहर निकलकर धर्मात्माओं और ऋषि मुनियों की हत्या करते हैं। जब तक वे समुद्र में हैं, तब तक तुम उनका वध नही कर सकते। इसलिए समुद्र को सुखाने के उपाय करो। समुद्र को सुखाने का सामर्थ्य सम्पूर्ण धरती पर केवल महर्षि अगस्त्य में है। इसलिए आप सब अगस्त्य ऋषि के पास जाएं।’
भगवान विष्णु के आदेश पर समस्त देवगण एकत्रित होकर महर्षि अगस्त्य के आश्रम पहुंचे। देवताओं ने ऋषि अगस्त्य को प्रणाम किया। देवताओं को इस प्रकार आया देखकर ऋषि अगस्त्य ने उनसे वहाँ आने का कारण पूछा। तब देवताओं ने समस्त वृत्तांत कह सुनाया।
देवताओं ने ऋषि से अनुरोध किया- ‘आप इस समुद्र को सुखा दें, ताकि हम उन दैत्यों का विनाश कर सकें जो समस्त ऋषि-मुनियों के काल बने बैठे हैं।’
देवताओं की यह प्रार्थना सुनकर महर्षि अगस्त्य ने कहा- ‘मैं इस संसार के कष्ट दूर करने के लिए तुम्हारी इच्छा अवश्य पूरी करूँगा।’
महर्षि अगस्त्य तपसिद्ध ऋषियों और देवताओं को अपने साथ लेकर समुद्र के तट पर गए तथा कहने लगे- ‘मैं समस्त संसार के हित के लिए इस समुद्र का पान करता हूँ।’
ऐसा कहकर मुनि अगस्त्य ने समुद्र का समस्त जल पी लिया। उन्होंने समुद्र के जल को अपने उदर में ऐसे धारण कर लिया जैसे कुंभ जल को धारण करता है। तभी से महर्षि अगस्त को कुंभज ऋषि कहा जाने लगा। समुद्र के सूख जाने के कारण धरती पर वर्षा बंद हो गई।
जब समुद्र खाली हो गए तो उसके तल में छिपे हुए कालकेय दैत्य दिखाई देने लगे। समस्त देवता अपने दिव्य अस्त्रों के साथ कालकेय दैत्यों पर टूट पड़े और एक बार पुनः देवासुर संग्राम आरम्भ हो गया। इस युद्ध में कालकेय दैत्य देवताओं के हाथों मारे गए।
जब कालकेय दैत्य समाप्त हो गए तब देवताओं ने महर्षि अगस्त्य से प्रार्थना की कि अब आप समुद्र के पिये हुए जल को पुनः छोड़ दीजिए किंतु मुनि अगस्त्य ने कहा- ‘मैंने समस्त जल पचा लिया है। अतः अब मैं उसे नहीं छोड़ सकता।’
महर्षि अगस्त्य की यह बात सुनकर देवताओं को बड़ा आश्चर्य हुआ। वे पितामह ब्रह्माजी के पास गए एवं उनके समक्ष करबद्ध होकर प्रार्थना करने लगे कि आप समुद्र को फिर से भर दें ताकि धरती पर फिर से वर्षा आरम्भ हो सके। इस पर पितामह ब्रह्मा ने देवताओं को सलाह दी कि आप समस्त देवगण अपने-अपने स्थान पर जाएं। कुछ समय बाद जब इक्ष्वाकु वंशी राजा भगीरथ अपने पुरखों के उद्धार के लिए गंगाजी को धरती पर लेकर जाएंगे तब यह समुद्र पुनः जल से भर जाएगा।
पितामह ब्रह्मा के आदेशानुसार समस्त देवता अपने स्थान पर चले गए और राजा भगीरथ का जन्म होने की प्रतीक्षा करने लगे। आगे का कथानक हम पिछली कथा में सुना चुके हैं जिसमें राजा भगीरथ द्वारा गंगाजी को धरती पर लाने और गंगाजी द्वारा समुद्र को पुनः जल से भरने की कथा कही गई थी।
ऐसा जान पड़ता है कि अगस्त्य ऋषि द्वारा समुद्र को पीकर उसे खाली करने एवं धरती पर वर्षा बंद हो जाने का पौराणिक कथानक एक पर्यावरणीय घटना है। जब धरती पर हिमकाल आता है तो समुद्रों का वह जल जो बादलों में स्थित होता है, वह वर्षा के रूप में धरती पर न बरस कर बर्फ के रूप में पहाड़ों पर गिरता है और वहाँ बर्फ के रूप में कैद हो जाता है। इससे समुद्र का जलस्तर नीचे गिर जाता है।
जब पुनः गर्मयुग आरम्भ होता है तब पहाड़ों की बर्फ पिघल जाती है तथा पर्वतों का जल फिर से नदियों में प्रवाहित होता हुआ समुद्र में पहुंचने लगता है। धरती पर सूर्यताप बढ़ने से समुद्र के जल का वाष्पन होने लगता है और फिर से धरती पर वर्षा होने की प्रक्रिया आरम्भ हो जाती है।
वस्तुतः कुंभज ऋषि द्वारा समुद्र को पीकर खाली करने, राजा भगीरथ द्वारा गंगाजी को धरती पर लाने एवं इन्द्र द्वारा धरती पर वर्षा आरम्भ करने के रूपक इन्हीं पर्यावरणीय घटनाओं का मानवीकरण करके लिखी गई प्रतीत होती हैं।
हमारे इस कथन का आशय यह कतई नहीं है कि कोई राजा भगीरथ नहीं हुए थे अथवा कोई अगस्त्य ऋषि नहीं हुए थे या कोई इन्द्र नामक देवता नहीं हुए थे। निःसंदेह वे सब हुए थे और उन्होंने पृथ्वी के कल्याण के लिए बहुत बड़े-बड़े कार्य किए थे तभी तो उन्हें और अधिक महान् बताने के लिए इतनी बड़ी घटनाओं का नायक भी ठहरा दिया गया। भारतीय संस्कृति राजा भगीरथ एवं महर्षि अगस्त्य की चिरकाल तक ऋणी रहेगी।
महर्षि अगस्त्य निःसंदेह एक ऐसे ऋषि हुए हैं जिन्होंने भारत को सभ्य एवं सुसंस्कृत बनाने में बहुत बड़ा योगदान दिया किंतु उनकी कथा हम इक्ष्वाकुवंशी राजा रामचंद्र के प्रसंग में बताने का प्रयास करेंगे।