दिल्ली के सुल्तान इब्राहीम लोदी ने ग्वालियर के दुर्ग पर विजय प्राप्त करके राजा विक्रमादित्य तोमर को शम्साबाद का जागीरदार बना दिया किंतु विक्रमादित्य शम्साबाद जाने की बजाय अपने परिवार को लेकर आगरा के किले में रहने लगा।
इस काल में दिल्ली सल्तनत की सीमा चित्तौड़ राज्य से लगती थी। उन दिनों महाराणा सांगा चित्तौड़ पर राज्य करता था। भारत के इतिहास में महाराणा सांगा अपनी तरह का अकेला वीर हुआ है। उसका पूरा जीवन युद्ध के मैदानों में बीता था और उसके शरीर में घावों के अस्सी निशान थे जो उसे युद्धों के मैदानों से मिले थे। इन युद्धों में राणा सांगा ने अपनी एक आँख, एक पैर और एक हाथ गंवाए थे।
जिस तरह लोदी सुल्तान भारत के हिन्दू राजाओं को समाप्त करके दिल्ली सल्तनत को फिर से, अल्लाउद्दीन खिलजी और मुहम्मद बिन तुगलक कालीन सल्तनत की तरह विशाल बनाना चाहते थे, उसी तरह महाराणा सांगा का स्वप्न था कि भारत से म्लेच्छों का राज्य समाप्त करके फिर से हिन्दू राज्य की स्थापना की जाए।
इसलिए महाराणा सांगा ने इब्राहीम लोदी के पिता सिकंदर लोदी के समय से ही दिल्ली सल्तनत के इलाके छीनने आरम्भ कर दिए थे और सिकंदर लोदी महाराणा के विरुद्ध कोई कार्यवाही नहीं कर पाया था। फिर भी सिकंदर लोदी ने चंदेरी पर अधिकार करके मेवाड़ के विरुद्ध अपनी स्थिति मजबूत कर ली थी।
जब सिकंदर के बाद इब्राहीम लोदी दिल्ली का शासक हुआ तो भी महाराणा सांगा की कार्यवाहियां जारी रहीं। इस कारण इब्राहीम लोदी और महाराणा सांगा की महत्त्वाकांक्षाएं आपस में टकरा गईं। इब्राहीम के सुल्तान बनते ही महाराणा सांगा ने हाड़ौती की सीमा पर स्थित खातोली गांव के निकट इब्राहीम लोदी की सेना में कसकर मार लगाई।
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इब्राहीम लोदी तो युद्ध क्षेत्र से जान बचाकर भाग गया किंतु उसका एक शहजादा, महाराणा सांगा के हाथों पकड़ा गया जिसे सांगा ने कुछ दिनों बाद उदारता दिखाते हुए जीवित ही छोड़ दिया। इस युद्ध में महाराणा सांगा का बायां हाथ तलवार से कट गया और घुटने में एक तीर लगने से वह सदा के लिये लंगड़ा हो गया।
ई.1518 में सुल्तान इब्राहीम लोदी की सेना ने पुनः मेवाड़ पर आक्रमण किया। दोनों पक्षों में धौलपुर के निकट लड़ाई हुई। महाराणा ने सुल्तान की सेना को युद्ध के मैदान से भाग जाने पर विवश कर दिया तथा भागती हुई सेना का बयाना तक पीछा किया। इस युद्ध के परिणाम स्वरूप मालवा की तरफ का कुछ भाग, दिल्ली सल्तनत से निकल कर मेवाड़ राज्य को मिल गया।
अब इब्राहीम स्वयं राणा का सामना करने के लिए आगे बढ़ा। इस युद्ध में किसी भी पक्ष को सफलता नहीं मिली और दोनों ओर की सेनाएँ पीछे हट गईं। कुछ समय उपरान्त राणा ने चन्देरी पर अधिकार कर लिया और इब्राहीम लोदी उसे वापस लेने में असमर्थ रहा।
उन्हीं दिनों जब मालवा के सुल्तान महमूद खिलजी (द्वितीय) के विरुद्ध उसके अमीरों ने षड़यंत्र किया तो महमूद माण्डू से भाग निकला। अमीरों ने उसके भाई साहिब खाँ को मालवा का सुल्तान बना दिया। ऐसी स्थिति में मेदिनीराय नामक एक हिन्दू सरदार ने महमूद (द्वितीय) की बड़ी सहायता की तथा साहिब खाँ को परास्त करके महमूद को फिर से मालवा का सुल्तान बना दिया।
महमूद ने मेदिनीराय को मालवा राज्य का प्रधानमंत्री बना लिया। मालवा के विद्रोही अमीरों ने दिल्ली के सुल्तान इब्राहीम लोदी से यह कहकर सहायता मांगी कि मालवा का राज्य हिन्दुओं के हाथों में चला गया है तथा महमूद तो नाम मात्र का सुल्तान रह गया है।
इस पर दिल्ली के सुल्तान इब्राहीम लोदी ने साहिब खाँ को 12 हजार सैनिकों की एक सेना दी। उसकी सहायता के लिये गुजरात का सुल्तान मुजफ्फर भी मालवा की ओर बढ़ा। मेदिनीराय ने इन दोनों सेनाओं को पराजित कर दिया और मालवा में महमूद (द्वितीय) का राज्य स्थिर कर दिया।
निराश अमीरों ने मेदिनीराय के विरुद्ध महमूद (द्वितीय) के कान भरने शुरू कर दिये। इस पर महमूद (द्वितीय) ने मेदिनीराय को मारने का षड़यंत्र रचा। इस षड़यंत्र के कारण मेदिनीराय बुरी तरह घायल हो गया किंतु जीवित बच गया। इसके बाद मेदिनीराय सतर्क रहने लगा तथा 500 राजपूतों के साथ सुल्तान के महल में जाने लगा। इस पर महमूद भयभीत होकर गुजरात भाग गया।
महमूद ने गुजरात के सुल्तान मुजफ्फर को अपने साथ लेकर माण्डू पर आक्रमण किया। इस पर मेदिनीराय माण्डू दुर्ग की रक्षा का भार अपने पुत्र को सौंपकर, महाराणा सांगा से सहायता मांगने के चित्तौड़ पहुंचा। महाराणा ने मेदिनीराय के साथ माण्डू को प्रस्थान किया किंतु मार्ग में ज्ञात हुआ कि मुजफ्फरशाह ने कई हजार राजपूतों को मारकर माण्डू पर अधिकार कर लिया है तथा महमूद (द्वितीय) को फिर से मालवा का सुल्तान बना दिया है।
महाराणा सांगा मेदिनीराय को लेकर चित्तौड़ लौट आया और उसने गागरौन एवं चंदेरी के दुर्ग मेदिनीराय को जागीर में दे दिए। ई.1519 में माण्डू के सुल्तान महमूद (द्वितीय) ने गुजरात की सेना के भरोसे, गागरौन पर चढ़ाई की। गागरौन पर इस समय मेदिनीराय का प्रतिनिधि भीमकरण दुर्गपति के रूप में नियुक्त था। महाराणा सांगा ने भी अपनी सेना लेकर महमूद के विरुद्ध प्रस्थान किया। सांगा ने मालवा के तीस सरदार मार डाले तथा गुजरात की समस्त सेना को नष्ट कर दिया। गुजरात का सेनापति आसफ खाँ बुरी तरह घायल हुआ तथा उसका पुत्र मारा गया।
मालवा का सुल्तान महमूद (द्वितीय) भी युद्ध क्षेत्र में घायल होकर गिर गया। महाराणा ने उसे युद्ध के मैदान से उठवाकर अपने तम्बू में पहुंचाया तथा उसके घावों का उपचार करवाकर अपने साथ चित्तौड़ ले गया और कैद में रख दिया। जिस समय मालवा का सुल्तान राणा सांगा के हाथों कैद हुआ उस समय महमूद के पास एक रत्नजटित मुकुट और सोने की कमरपेटी भी थे। सांगा ने सुल्तान से ये दोनों वस्तुएं ले लीं तथा महमूद को मुक्त कर दिया।
ई.1520 में गुजरात तथा मालवा ने मिलकर एक साथ महाराणा सांगा पर चढ़ाई की किंतु सांगा ने उन्हें परास्त कर दिया। कुछ समय बाद गुजरात के सुल्तान मुजफ्फरशाह का पुत्र बहादुरशाह अपने दो भाइयों चांद खाँ तथा इब्राहीम खाँ के साथ महाराणा की शरण में आया। महाराणा ने बहादुरशाह तथा उसके भाइयों को उनके परिवारों सहित सम्मानपूर्वक अपने पास रखा।
जब दिल्ली के सुल्तान इब्राहीम लोदी ने ग्वालियर पर अधिकार कर लिया तब महाराणा सांगा और इब्राहीम लोदी के बीच युद्ध की भूमिका नए सिरे से तैयार हो गई। इसका कारण यह था कि महाराणा सांगा मालवा के खिलजी राज्य को नष्ट करके उसे मेवाड़ में मिलाना चाहता था जबकि दिल्ली का सुल्तान इब्राहीम लोदी भी यही सपना देख रहा था।
इस प्रकार उस काल में दिल्ली, गुजरात, मालवा तथा मेवाड़ की राजनीतिक स्थिति इतनी भयानक हो गई थी कि जो दिल्ली सल्तनत मालवा एवं गुजरात के स्वतंत्र मुस्लिम राज्यों को फूटी आँख नहीं देख सकती थी, वह दिल्ली अब उन दोनों राज्यों की संरक्षक बनने का प्रयास करने लगी तथा महाराणा सांगा अकेला ही इन तीनों मुस्लिम राज्यों से मोर्चा ले रहा था। कर्नल टॉड के अनुसार सांगा ने दिल्ली एवं मालवा के सुल्तानों से 18 लड़ाइयां लड़ीं।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता