पिछली कथा में हमने चर्चा की थी कि चंद्रवंशी पाण्डवों में केवल अर्जुन ही ऐसा था जिसे सशरीर स्वर्ग में प्रवेश करने एवं प्रवास करने का अवसर मिला था। जब पाण्डवों के वनवास एवं अज्ञातवास की अवधि समाप्त हो गई तो राजा कुरुद्वारा स्थापित किए गए धर्मक्षेत्र में महाभारत का भयानक युद्ध हुआ। इस क्षेत्र को कुरुक्षेत्र भी कहा जाता है।
महाभारत का युद्ध समाप्त होने के बाद महाराज युधिष्ठिर ने कुछ काल तक हस्तिनापुर पर शासन किया किंतु बाद में जब द्वारिका पुरी समुद्र में डूब गई तथा वृष्णिवंशी यादवों का संहार हो गया तब महाराज युधिष्ठिर ने अपने राज्य के दो भाग किए। उन्होंने अपने राज्य का एक भाग श्रीकृष्ण की बहिन सुभद्रा के पौत्र परीक्षित को दे दिया। उसकी राजधानी हस्तिनापुर में रखी गई। महाराज युधिष्ठिर ने राज्य का दूसरा भाग श्रीकृष्ण के पौत्र वज्र को दे दिया जिसकी राजधानी इन्द्रप्रस्थ में रखी गई।
दर्शकों को स्मरण होगा कि हमने पिछली एक कथा में युयुत्सु की चर्चा की थी। उसका जन्म धृतराष्ट्र की एक वैश्य पत्नी के गर्भ से हुआ था। धर्मराज युधिष्ठिर ने इसी युयुत्सु को हस्तिनापुर राज्य की रक्षा एवं देख भाल की जिम्मेदारी सौंपी ताकि वह राजा परीक्षित के कार्य में हाथ बंटा सके।
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इसके बाद पाण्डवों ने अपने राज्य का त्याग कर दिया और वे महारानी द्रौपदी को साथ लेकर पूर्व दिशा में स्थित वन के लिए प्रस्थान कर गए। सबसे आगे धर्मराज युधिष्ठिर, उनके पीछे धर्मात्मा भीमसेन, अर्जुन, नकुल और सहदेव चल रहे थे। सबसे पीछे महारानी द्रौपदी चल रही थीं। महाभारत में आए वर्णन के अनुसार अनेक नदियों एवं समुद्रों को पार करके वे लाल सागर के तट पर पहुंचे। अर्जुन का दिव्य धनुष गाण्डीव तथा अक्षय तूणीर अब भी अर्जुन के साथ थे।
जब पाण्डव लाल सागर पहुंचे तब वहाँ अग्निदेव ने एक पुरुष का वेश धरकर उनका मार्ग रोका। उन्होंने पाण्डवों से कहा- ‘मैं अग्नि हूँ। मैंने नरस्वरूप अर्जुन और नारायण स्वरूप श्रीकृष्ण के प्रभाव से खाण्डव वन का दहन किया था। अर्जुन को चाहिए कि वह अपना गाण्डीव त्याग दे क्योंकि अब उन्हें इस शस्त्र की कोई आवश्यकता नहीं है। इसे मैं ही अर्जुन के लिए वरुण देव से मांगकर लाया था। अतः अर्जुन इसे वरुण देव को लौट दें।’
अग्निदेव की बात सुनकर अर्जुन ने अपना गाण्डीव तथा अक्षय तूणीर जल को समर्पित कर दिए। इसके बाद अग्निदेव अंतर्धान हो गए तथा पाण्डव यहाँ से दक्षिण की ओर मुड़ गए। निश्चित रूप से नहीं कहा नहीं जा सकता कि महाभारत में आए इस प्रसंग में लाल सागर का तात्पर्य किस सागर से है किंतु अनुमान लगाया जा सकता है कि इसका तात्पर्य वर्तमान बंगाल की खाड़ी से होना चाहिए। क्योंकि यहाँ से वे दक्षिण दिशा में चलते हुए लवणसागर तक पहुंचे। लवण सागर का तात्पर्य हिन्द महासागर से होना चाहिए।
लवणसागर से पाण्डव पश्चिम की ओर मुड़े तथा कई दिनों तक चलते हुए द्वारिकापुरी तक जा पहुंचे। उन्होंने समुद्र में डूबी हुई द्वारिकापुरी को देखा तथा यहाँ से वे उत्तर दिशा में मुड़ गए। कई दिनों की यात्रा के बाद पाण्डवों ने हिमालय पर्वत के दर्शन किए। इस प्रकार पृथ्वी की परिक्रमा पूरी हो गई। इस वर्णन का तात्पर्य यह समझना चाहिए कि भारत वर्ष की परिक्रमा पूरी हो गई।
महाभारत में आए वर्णन के अनुसार पाण्डव हिमालय को लांघकर बालू के समुद्र तक पहुंचे। उसके बाद उन्होंने पर्वतों में श्रेष्ठ महागिरि सुमेरु के दर्शन किए। जिस समय का यह वर्णन है, उस समय धरती पर नदियों, समुद्रों एवं पर्वतों की स्थिति आज जैसी नहीं रही होगी। अतः हिमालय पर्वत को पार करके पाण्डवों ने जिस बालुकामय समुद्र के दर्शन किए, उसके बारे में अनुमान लगाया जाना कठिन है। संभवतः यह स्थान हिमालय के दूसरी ओर की तराई में स्थित था जहाँ आज चीन का रेगिस्तान पसरा हुआ है। यह भी संभव है कि तब यह रेगिस्तान हिमालय के अत्यंत निकट रहा हो।
सुमेरु पर्वत के दर्शनों के बाद पाण्डव और आगे चले। वे बड़े एकाग्रचित्त होकर एवं बड़ी तेजी से बढ़ रहे थे। उनके पीछे आती हुई महारानी द्रौपदी अचानक ही लड़खड़ाकर गिर पड़ी। उसे नीचे गिरी देखकर महाबली भीमसेन ने धर्मराज से पूछा- ‘भैया! राजकुमारी द्रौपदी ने कभी कोई पाप नहीं किया था, फिर बतलाइए, क्या कारण है कि यह नीचे गिर गई?’
युधिष्ठिर ने कहा- ‘नरश्रेष्ठ! इसके मन में अर्जुन के प्रति विशेष पक्षपात था, आज यह उसी का फल भोग रही है।’
यह कहकर धर्मात्मा युधिष्ठिर द्रौपदी की ओर देखे बिना ही अपने चित्त को एकाग्र करके आगे बढ़ गए। थोड़ी देर बाद माद्रीपुत्र सहदेव भी गिर गया। भीमसेन ने पुनः युधिष्ठिर से पूछा- ‘भैया! माद्रीनंदन सहदेव जो सदा हम लोगों की सेवा में संलग्न रहता था और अहंकार को कभी अपने पास नहीं फटकने देता था, आज क्यों धराशायी हुआ है?’
युधिष्ठिर ने कहा- ‘राजकुमार सहदेव किसी को भी अपने जैसा विद्वान् नहीं समझता था, इसलिए आज इसे गिरना पड़ा है।’
द्रौपदी और सहदेव को गिरे हुए देखकर नकुल भी शोक से व्याकुल होकर गिर पड़ा। यह देखकर भीमसेन ने पुनः राजा से प्रश्न किया- ‘भैया संसार में जिसके रूप की समानता करने वाला कोई नहीं था, जिसने कभी अपने धर्म में त्रुटि नहीं होने दी और जो सदा हम लोगों की आज्ञा का पालन करता था, वह हमारा प्रिय बंधु नकुल क्यों गिर पड़ा?’
इस पर महाराज युधिष्ठिर ने कहा- ‘भीमसेन! राजकुमार नकुल सदैव यही समझता था कि रूप में मेरे समान और कोई नहीं है। इसके मन में यह बात बैठी रहती थी कि मैं ही सबसे रूपवान हूँ। इसलिए इसको गिरना पड़ रहा है।’
उन तीनों को गिरे हुए देखकर वीर अर्जुन को भी बड़ा शोक हुआ और वह भी अनुताप के मारे गिर पड़ा। दुर्धर्ष वीर अर्जुन को धरती पर गिरे हुए देखकर और मरणासन्न हुआ जानकर भीमसेन ने पुनः महाराज युधिष्ठिर से प्रश्न किया- ‘भैया! महात्मा अर्जुन कभी परिहास में भी झूठ बोले हों, ऐसा मुझे याद नहीं आता। फिर यह किस कर्म का फल है जिससे उन्हें भी पृथ्वी पर गिरना पड़ा?’
युधिष्ठिर बोले- ‘अर्जुन को अपनी शूरता का अभिमान था। इन्होंने एक दिन कहा था कि मैं एक ही दिन में शत्रुओं को भस्म कर डालूंगा किंतु ऐसा किया नहीं। इसी से आज इन्हें धराशाही होना पड़ा है। इतना ही नहीं, इन्होंने समस्त धनुर्धरों का अपमान भी किया था। अतः अपना कल्याण चाहने वालों को ऐसा नहीं करना चाहिए।’ यों कहकर राजा युधिष्ठिर आगे बढ़ गए। ‘
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता