पिछली कथा में हमने चर्चा की थी कि ब्रहृलोक जा रहे ऋषि-मुनियों ने महाराज पाण्डु के कोई पुत्र नहीं होने के कारण उन्हें अपने साथ ले जाने से मना कर दिया। इस बात से व्यथित होकर महाराज पाण्डु ने अपनी बड़ी रानी कुन्ती से कहा- ‘संतानहीन होने के कारण मेरा धरती पर जन्म लेना वृथा हो गया है क्योंकि सन्तानहीन व्यक्ति पितृ-ऋण से मुक्ति नहीं पा सकता। ऋषि किंदम द्वारा दिए गए श्राप के कारण मैं पुत्र भी उत्पन्न नहीं कर सकता, क्योंकि जब भी मैं तुम्हारे निकट आउंगा, मेरी उसी क्षण मृत्यु हो जाएगी।’
इस कथा को आगे बढ़ाने से पहले हमें महारानी कुंती के जीवन के पिछले भाग में चलना होगा। हम पूर्व की कथाओं में चर्चा कर चुके हैं कि कुंती, यदुवंशी नरेश शूरसेन की पुत्री थी। वह श्रीकृष्ण के पिता वसुदेव की बहन और भगवान श्रीकृष्ण की बुआ थी। नागवंशी महाराज कुन्तिभोज ने कुन्ती को गोद लिया था। इस कारण कुंती को पृथा भी कहा जाता था। भारतीय संस्कृति में कुंती को पंच-कन्याओं में से एक माना जाता है तथा उन्हें चिर-कुमारी कहा जाता है।
जब राजकुमारी कुंती अविवाहित थी तथा अपने पिता कुंतीभोज के घर में रहा करती थी, तब एक बार महर्षि दुर्वासा राजा शूरसेन के महलों में अतिथि बनकर आए। राजकुमारी कुंती ने दुर्वासा ऋषि की बड़ी सेवा की जिससे प्रसन्न होकर दुर्वासा ने कुंती को एक मंत्र दिया तथा उससे कहा कि इस मंत्र के माध्यम से कुंती जिस किसी भी देवता का आह्वान करेगी, वह देवता कुंती के अधीन हो जाएगा तथा उससे कुंती को उसी देवता के समान तेजस्वी पुत्र प्राप्त होगा।
एक बार कौमार्य अवस्था में ही कुंती ने कौतूहलवश भगवान सूर्य का आह्वान किया जिससे कुंती के पेट से कर्ण का जन्म हुआ। लोकलाज के भय से कुंती ने उस पुत्र को लकड़ी की पेटी में रखकर नदी में बहा दिया था। इस भेद को संसार में भगवान श्रीकृष्ण एवं भगवान सूर्य के अतिरिक्त और कोई नहीं जानता था।
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जब महाराज पाण्डु ने रानी कुंती के समक्ष अपनी निःसंतानअवस्था एवं अपनी विवशता प्रकट की तो कुंती ने महाराज पाण्डु को उस वरदान के बारे में बताया। इस पर महाराज पाण्डु ने कुंती से कहा- ‘तुम धर्मराज का ध्यान करके उनसे एक पुत्र प्राप्त करो। उनसे जो पुत्र उत्पन्न होगा, वह कभी भी अधर्म की ओर नहीं जाएगा।’
महाराज पाण्डु के आदेश पर महारानी कुंती ने दुर्वासा से प्राप्त मंत्र के माध्यम से धर्मराज का आह्वान किया। एक चमकीले रथ पर सवार धर्मराज कुंती के समक्ष प्रकट हुए। उन्होंने कुंती से पूछा- ‘मैं तुम्हारा क्या प्रिय करूं?’
कुंती ने उनसे एक पुत्र मांगा। धर्मराज की कृपा से कुंती को गर्भ रह गया तथा समय आने पर कुंती ने धर्मराज के समान ही तेजस्वी पुत्र को जन्म दिया। उस समय एक आकशवाणी हुई- ‘यह बालक धर्मात्मा मनुष्यों में श्रेष्ठ होगा तथा सम्पूर्ण धरती पर शासन करेगा। पाण्डु के इस पुत्र का नाम युधिष्ठिर होगा।’
कुछ दिनों बाद महाराज पाण्डु ने कुंती से कहा- ‘क्षत्रिय जाति बल-प्रधान है। इसलिए तुम एक ऐसा पुत्र उत्पन्न करो जो बलवान् हो।’
पति की आज्ञा पाकर कुंती ने वायुदेव का आह्वान किया। महाबली वायु ने कुंती के समक्ष प्रकट होकर उसे महाबलशाली पुत्र होने का वरदान दिया। जिस समय कुंती के इस पुत्र का जन्म हुआ, उस समय भी एक आकाशवाणी हुई- ‘पाण्डु का यह पुत्र बलवान पुरुषों का शिरोमणि होगा।’
जिस दिन वन में प्रवास कर रहे पाण्डु और कुंती के पुत्र भीमसेन का जन्म हुुआ, उसी दिन हस्तिनापुर के महलों में गांधारी के पुत्र दुर्योधन का भी जन्म हुआ। जब भीमसेन का जन्म हुआ, तब एक बाघ वहाँ आया। बाघ को देखकर कुंती अपने पुत्र भीमसेन को लेकर सुरक्षित स्थान के लिए भागी किंतु हड़बड़ाहट में बालक भीमसेन माता कुंती की गोद से फिसल गया। महाराज पाण्डु ने जब उस बालक को जाकर देखा, तो उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ। बालक तो जीवित था किंतु जिस चट्टान पर वह बालक गिरा था, वह चूर-चूर हो गई थी।
कुछ समय पश्चात् महाराज पाण्डु को चिंता हुई कि मुझे ऐसा पुत्र हो जो संसार में सर्वश्रेष्ठ माना जाए। देवताओं में सर्वश्रेष्ठ देवराज इन्द्र हैं, अतः महाराज पाण्डु ने कुंती से आग्रह किया कि वह एक वर्ष तक सत्य-निष्ठा पूर्वक व्रत करे। महाराज पाण्डु स्वयं भी एक वर्ष तक सूर्यदेव के समक्ष खड़े रहकर घनघोर तपस्या करते रहे। एक वर्ष की तपस्या के उपरांत देवराज इंद्र महाराज पाण्डु के समक्ष प्रकट हुए। महाराज पाण्डु ने इन्द्र से कहा- ‘मुझे ऐसा पुत्र चाहिए जो संसार भर में सर्वश्रेष्ठ हो।’
इस पर देवराज ने कहा- ‘मैं तुम्हारे तप से प्रसन्न हूँ। अतः तुम्हें ऐसा पुत्र पाने का वरदान देता हूँ जो विश्वविख्यात होगा, ब्राह्मण, गौ एवं श्रेष्ठजन का सेवक होगा और शत्रुओं का नाश करने वाला होगा।’
इंद्र को प्रसन्न जानकर महाराज पाण्डु ने महारानी कुंती से कहा- ‘तुम देवराज इंद्र का आह्वान करके उनसे एक पुत्र प्राप्त करो।’ इस पर कुंती ने इंद्र का आह्वान किया। देवराज इंद्र ने कुंती को अपने ही समान सर्वश्रेष्ठ पुत्र प्रदान किया।
अर्जुन के जन्म के समय आकाशवाणी हुई- ‘कुंती यह पुत्र कार्तवीर्य अर्जुन और भगवान शंकर के समान पराक्रमी तथा इन्द्र के समान अपराजित होकर अपनी माता का यश बढ़ाएगा। जैसे विष्णु ने अपनी माता अदिति को प्रसन्न किया था, वैसे ही यह तुम्हें प्रसन्न करेगा। यह बहुत से राजाओं पर विजय प्राप्त करके तीन अश्वमेध यज्ञ करेगा। स्वयं भगवान् रुद्र इसके पराक्रम से प्रसन्न होकर इसे रुद्रास्त्र प्रदान करेंगे। यह इन्द्र की आज्ञा से निवात कवच नामक असुरों को मारेगा और समस्त दिव्य अस्त्र-शस्त्रों को प्राप्त करेगा।’ इस आकाशवाणी के पूरे होते ही आकाश में दुंदुभि बजने लगी तथा पुष्पवर्षा होने लगी। इन्द्रादि देवगण, सप्तर्षि, प्रजापति, गंधर्व, अप्सरा आदि दिव्य वस्त्राभूषणों से सुसज्जित होकर अर्जुन के जन्म का आनंदोत्सव मनाने लगे।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता