दिल्ली के सुल्तान इब्राहीम लोदी ने ग्वालियर के दुर्ग पर चार सालों से घेरा डालकर बैठे आजम हुमायूं शेरवानी को दिल्ली बुलाकर कैद कर लिया तथा स्वयं एक सेना लेकर ग्वालियर पहुंचा। इब्राहीम लोदी की सेना ने ग्वालियर दुर्ग के पांच द्वारों में से एक बादलगढ़ को तोड़ने में सफलता प्राप्त कर ली।
इसी के साथ तोमरों की पराजय निश्चित जान पड़ने लगी किंतु अभी तोमर हार मानने को तैयार नहीं थे। यद्यपि बादलगढ़ के युद्ध में तोमरों की सेना का एक बड़ा भाग काम आ चुका था तथापि अभी ग्वालियर दुर्ग के चार द्वार सुरक्षित थे। जिस प्रकार दुर्ग की दीवारों में बारूद भरकर बादलगढ़ तोड़ा गया, उसी प्रकार गणेशपौर तथा भैंरोंपौर भी तोड़ी गईं किंतु तोमर सैनिकों ने एक-एक सीढ़ी के लिए युद्ध किया तथा अपने प्राणों की आहुति दी।
लक्ष्मण पौर पर यह युद्ध अपने चरम पर पहुंच गया। यहाँ इतना भीषण युद्ध हुआ कि दोनों ही तरफ के सिपाही अपने प्राणों का मोह छोड़कर केवल मरने के लिए लड़ने लगे। इब्राहीम लोदी का एक प्रमुख अमीर ताज निमाज भी लक्ष्मण पौर पर लड़ता हुआ मारा गया किंतु अंत में लक्ष्मण पौर टूट गई। अब केवल हथिया पौर ही सुरक्षित बची थी। जीवित बचे हुए तोमर सैनिक हथिया पौर के पीछे एकत्रित हो गए।
अब तक ग्वालियर के किले में ग्वालियर नगर से रसद आ रही थी किंतु सुल्तान की सेना ने रसद आपूर्ति के मार्ग का पता लगा लिया तथा दुर्ग में पहुंच रही रसद की आपूर्ति बंद कर दी। अब तक युद्ध को चलते हुए लगभग चार साल हो चुके थे। अतः दुर्ग में रसद की कमी चल रही थी। रसद आपूर्ति के बिल्कुल बंद हो जाने से दुर्ग में स्थित हिन्दू सैनिकों एवं उनके परिवारों की हालत खराब होने लगी।
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कुछ तत्कालीन लेखकों ने लिखा है कि मेवाड़ के महाराणा सांगा ने ग्वालियर की सहायता करने का प्रयास किया किंतु वे किले में सहायता पहुंचाने में सफल नहीं हो सके। महाराणा को लगता था कि ग्वालियर का युद्ध उस मोड़ पर पहुंच चुका है, जहाँ से उसके भाग्य को बदला नहीं जा सकता था। इसलिए महाराणा सांगा ने स्वयं को इस युद्ध से दूर रखने का निर्णय लिया।
ग्वालियर दुर्ग की अंतिम पौर अर्थात् हथिया पौर की स्थिति इस प्रकार की थी कि वहाँ तक न तो दुश्मन की तोपें पहुंच सकती थीं, न साबात बनाई जा सकती थी और न दीवारों में बारूद भरी जा सकती थी। इस कारण इब्राहीम लोदी को जीती हुई बाजी हाथ से जाती हुई दिखाई देने लगी किंतु इस समय तक ग्वालियर के अधिकांश सैनिक मारे जा चुके थे और दुर्ग के भीतर रसद पूरी तरह समाप्त हो गई थी। इस कारण राजा विक्रमादित्य तोमर इस युद्ध को और लम्बा नहीं खींच सकता था।
राजा विक्रमादित्य की हालत इतनी खराब हो चुकी थी कि इस समय उसके पास न तो दुर्ग में घिरे हुए मनुष्यों को खिलाने के लिए अनाज बचा था और न दुर्ग में बंधे हुए पशुओं को खिलाने के लिए चारा बचा था। अधिकांश लोग मर चुके थे, जो जीवित थे, बुरी तरह घायल थे। बहुत से मनुष्य एवं पशु भूख और बीमारी के कारण अंतिम सांसें गिन रहे थे और तिल-तिल करके मौत के मुख में जा रहे थे।
राजा समझ चुका था कि मनुष्यों एवं पशुओं को खोने के बाद अब उसके पास ऐसा कुछ भी नहीं बचा था जिसके सहारे वह इस युद्ध को जीत सके। इसलिए राजा विक्रमादित्य ने इब्राहीम लोदी के पास संधि का प्रस्ताव भिजवाया। जिन तोमरों के भय से दिल्लीपति को नींद नहीं आती थी और लोदी सैनिक पैर फैलाकर नहीं सोते थे, उन्हीं तोमरों की ओर से आया समर्पण का यह प्रस्ताव किसी अच्छे सपने के सच होने जैसा था।
इब्राहीम लोदी की बांछें खिल गईं। उसने कल्पना भी नहीं की थी कि तोमरों का राज्य सचमुच ही उसकी झोली में आ गिरेगा! उसने राजा विक्रमादित्य के प्रस्ताव को स्वीकार करते हुए उसे उत्तर भिजवाया कि वह किला खाली करके अपने परिवार एवं सम्पत्ति के साथ शम्साबाद चला जाए तथा सुल्तान की नौकरी करना स्वीकार करे।
विक्रमादित्य के पास इस अपमानजनतक शर्त को स्वीकार करने के अतिरिक्त केवल मृत्यु का ही मार्ग शेष बचा था किंतु उसने दुर्ग में जीवित बचे मनुष्यों एवं पशुओं के प्राणों की रक्षा के लिए सुल्तान द्वारा भिजवाए गए अपमानजनक आदेश को स्वीकार कर लिया।
एक बार फिर ग्वालियर दुर्ग की तलहटी में इब्राहीम लोदी का दरबार सजा। अमीरों ने सुल्तान को जीत की बधाई दी तथा राजा विक्रमादित्य बिना हथियारों एवं बिना अनुचरों के, सिर झुकाकर सुल्तान के दरबार में उपस्थित हुआ। सुल्तान ने राजा को शम्साबाद जाने की आज्ञा दी।
शम्साबाद ग्वालियर से लगभग डेढ़ सौ मील (240 किलोमीटर) तथा आगरा से लगभग एक सौ मील (160 किलोमीटर) दूर स्थित था किंतु राजा विक्रमादित्य ने सुल्तान से प्रार्थना की कि वह शम्साबाद जाने की बजाय सुल्तान के साथ आगरा चलना चाहता है। सुल्तान ने राजा विक्रमादित्य की यह प्रार्थना स्वीकार कर ली।
इस प्रकार ई.1523 में तोमरों को हमेशा के लिए ग्वालियर छोड़ देना पड़ा। मध्यएशिया से अफगानिस्तान के रास्ते भारत में आए तुर्क आक्रांताओं के समक्ष भारत के जिन राजवंशों को सर्वाधिक हानि उठानी पड़ी थी, उनमें से तोमर राजवंश भी था। उनसे दिल्ली छिन चुकी थी, आगरा छिन चुका था और अब ग्वालियर भी छिन रहा था। ग्वालियर का महान तोमर राजा दिल्ली के सुल्तान का छोटा सा जागीरदार बनकर रह गया।
जो राजा विक्रमादित्य संसार में किसी के सामने खड़ा नहीं होता था, अब उसे दिल्ली के सुल्तान के समक्ष खड़े ही रहना था। जो विक्रमादित्य अपनी मर्जी के बिना कहीं नहीं जाता था, अब उसे दिल्ली के सुल्तान के संकेत पर चाकरों की तरह दौड़ लगानी थी। ग्वालियर के तोमरों का सवा सौ साल पुराना गौरवशाली इतिहास अब नेपथ्य में जा रहा था।
काल के प्रवाह में भारत के राजकुलों का गौरव भाप बनकर उड़ रहा था। फिर भी वे विगत आठ सौ सालों से मुस्लिम सुल्तानों से लड़ रहे थे। भारत के क्षत्रिय मरना जानते थे, उन्हें प्राणों का मोह नहीं था। युद्धस्थल उनके लिए सर्वाधिक प्रिय स्थान था, इसीलिए वे आठ सौ सालों से युद्ध के मैदानों में टिके हुए थे। फिर भी कहीं कुछ गड़बड़ अवश्य थी। उनमें एकता नहीं थी। उनमें से प्रत्येक राजंवश स्वयं को सबसे बड़ा मानता था, संभवतः इसीलिए प्रत्येक हिन्दू राजवंश अकेला था, उनका कोई स्वाभाविक और नैसर्गिक मित्र नहीं था।
इतिहासकार भले ही महाराणा सांगा की ओर से कुछ भी सफाई क्यों न दें किंतु इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि यदि महाराणा सांगा ने भारत के अन्य हिन्दू राजाओं को साथ लेकर उसी समय दिल्ली की सेना को ग्वालियर के घेरे में घेर लिया होता तो भारत का भाग्य बदल सकता था किंतु भारत के हिन्दू राजवंश कभी एक नहीं हो सके। यदि हुए भी तो कुछ ही समय में फिर से बिखर गए। यही कारण था कि भारत के क्षत्रिय लड़ते थे, मरते थे किंतु जीतते नहीं थे।
कुछ समय बाद जब बाबर ने राजपूतों के विरुद्ध कई युद्ध जीत लिए तब उसने भारत के क्षत्रियों का विश्लेषण करते हुए लिखा- ‘राजपूत मरना जानते हैं पर जीतना नहीं जानते!’
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता