21 नवम्बर 1517 को दिल्ली के सुल्तान सिकंदर लोदी की मृत्यु हो गई। उसके बाद उसका बड़ा पुत्र इब्राहीम लोदी दिल्ली के तख्त पर बैठा। इस पर इब्राहीम के छोटे भाई जलाल खाँ ने इब्राहीम लोदी का विरोध किया जो कि कालपी का गवर्नर था। वह अफगानी परम्परा के अनुसार सल्तनत का विभाजन चाहता था किंतु इब्राहीम लोदी अकेला ही सल्तनत का स्वामी बनना चाहता था।
नया सुल्तान इब्राहीम लोदी अपने पिता सिकंदर लोदी की तरह युद्धप्रिय तथा दुस्साहसी था परन्तु वह स्वभाव से उद्दण्ड एवं शंकालु प्रवृत्ति का था। इन दुर्बलताओं के कारण वह किसी भी अफगान अमीर का विश्वासपात्र नहीं बन सका और आगे चलकर उसे भयानक विपत्तियों का सामना करना पड़ा। यहाँ तक कि उसका राज्य भी नष्ट हो गया।
दिल्ली का सुल्तान बनते ही अर्थात् ई.1517 में इब्राहीम लोदी ने ग्वालियर पर सैनिक अभियान करने का निर्णय लिया। वह जानता था कि उसका पिता सिकंदर लोदी ग्वालियर के विरुद्ध कई बार असफल अभियान कर चुका था। इसलिए इब्राहीम लोदी ने इस अभियान के लिए नए सैनिकों की भर्ती की तथा अत्यधिक सावधानी के साथ युद्ध अभियान की तैयारी की।
इस समय दिल्ली सल्तनत में केवल जलाल खाँ ही ऐसा व्यक्ति था जो इब्राहीम लोदी के विरोध में था। इसलिए इब्राहीम लोदी के अमीरों ने इब्राहीम लोदी को सलाह दी कि वह अपने भाई जलाल को कालपी से हटाकर जौनपुर का स्वतन्त्र शासक बना दे ताकि जलाल ग्वालियर अभियान में बाधा नहीं डाल सके। क्योंकि ग्वालियर से कालपी केवल 150 मील दूर था।
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अफगान अमीरों का कहना था कि जलाल को स्वतंत्र राज्य मिल जाने से जलाल संतुष्ट हो जाएगा तथा अपने भाई इब्राहीम लोदी का विरोध करना बंद कर देगा। अन्यथा वह ग्वालियर के तोमर राजा के साथ मिलकर अभियान में बाधा पहुंचा सकता है। सुल्तान इब्राहीम लोदी ने अमीरों के इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया तथा उसने जलाल को जौनपुर का स्वतंत्र शासक बना दिया।
जौनपुर का स्वतंत्र राज्य मिलते ही जलाल खाँ लोदी ने कालपी खाली कर दिया तथा अपने अमीरों एवं परिवार के साथ जौनपुर चला गया किंतु जब उसे ज्ञात हुआ कि सुल्तान इब्राहीम लोदी ग्वालियर के विरुद्ध अभियान की तैयारी कर रहा है तो जलाल समझ गया कि उसे कालपी से क्यों हटाया गया है! इसलिए जलाल ने फिर से इब्राहीम लोदी के विरुद्ध मोर्चा खोल दिया।
इस समय तक सुल्तान इब्राहीम की सेनाएं आगरा से ग्वालियर के लिए कूच कर चुकी थीं। इस कारण इब्राहीम की स्थिति दो पाटों के बीच फंसे घुन जैसी हो गई। इब्राहीम लोदी को अपनी गलती का अहसास हो गया कि उसने जौनपुर को स्वतन्त्र करके बड़ी भूल की है। इसलिए इब्राहीम लोदी ने अपने भाई जलाल खाँ को आगरा आकर मिलने के आदेश भिजवाए परन्तु जलाल ने आगरा आने से मना कर दिया।
इतना ही नहीं जलाल ने अवध पर आक्रमण करके वहाँ के गवर्नर सईद खाँ को परास्त कर दिया तथा अवध के सूबे पर अधिकार कर लिया। इस पर इब्राहीम लोदी ने ग्वालियर का अभियान कुछ दिनों के लिए रोक दिया तथा अपनी सेना को जलाल पर आक्रमण करने भेजा। जलाल दिल्ली की सेना का सामना करने की स्थिति में नहीं था। इसलिए वह अपनी पुरानी जागीर कालपी भाग गया।
अब सुल्तान की सेना ने कालपी का घेरा डाला। जलाल बुरी तरह घबरा गया और वहाँ से ग्वालियर के राजा विक्रमादित्य तोमर की शरण में भाग गया। अब इब्राहीम लोदी ने अपने अमीर आजम हुमायूं को ग्वालियर पर हमला करने के निर्देश दिए। पाठकों को स्मरण होगा कि यह वही आजम हुमायूं था जिसने पूर्ववर्ती सुल्तान सिकंदर लोदी का बहुत विरोध किया था किंतु बाद में उसने सिकंदर की अधीनता स्वीकार कर ली थी। आजम हुमायूं को कुछ पुस्तकों में आजम हुमायूं शेरवानी भी लिखा गया है। इस समय आजम हुमायूं शेरवानी दिल्ली सल्तनत के अमीरुल-अमरा के पद पर नियुक्त था।
उस समय चम्बल नदी से लेकर कालीसिंध नदी के बीच का बहुत बड़ा भू-भाग ग्वालियर राज्य के अधीन था। बाबर ने इस राज्य की आय सवा दो करोड़ रुपए कूंती थी। लोदी सुल्तान सिकंदर के समय से ही इस सम्पन्न प्रदेश पर अधिकार करके दिल्ली सल्तनत को फिर से उसी स्थिति में पहुंचाने का सपना देख रहे थे जो स्थिति अल्लाउद्दीन खिलजी एवं मुुहम्मद बिन तुगलक के समय हुआ करती थी।
इब्राहीम लोदी के साथ-साथ अन्य अफगान अमीर भी ग्वालियर के तोमरों को नष्ट करके ग्वालियर पर अधिकार करना चाहते थे। इसलिए आजम हुमायूं ने सुल्तान इब्राहीम के आदेश से ग्वालियर के विरुद्ध प्रस्थान किया।
हरिहर निवास द्विवेदी ने अपने ग्रंथ ‘ग्वालियर के तोमर’ में लिखा है कि सुल्तान इब्राहीम द्वारा आजम हुमायूं को आगे बढ़ाए जाने का उद्देश्य बहुत स्पष्ट था। उसे लगता था कि इस युद्ध में आजम हुमायूं अथवा राजा विक्रमादित्य तोमर में से जो भी परास्त हो, इब्राहीम लोदी का उन दोनों में से किसी एक विरोधी शक्ति से पीछा अवश्य छूट जाएगा।
आजम हुमायूं स्वयं भी ग्वालियर पर आक्रमण करने को उत्सुक था क्योंकि इससे पहले वह तोमरों से जौरा-अलापुर के युद्ध में बुरी तरह पिट चुका था तथा अपनी पुरानी पराजय का बदला लेना चाहता था। इस समय आजम हुमायूं के पास पचास हजार घुड़सवार थे।
सुल्तान इब्राहीम लोदी ने अपने तीस हजार घुड़सवार तथा 300 हाथी भी आजम हुमायूं की सहायता के लिए भेजे। इन तीस हजार घुड़सवारों का नेतृत्व 14 मुस्लिम अमीर तथा 7 हिन्दू राजा कर रहे थे। जैसे ही जलाल खाँ को ज्ञात हुआ कि सुल्तान की सेनाएं ग्वालियर पर घेरा डालने आ रही हैं तो जलाल खाँ चुपचाप ग्वालियर का दुर्ग छोड़कर मालवा के खिलजी सुल्तान की शरण में भाग गया।
हरिहर निवास द्विवेदी ने लिखा है कि मालवा के खिलजी सुल्तान ने जलाल खाँ को शरण नहीं दी तथा उसे बुरी तरह अपमानित करके अपने दरबार से निकाल दिया। इस पर जलाल खाँ गढ़-कंटगा के राजा की शरण में पहुंचा। गढ़-कंटगा के राजा ने जलाल खाँ को पकड़कर दिल्ली के सुल्तान इब्राहीम लोदी के पास भिजवा दिया।
इब्राहीम लोदी ने अपने भाई जलाल खाँ को कैद करके, हांसी के दुर्ग में रखने के आदेश दिए। जब जलाल खाँ को दिल्ली से हांसी ले जाया जा रहा था, तब सुल्तान इब्राहीम लोदी के आदेश से जलाल खाँ की मार्ग में ही हत्या कर दी गई। कुछ ग्रंथों में लिखा है कि जब जलाल खाँ एक स्थान से दूसरे स्थान को भाग रहा था तब उसे गोंड लोगों ने घेर लिया। गोंडों ने जलाल की हत्या कर दी तथा उसके डेरों का बहुमूल्य सामान लूट लिया। इस प्रकार इब्राहीम लोदी का अपने विद्रोही भाई जलाल खाँ लोदी से पीछा छूट गया।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता