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इस धारावाहिक की पिछली कथा में हमने चर्चा की थी कि जब युधिष्ठिर अपने भाइयों एवं महारानी द्रौपदी को साथ लेकर स्वर्ग जाने लगे तो उन्होंने अपने राज्य के दो भाग किए। पहला भाग भगवान श्रीकृष्ण की बहिन सुभद्रा के पौत्र परीक्षित को तथा दूसरा भाग श्रीकृष्ण के पौत्र वज्र को दिया।
जिस समय परीक्षित का राज्य चल रहा था उन्हीं दिनों धर्म ने बैल का रूप बना कर तथा पृथ्वी ने गाय का रूप धरकर सरस्वती नदी के तट पर भेंट की। धर्म ने पृथ्वी से पूछा- ‘हे देवि! आप इतनी चिंतित क्यों हैं? क्या आप इसलिए दुःखी हैं कि मेरा एक ही पैर बचा है?’
पृथ्वी बोली- ‘हे धर्म! आप सर्वज्ञ हैं। आप जानते हैं कि जब से भगवान् श्रीकृष्ण धरती से गये है मैं उनके निर्मल चरणों का स्पर्श पाने से वंचित हो गई हूँ। इसलिए मैं दुःखी दुखाई देती हूँ।’ जब धर्म और पृथ्वी ये बातें कर ही रहे थे कि मुकुटधारी चाण्डाल के रूप में कलियुग वहाँ आया और उन दोनों को डण्डे से मारने लगा। उसकी मार से धरती और धर्म भय से कांपते हुए कराहने लगे।
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संयोगवश राजा परीक्षित वहाँ से निकल रहे थे। उन्होंने एक मुकुटधारी चाण्डाल को हाथ में डण्डा लेकर एक गाय और एक बैल को बुरी तरह से पीटते हुए देखा।
राजा ने देखा कि श्वेत रंग का एक अत्यन्त सुन्दर बैल केवल एक ही पैर पर खड़ा हुआ मार खा रहा है तथा उसके पास खड़ी गाय भी कामधेनु के समान सुन्दर है। दोनों ही भयभीत होकर काँप रहे हैं किंतु वे उस चाण्डाल की मार से बचने का प्रयास नहीं कर रहे हैं।
महाराज परीक्षित ने चिल्लाकर कहा- ‘अरे दुष्ट! पापी! तू कौन है? इस निरीह गाय तथा इस लंगड़े बैल को क्यों सता रहा है? तू महान अपराधी है। तेरे अपराध का उचित दण्ड तेरा वध ही है।’ इतना कहकर राजा परीक्षीत ने उस चाण्डाल को मारने के लिए अपनी तलवार म्यान में से बाहर निकाल ली।
महाराज परीक्षित के क्रोध भरे वचनों को सुनकर तथा उनके हाथों में तलवार देखकर चाण्डाल रूपी कलियुग भय से काँपने लगा। उसने अपना मुकुट उतारकर फैंक दिया और भयभीत होकर राजा परीक्षित के चरणों में गिर गया और त्राहि-त्राहि करने लगा। कलियुग को राजा के चरणों में गिरा हुआ देखकर धर्म तथा पृथ्वी भी मनुष्य रूप में आ गए। उन तीनों ने राजा परीक्षित को अपना-अपना परिचय दिया।
सम्राट परीक्षित बोले- ‘हे कलियुग! तू मेरे शरण में आ गया है इसलिए मैंने तुझे प्राणदान दिया किन्तु अधर्म, पाप, झूठ, चोरी, कपट, दरिद्रता आदि अनेक उपद्रवों का मूल कारण केवल तू ही है। अतः तू मेरे राज्य से तुरन्त निकल जा और लौट कर फिर कभी मत आना।’
राजा परीक्षित के इन वचनों को सुनकर कलियुग ने कहा- ‘हे राजन्! यह समस्त पृथ्वी तो आपके ही राज्य में स्थित है और इस समय मेरा पृथ्वी पर होना काल के अनुरूप है, क्योंकि द्वापर समाप्त हो चुका है। अतः मैं इस धरती को छोड़कर नहीं जा सकता। आप मुझे रहने के लिए कोई स्थान दे दीजिए!’
कलियुग के यह कहने पर राजा परीक्षित सोच में पड़ गए। उन्होंने कहा- ‘हे कलियुग! द्यूत, मद्यपान, परस्त्रीगमन और हिंसा इन चार स्थानों में असत्य, मद, काम और क्रोध का निवास होता है। मैं तुझे इन चार स्थानों में निवास करने की अनुमति देता हूँ।’
इस पर कलियुग बोला- ‘राजन्! ये चार स्थान मेरे निवास के लिए अपर्याप्त हैं। दया करके कोई और स्थान भी मुझे दीजिये।’
इस पर राजा ने कलियुग से कहा- ‘तू स्वर्ण में निवास कर।’
राजा का उत्तर सुनकर कलियुग संतुष्ट हो गया। वह उसी समय अदृश्य हो गया तथा राजा परीक्षित के सिर पर रखे हुए स्वर्ण-मुकुट में बैठ गया। धर्म एवं धरती भी राजा के इस न्यायपूर्ण व्यवहार को देखकर संतुष्ट हो गए किंतु वे जान गए कि राजा परीक्षित ने कलियुग को जो पांच स्थान दिए हैं, उन्हें पाकर कलियुग अत्यंत प्रबल हो गया है किंतु वे यह भी जानते थे कि धरती पर कलियुग के निवास करने का समय आ गया है। उसे रोक पाना किसी के लिए भी संभव नहीं है। धरती और धर्म दोनों को अब कलियुग का अंकुश सहन करना ही होगा।
इस एक बार राजा परीक्षित आखेट हेतु वन में गए। वन्य-पशुओं के पीछे दौड़ने के कारण वे प्यास से व्याकुल हो गए तथा जल की खोज में घूमते हुए शमीक ऋषि के आश्रम में पहुँच गए। उस समय शमीक ऋषि नेत्र बंद करके ब्रह्मध्यान में लीन थे। राजा परीक्षित ने उनसे जल माँगा किन्तु ध्यानमग्न होने के कारण शमीक ऋषि ने कुछ भी उत्तर नहीं दिया।
राजा परीक्षित के मुकुट में कलियुग का वास हो चुका था किंतु राजा उससे अनभिज्ञ था। इसलिए उसने मुनि के इस आचरण को अपना अपमान समझा। कलियुग के प्रभाव से राजा को अत्यंत क्रोध आ गया। वह करणीय एवं अकरणीय का भेद भूल गया। राजा ने अपने अपमान का बदला लेने के उद्देश्य से पास ही पड़े हुए एक मृत-सर्प को अपने धनुष की नोंक से उठा कर ऋषि के गले में डाल दिया और वहाँ से अपनी राजधानी लौट गया।
शमीक ऋषि ध्यान में लीन थे, उन्हें अपने गले में डाले गए सर्प के बारे में ज्ञात नहीं हो पाया किन्तु उनके पुत्र ऋंगी ऋषि को इस बात का पता चल गया। उसे राजा परीक्षित पर बहुत क्रोध आया। ऋंगी ऋषि ने सोचा कि यदि यह अहंकारी राजा जीवित रहेगा तो इसी प्रकार ब्राह्मणों का अपमान करता रहेगा।
अतः ऋंगी ऋषि ने कमण्डल से अपनी अंजुली में जल लेकर राजा परीक्षित को श्राप दिया- ‘हे अधर्मी राजा! आज से सातवें दिन तुझे नागराज तक्षक अपने विष से जलाएगा!’
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता