दिल्ली के सुल्तान इब्राहीम लोदी ने अपने कुछ विद्रोही अमीरों के विरुद्ध सैनिक कार्यवाही करने का प्रयास किया तो कुछ अन्य अमीरों ने भी सुल्तान से विद्रोह कर दिया। इस पर इब्राहीम लोदी ने एक विशाल सेना लेकर बागी अमीरों की सेनाओं पर हमला बोला। इस कारण दिल्ली सल्तनत की सेनाएं आपस में ही कटकर मर गईं। सुल्तान को अपने बागी अमीरों पर विजय तो मिली किंतु अब दिल्ली सल्तनत की सैन्य-शक्ति अपने न्यूनतम स्तर पर जा पहुंची थी।
उन्हीं दिनों पंजाब के सूबेदार दौलत खाँ तथा इब्राहीम के चाचा आलम खाँ ने समरकंद के शासक बाबर को भारत पर आक्रमण करने का निमंत्रण दिया। इन अमीरों का विचार था कि बाबर अपने पूर्वजों चंगेज खाँ तथा तैमूर लंग की तरह भारत की सम्पदा लूटकर वापस अपने देश लौट जाएगा तथा अफगान अमीरों का लोदी सुल्तानों से पीछा छूट जाएगा।
बाबर मूलतः समरकंद तथा फरगना का शासक था किंतु जब उसके चाचाओं और मामाओं ने उसे समरकंद तथा फरगना से निकाल दिया तो वह काबुल आ गया था। बाबर को भारत की राजनीतिक दुरावस्था का ज्ञान था। इस कारण उसकी दृष्टि बहुत दिनों से भारत पर लगी हुई थी। जब उसे अफगान अमीरों की ओर से निमंत्रण मिला तो ई.1524 में बाबर ने पंजाब पर आक्रमण किया।
बाबर ने लाहौर तथा दिपालपुर पर अधिकार कर लिया। इसी बीच बाबर को बल्ख की रक्षा के लिए काबुल लौटना पड़ा। ई.1525 में बाबर ने फिर से पंजाब के लिए प्रस्थान किया। दिसम्बर 1525 में उसने पजंाब में प्रवेश किया। पंजाब में अपनी स्थिति सुदृढ़ कर लेने के उपरान्त बाबर ने दिल्ली की ओर प्रस्थान किया तथा पानीपत पहुँच कर डेरा डाला।
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दिल्ली का सुल्तान इब्राहीम लोदी भी अपनी सेना लेकर आ गया। बाबर ने अपनी आत्मकथा में अपने सैनिकों की संख्या 12 हजार तथा इब्राहीम लोदी के सैनिकों की संख्या एक लाख बताई है। यह संभव है कि बाबर के पास केवल 12 हजार सैनिक हों किंतु इब्राहीम के पास उस समय एक लाख सैनिक नहीं थे। ‘दिल्ली के तोमर’ नामक ग्रंथ में हरिहर निवास द्विवेदी ने लिखा है कि इब्राहीम ने जितने सैनिक ग्वालियर-आक्रमण के समय जुटाए थे, उतने सैनिक वह पानीपत के लिए नहीं जुटा सका था।
‘तारीखेशाही’ के लेखक अब्दुल्ला ने लिखा है- ‘सुल्तान की अधिकांश सेना मारी गई, जो सुल्तान से रुष्ट थी, बिना लड़े ही भाग गई। सुल्तान अपने थोड़े से आदमियों के साथ खड़ा रहा। महमूद खाँ ने उसे रणक्षेत्र से भाग जाने की सलाह दी किंतु इब्राहीम ने कहा कि अच्छा तो यही है कि हम तथा हमारे मित्र सब एक ही स्थान पर धूल एवं रक्त में मिल जाएं।’
इब्राहीम के इन मित्रों में ग्वालियर का पूर्व शासक विक्रमादित्य तोमर भी था किंतु अब्दुल्ला ने अपनी पुस्तक में उसका नाम तक नहीं लिखा।
भीषण संग्राम के उपरान्त इब्राहीम की सेना परास्त हो गई। 20 अप्रेल 1526 को इब्राहीम लोदी युद्ध क्षेत्र में ही मारा गया।
बाबर ने अपने संस्मरणों में लिखा है- ‘ताहिर तीबरी इब्राहीम का सिर काटकर लाया। उसका सिर लाश के एक ढेर में मिल गया था।’
अबुलफजल ने अकबरनामा में लिखा है- ‘सुल्तान इब्राहीम एक कौने में मारा गया।’
अब्दुल्ला ने लिखा है- ‘वह शोकप्रद दृश्य देखकर बाबर कांप उठा और इब्राहीम के शरीर को मिट्टी में से उठाकर कहा, तेरी वीरता को धन्य है। उसने आदेश दिया कि जरवफ्त के थान लाए जाएं और मिश्री का हलुआ तैयार किया जाए तथा सुल्तान के जनाने को नहला कर वहाँ दफ्न किया जाए, जहाँ वह शहीद हुआ था।’
अब्दुल्ला तथा अबुल फजल ने तो राजा विक्रमादित्य के बारे में कुछ नहीं लिखा किंतु बाबर ने उसके बारे में एक पंक्ति अवश्य लिखी है। बाबर लिखता है- ‘सुल्तान इब्राहीम की पराजय में ग्वालियर का राजा विक्रमादित्य नरकगामी हो गया था।’
खड्गराय ने लिखा है- ‘जिन थोड़े से मित्रों के साथ इब्राहीम ने रण में आहुत दी, उनमें एक विक्रमादित्य भी था।’
नियामतुल्ला ने लिखा है- ‘इब्राहीम की मजार पर बहुत से मुसलमान शुक्रवार के दिन एकत्रित हुआ करते थे और नरवर तथा कन्नौज के यात्री भी श्रद्धांजलि अर्पित करने आते थे।’
पानीपत में आज भी इब्राहीम लोदी की एक मजार स्थित है किंतु एक भी तोमर वीर की समाधि नहीं है। तोमरों की कोई समाधि वहाँ पर बनी भी नहीं थी।
युद्ध की समाप्ति के बाद बाबर मृतक शत्रुओं के सिरों का चबूतरा बनवाया करता था जिसे मुडचौरा कहा जाता था। पानीपत में भी उसने मुडचौरा बनवाया। चूंकि इस युद्ध में शत्रुओं के सिर कम थे इसलिए दोनों ओर के मृतकों के सिरों से मुडचौरा बनवाया गया।
इब्राहीम लोदी, दिल्ली सल्तनत का तीसरा और अन्तिम लोदी शासक था। मुस्लिम इतिहासकारों के अनुसार वह दानशील, संगीत-प्रेमी तथा विद्वानों का आश्रयदाता था। उसमें साहस, शौर्य तथा बुद्धि का भी प्राचुर्य था किंतु इब्राहीम लोदी का सम्पूर्ण जीवन चरित्र पढ़ने से अनुमान हो जाता है कि वह घमण्डी, जिद्दी तथा अनुदार व्यक्ति था। किसी पर भी दया नहीं करता था और किसी से भी उसे सहानुभूति नहीं थी। वह जिस व्यक्ति से अप्रसन्न हो जाता था, उसे कभी क्षमा नहीं करता था। चूंकि वह स्वयं किसी के भी साथ धोखा कर सकता था, किसी को भी मरवा सकता था, इसलिए वह किसी भी व्यक्ति पर विश्वास नहीं करता था, चाहे वह कितना ही सगा क्यों न हो।
इब्राहीम लोदी ने सुल्तान की शक्ति को प्रबल बनाने का प्रयास किया परन्तु इस प्रयास में उसने अफगान अमीरों को अपना शत्रु बना लिया। इससे सल्तनत की सैनिक शक्ति का आधार ही खिसक गया। वह राणा सांगा को नहीं दबा सका। इस कारण राणा सांगा ने चन्देरी पर अधिकार कर लिया और बयाना तथा आगरा पर भी शिकंजा कस लिया।
इब्राहीम लोदी बिहार तथा पंजाब के प्रांतपतियों को भी नहीं दबा सका। बिहार में स्वतन्त्र राज्य की स्थापना हो गई और पंजाब के प्रांतपति ने बाबर को देश पर आक्रमण करने के लिए बुला लिया। अंततः बाबर ने न केवल लोदी सल्तनत को अपितु दिल्ली सल्तनत को ही सदैव के लिए ध्वस्त कर दिया।
पंजाब के सूबेदार दौलत खाँ और इब्राहीम लोदी के चाचा आलम खाँ का अनुमान था कि बाबर वापस काबुल चला जाएगा किंतु उनके अनुमान गलत सिद्ध हुए।
वस्तुतः इब्राहीम लोदी स्वयं तो अपनी असफलताओं के लिए दोषी था ही किंतु साथ ही वह पूरा युग और उसकी परिस्थितयाँ भी उसकी असफलताआंे के लिए जिम्मेदार थे। अफगान सरदारों में भी अपने सुल्तान के प्रति वफादार रहने तथा सल्तनत को मजबूत बनाने के लिए पर्याप्त विवेक नहीं था। वे अपने स्वार्थ में डूबे हुए थे और सल्तनत की जड़ों पर चोट कर रहे थे।
महाराणा सांगा जैसे शक्तिशाली प्रतिद्वंद्वी का उदय और बाबर जैसे दुर्दान्त आक्रांता का आक्रमण भी युगीन परिस्थितियों की देन थे जिन पर इब्राहीम लोदी विजय प्राप्त नहीं कर सका। हालांकि ग्वालियर के तोमरों पर दिल्ली सल्तनत की विजय इब्राहीम लोदी को उसके दादा बहलोल लोदी और पिता सिकंदर लोदी से अधिक रणप्रिय सिद्ध करती है।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता