पिछली कथा में हमने चर्चा की थी कि देवयानी के शिकायत करने पर दैत्यगुरु शुक्राचार्य के शाप से राजा ययाति बूढ़ा हो गया।
राजा ययाति ने भयभीत होकर कहा- ‘हे दैत्यगुरु! आपकी पुत्री के साथ विषय-भोग करते हुए अभी मेरी तृप्ति नहीं हुई है। इस शाप के कारण तो आपकी पुत्री का भी अहित है। कृपया मेरा यौवन लौटा दीजिए।’
राजा की बात सुनकर शुक्राचार्य ने कहा- ‘मैं तुझे तेरा यौवन नहीं लौटा सकता किंतु यदि कोई तुझे प्रसन्नतापूर्वक अपनी यौवनावस्था दे तो तू उसके साथ अपनी वृद्धावस्था को बदल सकता है।’
नहुष का पुत्र ययाति अत्यंत प्रतापी राजा था। एक बार देवराज इंद्र ने राजा ययाति से प्रसन्न होकर उसे स्वर्णनिर्मित दिव्य रथ प्रदान किया था जिसमें उत्तम एवं श्वेतवर्ण के घोड़े जुते हुए थे। उसकी गति कहीं भी अवरुद्ध नहीं होती थी। उसी रथ के द्वारा वह अपनी भार्याओं को ब्याहकर लाया था। उस दिव्य रथ की सहायता से राजा ययाति ने छः रातों में ही सम्पूर्ण धरती, देव एवं दानवों को जीत लिया था।
उसी रथ पर राजा ययाति अपनी भार्याओं को बैठाकर लाया था।
राजा ययाति ने समुद्र और सातों द्वीपों सहित समस्त पृथ्वी को जीतकर उसे अपने अधीन किया था किंतु अचानक ही वृद्धावस्था आ जाने से यह समस्त ऐश्वर्य अब राजा के किसी काम का नहीं रहा था। असमय ही वृद्धावस्था आ जाने से भोग-विलास से राजा की तृप्ति नहीं हुई थी। इसलिए ययाति ने अपनी राजधानी पहुंचकर अपने अस्त्र-शस्त्रों का त्याग कर दिया तथा अपने पुत्रों को अपने निकट बुलाया।
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ययाति ने अपने राज्य के पांच भाग किए तथा उन भागों को अपने पांचों पुत्रों में बांट दिया। राजा ने बड़े पुत्र यदु को दक्षिण-पश्चिमी क्षेत्र तथा तुर्वसु को दक्षिण-पूर्वी भाग प्रदान किया। पुरु को गंगा-यमुना दोआब का आधा दक्षिण प्रदेश, अनु को पुरु राज्य का उत्तरी क्षेत्र और द्रह्यु को पश्चिमी क्षेत्र प्रदान किया।
अपने राज्य का विभाजन करने के बाद ययाति ने अपने बड़े पुत्र यदु से कहा- ‘पुत्र! दीर्घकालीन यज्ञों के अनुष्ठान के कारण तथा दैत्यगुरु शुक्राचार्य के श्राप के कारण मेरे काम और अर्थ नष्ट हो गए हैं किंतु मेरी इच्छाएं पूरी नहीं हुई हैं। अब मुझे तुम्हारी युवावस्था चाहिए। तुम मेरा बुढ़ापा ग्रहण करो और मैं तुम्हारे रूप से तरुण होकर रमणीय युवतियों के साथ इस पृथ्वी पर विचरण करूंगा।’
तब यदु ने अपने पिता से कहा- ‘महाराज मैंने एक ब्राह्मण को मुँहमांगी भिक्षा देने की प्रतिज्ञा कर ली है। उसने अभी तक मुझे स्पष्ट रूप से बताया नहीं है कि उसे क्या वस्तु चाहिए। मैं जब तक उसकी भिक्षा का ऋण नहीं उतार लूं, तब तक मैं आपका बुढ़ापा नहीं ले सकता। राजन् बुढ़ापे में खान-पान सम्बन्धी बहुत से दोष हैं, अतः मैं आपका बुढ़ापा नहीं ले सकूंगा। आपके तो बहुत से पुत्र हैं जो आपको मुझसे भी बढ़कर प्रिय हैं, अतः महाराज जरावस्था ग्रहण करने के लिए आप किसी दूसरे पुत्र का वरण कीजिए!’
यदु के ऐसा कहने पर राजा ययाति कुपित हो गया और यदु की निंदा करते हुए बोला- ‘दुबुर्द्धे! मेरा अनादर करके तेरा दूसरा कौनसा आश्रय है? मैं तो तेरा गुरु हूँ! मूढ़ नराधम! तेरी संतान सदैव राज्य से वंचित रहेगी।’
इसके बाद राजा ययाति ने अपने अन्य पुत्रों तुर्वसु, द्रह्यु और अनु से भी यौवन मांगा परन्तु उन्होंने भी अपने पिता की बात मानने से मना कर दिया। राजा ययाति ने उन्हें भी वैसा ही श्राप दे दिया और सबसे अंत में शर्मिष्ठा के पुत्र पुरु को बुलाया तथा उससे कहा- ‘तू मेरा बुढ़ापा ले ले और मुझे अपना यौवन दे दे।’
यह सुनकर प्रतापी पुरु ने अपना यौवन अपने पिता को दे दिया और उसका बुढ़ापा स्वयं ने ले लिया जिससे ययाति तरुण होकर पृथ्वी पर विचरण करने लगा। एक बार राजा ययाति चैत्ररथ नामक वन में गया। वहाँ उसकी भेंट विश्वाची नामक अप्सरा से हुई। राजा ययाति विश्वाची के साथ रमण करने लगा। जब दोनों को रमण करते हुए एक हजार वर्ष बीत गए, तब भी राजा को भोग-विलास करने से तृप्ति नहीं हुई। इस पर राजा फिर से पुरु के पास आया और उससे अपना बुढ़ापा वापस ले लिया।
राजा ययाति ने अपने अनुभव के आधार पर पुरु को उपदेश दिया- ‘भोगों की इच्छा उन्हें भोगने से कभी शांत नहीं होती। अपितु घी से आग की भांति और भी बढ़ती ही जाती है। इस पृथ्वी पर जितने भी धान, जौ, सुवर्ण, पशु तथा स्त्रियां हैं, वे सब एक पुरुष के लिए पर्याप्त नहीं हैं। ऐसा जान लेने पर विद्वान पुरुष कभी भोग में नहीं पड़ते। जब जीव मन, वाणी और क्रिया द्वारा किसी भी प्राणी के प्रति पापबुद्धि नहीं करता, तब वह ब्रह्मभाव को प्राप्त हो जाता है। जब वह दूसरे प्राणियों से नहीं डरता, जब उससे भी दूसरे प्राणी नहीं डरते तथा जब वह इच्छा एवं द्वेष से रहित हो जाता है, उस समय ब्रह्मभाव को प्राप्त होता है। खोटी बुद्धि वाले पुरुषों द्वारा जिसका परित्याग होना कठिन है, जो मनुष्य के बूढ़े होने पर भी स्वयं बूढ़ी नहीं होती तथा जो प्राणनाशक रोग के समान है, उस तृष्णा का त्याग करने वाले को ही सुख मिलता है। बूढ़े होने वाले मनुष्य के बाल सफेद हो जाते हैं तथा दांत गिर जाते हैं किंतु धन और जीवन की अभिलाषा बनी रहती है। संसार में जो कामजनित सुख हैं तथा जो दिव्य महान् सुख हैं, वे सब मिलकर भी उस सुख से छोटे हैं जो तृष्णा के समाप्त हो जाने से मिलता है।’
ऐसा कहकर राजर्षि ययाति अपनी दोनों रानियों सहित वन में चला गया। उसने भृगुतुंग नामक पर्वत शिखर पर दीर्घकाल तक भारी तपस्या की तथा वहीं पर अपनी देह त्याग दी। ययाति के पांचों पुत्रों ने अपने-अपने नाम से राजवंशों की स्थापना की। यदु से यादव, तुर्वसु से यवन, द्रहुयु से भोज, अनु से म्लेच्छ और पुरु से पौरव वंश की स्थापना हुई। पुरु के वंश में भरत और भरत के कुल में राजा कुरु हुए।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता