पिछली कथा में हमने चर्चा की थी कि स्वर्ग से गिरते हुए राजा ययाति को अष्टक ऋषि ने आकाश में ही रोककर उससे इस प्रकार गिरने का कारण पूछा। जब अष्टक को लगा कि राजा ययाति सामान्य व्यक्ति नहीं है, वह ज्ञान और अनुभव की दृष्टि से अत्यंत परिपक्व है तो अष्टक ने ययाति से पूछा- ‘राजन्! किन कर्मों के अनुष्ठान से मनुष्य को श्रेष्ठ लोकों की प्राप्ति होती है? वे तप से प्राप्त होते हैं अथवा ज्ञान से?’
राजा ययाति ने उत्तर दिया- ‘स्वर्ग के सात द्वार हैं- दान, तप, शम, दम, लज्जा, सरलता और सब पर दया। अभिमान से तपस्या क्षीण हो जाती है। जो अपनी विद्वता के अभिमान में फूले-फूले फिरते हैं और दूसरों के यश को मिटाना चाहते हैं, उन्हें उत्तम लोकों की प्राप्ति नहीं होती। उनकी विद्या भी उन्हें मोक्ष नहीं दिलवा सकती। अभय के चार साधन हैं- अग्निहोत्र, मौन, वेदाध्ययन और यज्ञ। यदि अनुचित रीति से और अहंकार पूर्वक उनका पालन होता है तो ये भय के कारण बन जाते हैं। सम्मानित होने पर सुख नहीं मानना चाहिए और अपमानित होने पर दुःखी नहीं होना चाहिए। जगत् में ऐसे लोगों की पूजा सत्पुरुष करते हैं। दुष्टों से शिष्ट बुद्धि की चाह निरर्थक है। मैं दूंगा, मैं यज्ञ करूंगा, मैं जान लूंगा, मेरी यह प्रतिज्ञा है, इस तरह की बातें बड़ी भयंकर हैं। इनका त्याग ही श्रेयस्कर है।’
अष्टक ने पूछा- ‘ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यासी किन धर्मों का पालन करने से मृत्यु के बाद सुखी होते हैं?’
ययाति ने कहा- ‘जो ब्रह्मचारी आचार्य के आज्ञानुसार अध्ययन करता है, जिसे गुरुसेवा के लिए आज्ञा नहीं देनी पड़ती, जो आचार्य के जागने से पहले जागता और पीछे सोता है, जिसका स्वभाव मधुर होता है, जो इन्द्रियजयी, धैर्यशाली, सावधान तथा प्रमाद-रहित होता है, उसे शीघ्र ही सिद्धि प्राप्त होती है। जो पुरुष धर्मानुकूल धन अर्जित करके यज्ञ करता है, अतिथियों को खिलाता है, किसी की वस्तु बिना उसके दिए नहीं लेता, वही सच्चा गृहस्थ है। जो स्वयं उद्योग करके फल-मूल से अपनी जीविका चलाता है, पाप नहीं करता, दूसरों को कुछ न कुछ देता रहता है, तथा किसी को कष्ट नहीं पहुंचाता, थोड़ा खाता और नियमित चेष्टा करता है, वह वानप्रस्थी शीघ्र सिद्धि प्राप्त कर लेता है। जो किसी कला-कौशल, भाषण, चिकित्सा, कारीगरी आदि से जीविका नहीं चलाता, समस्त सद्गुणों से युक्त जितेन्द्रिय, और असंग है, किसी के घर नहीं रहता, थोड़ा चलता है, अनेक देशों में अकेले और नम्रता के साथ विचरण करता है, वह सच्चा संन्यासी है।’
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इस प्रकार और बहुत सी वार्ता के बाद ययाति ने कहा- ‘देवता लोग शीघ्रता करने के लिए कह रहे हैं, मैं अब गिरूंगा, इन्द्र के वरदान से मुझे आप जैसे सत्पुरुषों का समागम प्राप्त हुआ है।’
अष्टक ने कहा- ‘स्वर्ग में मुझे जितने लोक प्राप्त होने वाले हैं, अंतरिक्ष में अथवा सुमेरु पर्वत के शिखरों पर जहाँ भी मुझे पुण्यकर्मों के फलस्वरूप जाना है, उन्हें मैं आपको देता हूँ, आप गिरें नहीं।’
ययाति ने कहा- ‘मैं ब्राह्मण तो हूँ नहीं, दान कैसे लूं? इस प्रकार के दान तो मैंने भी पहले बहुत से किए हैं।’
इस पर राजऋषि प्रतर्दन ने कहा- ‘मुझे अंतरिक्ष अथवा स्वर्ग लोक में जिन-जिन लोकों की प्राप्ति होने वाली है, मैं आपको देता हूँ। आप यहाँ न गिरें, स्वर्ग में जाएं।’
ययाति ने कहा- ‘कोई भी राजा अपने समकक्ष व्यक्ति से दान नहीं ले सकता। क्षत्रिय होकर दान लेना यह तो बड़ा अधर्म का कार्य है। अब तक किसी श्रेष्ठ क्षत्रिय ने ऐसा काम नहीं किया है। फिर मैं ही कैसे करूं?’
राजा ययाति की बात सुनकर वसुमान् ने कहा- ‘राजन्! मैं अपने सभी लोक आपको देता हूँ। आप यदि इसे दान समझकर लेने में संकोच करते हैं तो एक तिनके के बदले में यह सब खरीद लीजिए।’
ययाति ने कहा- ‘यह क्रय-विक्रय तो सर्वथा मिथ्या है। मैंने अब तक ऐसा मिथ्याचार कभी नहीं किया है। कोई भी सत्पुरुष ऐसा नहीं करता। मैं ऐसा कैसे करूं?’
शिबि ने कहा- ‘मैं औशीनर शिबि हूँ। आप यदि क्रय-विक्रय नहीं करना चाहते तो मेरे पुण्यों का फल स्वीकार कीजिए। मैं इन्हें आपको भेंट करता हूँ। आप न भी लें तो भी मैं इन्हें स्वीकार नहीं करता।’
ययाति ने कहा- ‘तुम बड़े प्रभावशाली हो परंतु मैं दूसरों के पुण्य-फल का भोग नहीं करता।’
अष्टक ने कहा- ‘अच्छा महाराज! आप एक-एक के पुण्यलोक नहीं लेते तो आप हम सभी के पुण्यलोक एक साथ ले लीजिए। हम आपको अपना समस्त पुण्यफल देकर नरक जाने को भी तैयार हैं।’
ययाति ने उत्तर दिया- ‘भाई! तुम लोग मेरे स्वरूप के अनुरूप प्रयत्न करो। सत्यपुरुष तो सत्य के ही पक्षपाती होते हैं। मैंने जो कभी नहीं किया, वह अब कैसे करूं?’
अष्टक ने कहा- ‘महाराज! आकाश में ये पांच स्वर्णरथ किसके दिखाई दे रहे हैं? क्या इन्हीं के द्वारा पुण्यलोकों की यात्रा होती है?’
ययाति ने कहा- ‘हाँ, ये स्वर्णरथ तुम लोगों को पुण्य लोकों में ले जाएंगे।
अष्टक ने कहा- ‘आप इन रथों के द्वारा स्वर्ग की यात्रा कीजिए, हम बाद में आ जाएंगे।’
ययाति बोले- ‘हम सभी ने स्वर्ग पर विजय प्राप्त कर ली। इसलिए चलो हम सब साथ ही चलें। देखते नहीं, वह स्वर्ग का प्रशस्त पथ दिख रहा है।’
अष्टक, प्रदर्दन, वसुमान् और शिबि द्वारा अपने पुण्य लोकों को राजा ययाति के कल्याणार्थ दान करने की इच्छा व्यक्त करने के कारण वे सभी तपस्वी राजा स्वर्ग लोक के अधिकारी हो गए थे तथा राजा ययाति द्वारा उनका प्रतिग्रह स्वीकार नहीं करने के कारण ययाति भी स्वर्ग के अधिकारी हो गए थे। अतः वे सभी पुण्यात्मा उन दिव्य रथों पर बैठकर स्वर्ग के लिए चल पड़े।
मार्ग में औशीनर शिबि का रथ सबसे आगे चलने लगा तो अष्टक ने ययाति से पूछा- ‘राजन्! इन्द्र मेरा मित्र है, मैं समझता था कि इन्द्र के पास सबसे पहले मैं ही पहुंचूंगा किंतु राजा शिबि का रथ सबसे आगे क्यों चल रहा है?’
इस पर ययाति ने कहा- ‘शिबि ने अपना सर्वस्व सत्पात्रों को दे दिया था। दान, तपस्या, सत्य, धर्म, ह्रीं, श्री, क्षमा, सौम्यता, सेवा की अभिलाषा ये सभी गुण शिबि में विद्यमान हैं। अभिमान की छाया उन्हें छू तक नहीं गई है। इसी से वह सबसे आगे बढ़ गया है।’
इस पर अष्टक ने पूछा- ‘राजन्! सच बताइए, आप कौन हैं तथा किसके पुत्र हैं? क्योंकि ऐसा तेज न तो किसी क्षत्रिय में है और न किसी ब्राह्मण में?’
ययाति ने कहा- ‘अष्टक! मैं सम्राट नहुष का पुत्र ययाति हूँ। किसी समय मैं धरती पर सार्वभौम चक्रवर्ती सम्राट था।’
इस प्रकार वार्तालाप करते हुए वे सभी पुण्यात्मा राजा स्वर्गलोक में प्रवेश कर गए।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता