Friday, November 22, 2024
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35. भगवान शिव ने अर्जुन के लिए स्वर्ग के द्वार खोल दिए!

पिछली कथा में हमने भगवान शिव तथा अर्जुन के बीच हुए युद्ध की चर्चा की थी। भगवान के द्वारा किए गए घूंसे के प्रहार से अर्जुन बेसुध होकर धरती पर गिर गया। थोड़ी देर में जब उसकी चेतना लौटी तो अर्जुन ने भील से युद्ध करने के लिए भगवान शिव से शक्ति प्राप्त करने का निश्चय किया।

महाभारत में आए वर्णन के अनुसार उसने मिट्टी की एक वेदी बनाई तथा उस पर भगवान शंकर की स्थापना की। और भोलेनाथ की शरण ग्रहण करके उनकी पूजा करने लगा। अर्जुन ने भगवान की पिण्डी पर पुष्प चढ़ाया। वह पुष्प उस भील के सिर पर दिखाई दिया।

अर्जुन समझ गया कि यह भील कोई साधारण मनुष्य नहीं है, अवश्य ही कोई देवता है। अतः अर्जुन ने उस भील के चरणों में गिरकर उसे प्रणाम किया। इस पर भगवान शिव ने कहा- ‘हे अर्जुन तुम सनातन ऋषि हो, तुम्हारा और मेला बल एक समान है। मैं तुम्हें दिव्य ज्ञान देता हूँ जिसके बल पर तुम अपने शत्रुओं को जीत सकोगे।’ इतना कहकर भगवान भोलेनाथ माता पार्वती के साथ अपने दिव्य स्वरूप में प्रकट हो गए।

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 अर्जुन ने धरती पर गिरकर उन्हें प्रणाम किया।

भगवान शिव ने कहा- ‘तुम नारायण के नित्य सहचर हो। पुरुषोत्तम विष्णु और तुम्हारे परम तेज के आधार पर ही यह जगत् टिका हुआ है। इन्द्र के अभिषेक के समय तुमने और श्रीकृष्ण ने धनुष उठाकर दानवों का नाश किया था। आज मैंने माया से भील का रूप धरकर तुम्हारे गाण्डीव तथा अक्षय तरकस को छीन लिया है। तुम उन्हें वापस ले लो।’

भगवान शिव को प्रसन्न जानकर अर्जुन ने कहा- ‘भगवन्! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो आप मुझे पाशुपत अस्त्र दीजिए जिससे रणभूमि में एक साथ हजारों त्रिशूल, भयंकर गदाएं और सर्पाकार बाण निकलते हैं और जो प्रलय के समय जगत् का नाश करता है। मैं उस पाशुपत अस्त्र से भीष्म, द्रोण, कृपाचार्य और कटुवादी कर्ण के साथ लड़ूंगा।’

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भगवान् शंकर ने अर्जुन को गले लगा लिया और उससे कहा- ‘हे विष्णु के सहचहर अर्जुन! मैं तुझे अपना प्रिय पाशुपत अस्त्र देता हूँ क्योंकि तुम उसे उपयोग करने के अधिकारी हो। इन्द्र, यम, कुबेर, वरुण एवं वायुदेव भी इस अस्त्र के धारण, प्रयोग और उपसंहार करने में कुशल नहीं हैं। फिर मनुष्य तो भला जान ही कैसे सकते हैं। मैं तुम्हें यह अस्त्र देता हूँ किंतु तुम इसे किसी के ऊपर सहसा छोड़ मत देना। अल्पशक्ति मनुष्य के ऊपर इसका प्रयोग करने पर यह जगत् का नाश कर डालेगा। यदि संकल्प, वाणी, धनुष अथवा दृष्टि से किसी भी प्रकार शत्रु पर इसका प्रयोग हो तो यह उसका नाश कर डालता है।’

अर्जुन स्नान करके पवित्रता के साथ भगवान शंकर के पास आए और बोले- ‘अब मुझे पाशुपत अस्त्र की शिक्षा दीजिए।’

महादेव ने अर्जुन को पाशुपत अस्त्र के प्रयोग से लेकर उपसंहार तक का समस्त रहस्य समझा दिया। अब पाशुपत अस्त्र मूर्तिमान काल के समान अर्जुन के पास आया और अर्जुन ने उसे ग्रहण कर लिया। उस समय पर्वत, वन, समुद्र, नगर, गांव और खानों के साथ समस्त भूमि डगमगाने लगी।

भगवान शंकर ने अर्जुन को आज्ञा दी- ‘अब तुम स्वर्ग में जाओ।’ अर्जुन भगवान शंकर को प्रणाम करके वहीं खड़ा रहा। इस पर शंकर ने अर्जुन का गाण्डीव उठाकर अर्जुन को दे दिया और स्वयं आकाश मार्ग से चले गए।

अर्जुन भगवान शंकर के दर्शन करके स्वयं को कृताथ अनुभव करता हुआ वहीं खड़ा रहा। कुछ ही क्षणों में वरुण, कुबेर, यम तथा अनेक गुह्यक गंधर्व मंदराचल के तेजस्वी शिखर पर आकर उतरे। देवराज इन्द्र भी इन्द्राणी के साथ ऐरावत पर बैठकर आए।

यमराज ने अत्यंत मधुर वाणी में अर्जुन से कहा- ‘अर्जुन देखो, समस्त लोकपाल तुम्हारे पास आए हैं आज तुम हम लोगों के दर्शन के अधिकारी हो गए हो। इसलिए दिव्य दृष्टि लेकर हमारे दर्शन करो। तुम सनातन ऋषि नर हो, तुमने मनुष्य रूप में अवतार लिया है। अब तुम भगवान श्रीकृष्ण के साथ रहकर धरती का भार मिटाओ। मैं अपना यह दण्ड तुम्हें देता हूँ, जिसका कोई निवारण नहीं कर सकता।’

अर्जुन ने यमराज से वह दण्ड स्वीकार कर लिया। यमराज ने उसका मंत्र, पूजन-विधान तथा प्रयोग एवं उपसंहार की विधि भी अर्जुन को सिखा दी। इसके बाद वरुण ने कहा- ‘मेरी ओर देखो! मैं जलाधीश वरुण हूँ। मेरा वारुणपाश युद्ध में कभी निष्फल नहीं होता तुम इसे ग्रहण करो। तारकासुर के घोर संग्राम में मैंने इसी पाश से हजारों दैत्यों को पकड़कर कैद कर लिया था। तुम भी इसके माध्यम से चाहे जितने शत्रुओं को कैद कर सकते हो।’

इसके बाद तीसरे लोकपाल कुबेर ने कहा- ‘अर्जुन तुम भगवान के नर रूप हो! पहले कल्प में तुमने हमारे साथ बड़ा परिश्रम किया है। इसलिए तुम मुझसे अन्तर्धान नामक अनुपम अस्त्र ग्रहण करो। यह बल, परक्रम एवं तेज देने वाला अस्त्र मुझे बहुत ही प्यारा है। इससे शत्रु मूर्च्छित होकर मर जाते हैं। भगवान शंकर ने त्रिपुर नामक राक्षस का वध इसी अस्त्र से किया था।’

सबसे अंत में देवराज इन्द्र ने कहा- ‘प्रिय अर्जुन! तुम भगवान के नररूप हो, तुम्हें रिद्धि, सिद्धि तथा देवताओं की परम गति प्राप्त हो गई है। तुम्हें देवताओं के बड़े बड़े काम करने हैं और स्वर्ग भी चलना है। इसलिए तुम तैयार हो जाओ, सारथि मातलि तुम्हारे लिए रथ लेकर आएगा। उसी समय मैं तुम्हें दिव्य अस्त्र दूंगा।’

अर्जुन ने उन समस्त लोकपालों एवं गंधर्वों को प्रणाम किया। इसके बाद देवगण तो वहाँ से चले गए तथा अर्जुन मातलि की प्रतीक्षा में वहीं खड़ा रहा।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

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