दिल्ली के सुल्तान इब्राहीम लोदी ने ग्वालियर दुर्ग पर विजय प्राप्त करके राजा विक्रमादित्य तोमर को शम्साबाद का जागीरदार बना दिया किंतु विक्रमादित्य शम्साबाद जाने की बजाय अपने परिवार को लेकर आगरा के किले में रहने लगा।
हरिहर निवास द्विवेदी ने लिखा है कि धुरमंगद चम्बल की अपनी पुरानी गढ़ियों में चले गए और विक्रमादित्य अपने छोटे भाई अजीतसिंह तथा अपने पुत्र रामसिंह आदि को लेकर सुल्तान इब्राहीम के साथ आगरा चला गया। राजा विक्रमादित्य ग्वालियर से शम्साबाद क्यों नहीं गया, इसका कारण यह था कि राजा विक्रमादित्य के पास इतने सैनिक नहीं बचे थे जिनकी सुरक्षा में वह अपने परिवार को लेकर शम्साबाद जा सके।
मार्ग में विकट जंगल थे जिनमें अनेक लुटेरी जातियां निवास करती थीं। ऐसे बहुत से राज्य और गढ़ थे जिन्हें विक्रमादित्य के पूर्वजों ने एवं स्वयं राजा विक्रमादित्य ने भी कई बार दण्डित किया था। यदि उन्हें पता लग जाता कि राजा विक्रमादित्य बिना सेना के ही अपने परिवार एवं सम्पत्ति के साथ शम्साबाद जा रहा है, तो राजा एवं राजपरिवार का शम्साबाद तक जीवित पहुंचना संभव नहीं था।
यदि राजा विक्रमादित्य शम्साबाद पहुंच भी जाता और एक जागीरदार के रूप में वहाँ रहता, तो भी उसके शत्रु उसे शम्साबाद में नष्ट कर देते, राजा विक्रमादित्य अपनी तथा अपने परिवार की रक्षा नहीं कर सकता था। उस काल में राजा तथा उसका परिवार तभी तक सुरक्षित होते थे जब तक कि उसका किला, उसकी सेना तथा उसका कोष उसके अधिकार में रहते थे।
इसलिए राजा विक्रमादित्य अपने परिवार को साथ लेकर इब्राहीम लोदी के संरक्षण में ग्वालियर से आगरा पहुंचा। इब्राहीम लोदी ने भी विक्रमादित्य के सम्मान की रक्षा करते हुए उसके परिवार को ससम्मान आगरा के दुर्ग में रहने की व्यवस्था कर दी।
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गोस्वामी तुलसीदासजी ने ठीक ही लिखा है- ‘तुलसी नर का क्या बड़ा, समय बड़ा बलवान!’ राजा विक्रमादित्य पर यह कहावत बिल्कुल सही बैठती थी। यह आगरा का वही दुर्ग था जिसे विक्रमादित्य के पुरखों ने बनाया था। आज उसी दुर्ग में तोमर राजपरिवार अनुगत के रूप में शरण लेने के लिए आया था।
ऐतिहासिक घटनाचक्र के आधार पर प्रतीत होता है कि विक्रमादित्य अपने परिवार एवं निजी सम्पत्ति के साथ आगरा के किले में ही रहता रहा। राजा विक्रमादित्य ने सुल्तान इब्राहीम की निष्ठापूर्वक सेवा की। जब ई.1526 में बाबर ने भारत पर हमला किया तब इब्राहीम लोदी को आगरा का किला छोड़कर पानीपत के मैदान में जाना पड़ा, तब इब्राहीम लोदी का सबसे बड़ा सहायक यही राजा विक्रमादित्य था। इब्राहीम लोदी ने अपने परिवार एवं अपने कोष को विक्रमादित्य के छोटे भाई अजीतसिंह के संरक्षण में छोड़ा तथा स्वयं राजा विक्रमादित्य को लेकर पानीपत चला गया।
जब लड़ाई आरम्भ हुई तो बाबर की तोपों की मार से बचने के लिए सुल्तान के मुस्लिम सैनिक मैदान से भाग छूटे। तारीखे शाही के लेखक अब्दुल्ला ने लिखा है कि सुल्तान की सेना सुल्तान से रुष्ट थी। इसलिए युद्ध के मैदान से भाग खड़ी हुई। सुल्तान के मुट्ठी भर सैनिक ही बचे। राजा विक्रमादित्य एवं उसके सैनिक शरीर में प्राण रहने तक अंत तक मैदान में टिके रहे।
तारीखे शाही के लेखक अब्दुल्ला ने इस युद्ध का वर्णन करते हुए छोटी-छोटी बातों के विवरण दिए हैं किंतु उसने राजा विक्रमादित्य के बलिदान का उल्लेख तक नहीं किया जबकि अन्य लेखकों ने विक्रमादित्य के बलिदान की भूरि-भूरि प्रशंसा की है। 20 अप्रेल 1526 को राजा विक्रमादित्य इब्राहीम लोदी की ओर से लड़ता हुआ पानीपत के मैदान में काम आया। इब्राहीम भी जीवित नहीं बच सका। हम इस युद्ध की चर्चा आगे चलकर यथास्थान करेंगे।
जब कुछ दिनों बाद हुमायूं आगरा पर अधिकार करने पहुंचा, तब विक्रमादित्य का परिवार लाल किले में ही रह रहा था। विक्रमादित्य की विधवा रानी ने हुमायूं के पास संदेश भिजवाया कि यदि हुमायूं तोमर राजपरिवार को मुक्त करके चित्तौड़ जाने दे तो इसके बदले में रानी, हुमायूं को प्रचुर सम्पत्ति अर्पित करेगी। हुमायूं ने विक्रमादित्य की विधवा रानी का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया तथा रानी से धन लेकर उसे तथा उसके परिवार को चित्तौड़ चले जाने की अनुमति प्रदान कर दी।
कुछ ग्रंथों के अनुसार जब राजा विक्रमादित्य का परिवार अपने स्वामिभक्त सैनिकों की सुरक्षा में आगरा से चित्तौड़ जा रहा था, तब किसी ने हुमायूं से शिकायत की कि रानी ने हुमायूं को जो धन दिया है, वह बहुत तुच्छ है क्योंकि रानी के पास संसार का सबसे कीमती हीरा मौजूद है। हुमायूं के सैनिकों ने रानी तथा उसके परिवार को मार्ग में ही जा घेरा तथा उससे हीरे की मांग की। रानी ने वह हीरा भी हुमायूं को समर्पित कर दिया। हुमायूं ने वह हीरा अपने पिता बाबर को समर्पित कर दिया। बाबर ने उस हीरे को ‘कोहेनूर’ अर्थात् ‘प्रकाश का पर्वत’ कहकर पुकारा तथा उसका मूल्य संसार के ढाई दिन के भोजन के व्यय के बराबार आंका तथा हीरा फिर से अपने पुत्र हुमायूं को दे दिया।
जब तोमर राजपरिवार चित्तौड़ पहुंचा तो चित्तौड़ के महाराणा सांगा ने उन्हें राजाओं की तरह चित्तौड़ दुर्ग के महलों में रखा। रानी के का पुत्र रामशाह बड़ा होकर चित्तौड़ के महाराणा की सेवा में रहने लगा। आगे चलकर जब ई.1576 में महाराणा प्रताप तथा अकबर के बीच हल्दीघाटी का युद्ध हुआ तब विक्रमादित्य का पुत्र रामशाह तोमरों का राजा था। उसे महाराणा प्रताप की ओर से अपनी सेना के रख-रखाव हेतु वेतन मिलता था।
हल्दीघाटी के युद्ध के समय रामशाह तोमर पर्याप्त वृद्ध हो चुका था। फिर भी रामशाह तोमर के नेतृत्व में तोमरों ने महाराणा प्रताप की तरफ से अकबर के विरुद्ध युद्ध किया। हल्दीघाटी के युद्ध में सिसोदियों से भी अधिक रक्त तोमरों ने बहाया था। राजा रामशाह ने अपने तीनों पुत्रों एवं कुल के अनेक पुरुषों सहित बलिदान दिया। मानो ऐसा करके तोमरों ने अपने पूर्वजों का, अपने शत्रु के रक्त से पिण्डदान किया था। उनके महान बलिदान की चर्चा फिर कभी अवसर आने पर करेंगे।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता