देवयानी द्वारा दैत्यराज वृषपर्वा के राज्य का त्याग कर दिए जाने पर दैत्यगुरु शुक्राचार्य दैत्यराज वृषपर्वा के पास आए तथा उससे क्रोधपूर्ण स्वर में कहने लगे- ‘राजन्! जो अधर्म करते हैं, उन्हें चाहे तत्काल उसका फल न मिले किंतु धीरे-धीरे अधर्म उनकी जड़ काट डालता है। एक तो तुम लोगों ने बृहस्पति के सेवापरायण पुत्र कच की बार-बार हत्या की और उसके बाद मेरी पुत्री की हत्या की भी चेष्टा की। अब मैं तुम्हारे देश में नहीं रह सकता। मैं तुम्हें छोड़कर जा रहा हूँ। तुम मुझे व्यर्थ बकवाद करने वाला समझते हो, इसी से अपने अपराध को न रोककर मेरी उपेक्षा कर रहे हो।’
वृषपर्वा ने कहा- ‘भगवन् मैंने तो कभी आपको झूठा या अधार्मिक नहीं माना। आपमें सत्य और धर्म प्रतिष्ठित हैं। यदि आप हमें छोड़कर चले जाएंगे तो हम समुद्र में डूब मरेंगे। आपके अतिरिक्त हमारा और कोई सहारा नहीं है।’
शुक्राचार्य ने कहा- ‘चाहे तुम समुद्र में डूब मरो अथवा अज्ञात देश में चले जाओ, मैं अपनी प्यारी पुत्री का तिरस्कार नहीं कर सकता। मेरे प्राण उसी में बसते हैं। तुम अपना भला चाहते हो तो उसे प्रसन्न करो।’
शुक्राचार्य को क्रोधित देखकर दैत्यराज वृषपर्वा अत्यंत चिंतित हुआ तथा शुक्राचार्य से बारम्बार क्षमा मांगने लगा।
दैत्युगुरु शुक्राचार्य ने कहा- ‘हे दैत्यराज! मैं आपसे किसी भी प्रकार से रुष्ट नहीं हूँ किन्तु मेरी पुत्री देवयानी अत्यन्त रुष्ट है। यदि तुम उसे प्रसन्न कर सको तो मैं तुम्हें क्षमा कर दूंगा।’
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दैत्यराज वृषपर्वा ने देवयानी के पास जाकर कहा- ‘हे देवी! मैं तुम्हें मुंह-मांगी वस्तु दूंगा, प्रसन्न हो जाओ।’
देवयानी ने कहा- ‘राजन्! आपकी पुत्री शर्मिष्ठा एक हजार दासियों के साथ मेरी सेवा करे। जहाँ मैं जाऊं, वह मेरा अनुगमन करे।’
वृषपर्वा ने अत्यंत कष्ट के साथ देवयानी की इस शर्त को स्वीकार कर लिया क्योंकि वह अच्छी तरह जानता था कि यदि शुक्राचार्य दैत्यों को छोड़कर चले गए तो दैत्यों को देवताओं के हाथों से बचाने वाला कोई नहीं मिलेगा।
इसलिए वृषपर्वा ने धात्री के द्वारा शर्मिष्ठा के पास संदेश भेजा- ‘कल्याणी! दैत्यजाति के हित के लिए देवयानी की दासी बन जाओ अन्यथा दैत्यगुरु शुक्राचार्य अपने शिष्यों को छोड़कर चले जाएंगे। इससे सम्पूर्ण दैत्य जाति ही संकट में पड़ जाएगी।’
शर्मिष्ठा ने अपने पिता से कहलवाया- ‘पिताजी मुझे आपका आदेश स्वीकार है। आचार्य शुक्राचार्य और उनकी पुत्री देवयानी से कहें कि वे यहाँ से न जाएं।’
दैत्यराज वृषपर्वा के आदेश से शर्मिष्ठा देवयानी के पास गई और उससे प्रार्थना करने लगी- ‘मैं सदा तुम्हारे पास रहकर तुम्हारी सेवा करूंगी। तुम यहाँ से मत जाओ।’
इस पर देवयानी ने कहा- ‘क्यों मैं तो तुम्हारे पिता के भिखमंगे भाट की बेटी हूँ और तुम बड़े बाप की बेटी हो। अब मेरी दासी बनकर कैसे रहोगी?’
इस पर शर्मिष्ठा बोली- ‘जैसे बने विपद्ग्रस्त स्वजन की रक्षा करनी चाहिए। यही सोचकर मैं तुम्हारी दासी हो गई हूँ।’ मैं तुम्हारे विवाह के पश्चात् भी तुम्हारे साथ चलकर तुम्हारी सेवा करूंगी। शर्मिष्ठा की इस बात पर देवयानी संतुष्ट हो गई तथा अपने पिता शुक्राचार्य के साथ वृषपर्वा के राज्य में रहने को तैयार हो गई।
कुछ समय पश्चात् देवयानी के अनुरोध पर शुक्राचार्य ने देवयानी का विवाह राजा ययाति के साथ कर दिया। इस पर शर्मिष्ठा भी देवयानी के साथ उसकी दासी के रूप में ययाति के भवन में आ गई। कुछ समय पश्चात् देवयानी पुत्रवती हुई। राजा ययाति के देवयानी से दो पुत्र हुए- यदु और तुर्वसु।
एक दिन राजा ययाति अशोक वाटिका में गया। वहाँ शर्मिष्ठा अपनी दासियों के साथ निवास करती थी। शर्मिष्ठा ने राजा को एकांत में देखा तो वह राजा के निकट जाकर कहने लगी- ‘जैसे चन्द्रमा, इन्द्र, विष्णु, यम और वरुण के महल में कोई भी स्त्री सुरक्षित रह सकती है, वैसे ही मैं आपके यहाँ सुरक्षित हूँ। यहाँ मेरी ओर कौन दृष्टि डाल सकता है! आप मेरा रूप, कुल और शील तो जानते ही हैं। यह मेरे ऋतु का समय है। मैं आपसे उसकी सफलता के लिए प्रार्थना करती हूँ। आप मुझे ऋतुदान दीजिए।’
राजा ययाति ने शर्मिष्ठा के कथन का औचित्य स्वीकार कर लिया तथा उसकी इच्छा पूर्ण कर दी। राजा ययाति के शर्मिष्ठा से तीन पुत्र हुए- द्रह्यु, अनु और पुरु। इस प्रकार बहुत समय बीत गया। एक बार रानी देवयानी राजा ययाति के साथ अशोक वाटिका में घूमने गई। वहाँ देवयानी ने शर्मिष्ठा के तीन सुंदर पुत्रों को देखा।
देवयानी ने राजा ययाति से पूछा- ‘देवकुमारों के समान ये तीन सुंदर पुत्र किसके हैं? इनका रूप और सौंदर्य तो आपके समान है।’ राजा ने देवयानी की बात का कोई उत्तर नहीं दिया।
इस पर देवयानी ने बच्चों से पूछा- ‘तुम्हारे माता-पिता कौन हैं?’
बच्चों ने अंगुलियों के संकेत से अपनी माता शर्मिष्ठा की ओर संकेत किया। जब बच्चे दौड़कर राजा के पास आए तो राजा कुछ लज्जित सा दिखाई देने लगा और उसने बच्चों को गोद में नहीं लिया। बच्चे रोते हुए अपनी माँ के पास चले गए। इस पर देवयानी पूरी बात समझ गई।
देवयानी ने शर्मिष्ठा से कहा- ‘शर्मिष्ठा! तू मेरी दासी है, तूने मेरा अप्रिय क्यों किया? तेरा आसुरी स्वभाव गया नहीं? तू मुझसे डरती नहीं?’
शर्मिष्ठा ने कहा- ‘मैंने राजा के साथ जो समागम किया है, वह धर्म और न्याय के अनुसार है। मैंने तो तुम्हारे साथ ही उन्हें अपना पति मान लिया था।’
इस पर देवयानी ने राजा से कहा- ‘आपने मेरे साथ अन्याय किया है। अब मैं यहाँ नहीं रहूँगी।’ वह आंखों में आंसू भरकर अपने पिता के घर के लिए चल पड़ी। ययाति भी भयभीत होकर उसके पीछे-पीछे चल पड़ा।
देवयानी ने शुक्राचार्य के पास पहुंचकर कहा- ‘पिताजी! अधर्म ने धर्म को जीत लिया। शर्मिष्ठा मुझसे आगे बढ़ गई। उसे मेरे पति से तीन पुत्र हुए हैं। मेरे धर्मज्ञ पति ने धर्म का उल्लंघन किया है। आप इस पर विचार कीजिए।’
इस पर शुक्राचार्य ने राजा ययाति से कहा- ‘ययाति! तू स्त्री-लम्पट है। इसलिए मैं तुझे शाप देता हूँ, तुझे तत्काल वृद्धावस्था प्राप्त हो।’
शुक्राचार्य के श्राप देते ही ययाति तत्काल बूढ़ा हो गया। यह देखकर ययाति के शोक का पार नहीं रहा।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता